Friday 22 July 2016

बांग-ए-दरा -41


बांग-ए-दरा


नक्कारा ए खुदा 

बजा कहे जिसे दुन्या उसे बजा कहिए,
ज़बाने-खलक को नक्कारा ए खुदा कहिए.

बहुत मशहूर शेर है मगर खयाले खाम से भरा हुवा है. 
ज़बाने खलक की तरह फैली हुई यहूदियत के नककारा को तोड़ने वाला ईसा मसीह क्या मुजरिम थे ? 
इंसान को एक एक दाने को मोहताज किए हुए इस दुन्या पर छाई हुई सरमाया दारी , नादार मेहनत कशों के लिए नक्कारा ए खुदा थी? 
इसे पाश पाश करने वाला कार्ल मार्क्स क्या मुजरिम था?
३०-३५ लाख लोग हर साल काबा में शैतान को कन्कड़ी मारने जाते हैं, इसके पसे पर्दा अरबों को इमदाद और एहतराम बख्शना क्या नक्कारा ए खुदा है? 
कुम्भ के मेले में करोरों लोग गंगा में डुबकी लगा कर अपने पाप धोते है और हराम खोर पंडों को पालते हैं, नंग धुदंग नागा साधू बेशर्मी का मुजाहिरा करते हैं, क्या ये नक्कारा ए खुदा है? 
नहीं यह सब साजिशों पर आधारित बुराइयाँ है.
मैं इलाहबाद होते हुए कानपुर जा रहा था, इलाहबाद स्टेशन आते ही लट्ठ लिए हुए पण्डे हमारी बोगी में आ घुसे . कुम्भ का ज़माना था, ज्यादाः हिस्सा गंगा स्नान करने वाले बोगी में थे सब पर उन पंडों ने अपना अपना क़ब्ज़ा जमा लिया. एक फटे हल अधेड़ पर जिस पण्डे ने अपना क़ब्ज़ा जमाया था उसको टटोलने लगा, अधेड़ ने कहा मेरे पास तो कोई पैसा कौड़ी नहीं है आपको देने के लिए, पण्डे ने उसे धिक्कारते हुए कहा 
"तो क्या अपनी मय्या C दाने के लिए यहाँ आया है" 
सुनकर मेरा कलेजा फट गया . आखिर कब तक हमारे समाज में ये सब चलता रहेगा?
इन बुराइयों पर ईमान और अकीदा रखने वालों को मेरी तहरीर की नई नई परतें बेचैन कर रही होंगी. कुछ लोग मुझसे जवाब तलब होंगे कि आखिर इन पर्दा कुशाइयों की ज़रुरत क्या है? इन इन्केशाफत से मेरी मुराद क्या है ? 
इसके बदले शोहरत, इज्ज़त या दौलत तो मिलने से रही, हाँ! ज़िल्लत, नफरत और मौत ज़रूर मिल सकती है. 
मुखालिफों की मददगार हुकूमत होगी, कानून होगा, यहाँ तक कि इस्लाम के दुश्मन दीगर धर्मावलम्बी भी होंगे. 
मेरे हमदर्द कहते है तुम मुनकिरे इस्लाम हो, हुवा करो, तुम्हारी तरह दरपर्दा बहुतेरे हैं. 
तुम नास्तिक हो हुवा करो, तुम्हारी तरह बहुत से हैं, तुम कोई अनोखे नहीं. 
अक्सर लम्हाती तौर पर हर आदमी नास्तिक हो जाता है मगर फिर ज़माने से समझौता कर लेता है या अलग थलग पड़ कर जंग खाया करता है.
मेरे मुहब्बी ठीक ही कहते है जो कि मुहब्बत के मारे हुए हैं. हक कहाँ बोल सकते हैं, 
मुझे खोना नहीं चाहते.
आज़ादी के बाद बहुत से मुस्लमान मोमिन बशक्ले-नास्तिक पैदा हुए हैं. कुछ ऐसे मुसलमान हुए जो अपनी मिटटी सुपुर्दे-खाक न करके सुपुर्दे-आग किया है, 
करीम छागला, नायब सदर जम्हूर्या जस्टिस हिदायत उल्लाह, मशहूर उर्दू लेखिका अस्मत चुगताई वगैरा नामी गिरामी हस्तियाँ हैं. उनके लिए सवाल ये उठता है कि उन्हों ने इस्लाम के खिलाफ जीते जी आवाज़ क्यूँ नहीं बुलंद की? तो मैं क्यूं मैदान में उतर रहे हूँ ?
ऐ लोगो! वह अपने आप में सीमित थे, वह सिर्फ अपने लिए थे. 
नास्तिक मोमिन थे मगर ज़मीनी हकीकत को सिर्फ अपने तक रक्खा. 
मैं नास्तिक मोमिन हूँ मगर एक धर्म के साथ जिसका धर्म है सदियों से महरूम, मजलूम और नादार मुसलमानों को जगाना। 
मजकूरह बाला लोग खुद अपने आपको मज़हब की तारीकी से निकल गए, 
इनके लिए यही काफी था. मैं इसे कोताही और खुद गरजी मानता हूँ. 
उनको रौशनी मिली मिली तो उन्हों ने इसे लोगों में तकसीम क्यूँ नहीं किया? 
क्यूं अपना ही भला करके चले गए?
मेरा इंसानी धर्म कहता है कि इंसानों को इस छाए हुए मज़हबी अँधेरे से निकालो, 
खुद निकल गए तो ये काफी नहीं है. 
मेरे अन्दर का इंसान सर पे कफ़न बाँध कर बाहर निकल पड़ा है, 
डर खौफ़, मसलेहत और रवा दारी मेरे लिए कोई मानी नहीं रखती, इंसानी क़दरों के सामने. 
मैं अपने आप में कभी कभी दुखी होता हूँ कि मैं भोले भाले अकीदत मंदों को ठेंस पहुंचा रहा हूँ मगर मेरी तहरीक एक आपरेशन है जिसमें अमल से पहले बेहोश करने का फामूला मेरे पास नहीं है, इस लिए आपरेशन होश ओ हवास के आलम में ही मुझे करना पड़ रहा है. 
इस मज़हबी नशे से नजात दिलाने के लिए सीधे सादे बन्दों को कुछ तकलीफ तो उठानी ही पड़ेगी. ताकि इन के दिमाग से इस्लामी कैंसर की गाँठ निकाली जा सके. 
इनकी नस्लों को जुनूनी क़ैद खानों से नजात मिले. 
इनकी नस्लें नई फिकरों से आशना हो सकें. 
मैं यह भी नहीं चाहता कि कौम आसमान से छूटे तो खजूर में अटके. 
मैं ये सोच भी नहीं सकता कि नस्लें इस्लाम से ख़ारिज होकर ईसाइयत, हिंदुत्व या और किसी अन्य धार्मिक जाल में फसें. ये सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं.
मैं मोमिन को इन सब से अलग और आगे इंसानियत की राह पर गामज़न करना चाहता हूँ जो आने वाले वक़्त में सफ़े अव्वल की नस्ल होगी. 
शायद ही कोई मुसलमान अपनी औलादों के लिए ऐसे ख्वाब देखता हो.
ऐ गाफिल मुसलामानों! 
अपनी नस्लों को आने वाले ज़वाल से बचाओ. 
इस्लाम अपने आने वाले अंजाम के साथ इन्हें ले डूबेगा. 
कोई इनका मदद गार न होगा, सब तमाश बीन होंगे. 
ऊपर कुछ भी नहीं है, सब धोका धडी है. 
पत्थर और मिटटी के बने बुतों की तरह अल्लाह भी एक हवा का खयाली बुत है. 
इससे डरने की कोई ज़रुरत नहीं है
 मगर सच्चा मोमिन बनना ऐन ज़रूरी है.
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