Wednesday 6 July 2016

बांग-ए-दरा -26


बांग-ए-दरा

सफाई

क्या आपने कभी गौर किया है कि सारी दुन्या में मुसलमान पसमान्दा क्यूं हैं? 
सारी दुन्या को छोड़ें अपने मुल्क भारत में ही देखें कि मुसलमान एक दो नहीं हर मैदान में सब से पीछे हैं. मैं इस वक़्त इस बात का एहसास शिद्दत के साथ कर रहा हूँ . 
क्यों कि मैं Ved is at your door '' के मुतहर्रिक स्वर्गीय स्वामी चिन्मयानानद के आश्रम के एक कमरे में मुकीम हूँ, जो कि हिमालयन बेल्ट हिमांचल प्रदेश में तपोवन के नाम से मशहूर है. आश्रम साफ सफ्फफ़, और शादाब, गन्दगी का नाम निशान नहीं, वाकई यह जगह धरती पर एक स्वर्ग जैसी है. ईमान दारी ऐसी कि कमरों में ताले की ज़रुरत नहीं. सिर्फ सौ रुपे में रिहाइश और खुराक बमय चाय या कोफी. ज़रुरत पड़े तो इलाज भी मुफ्त. 
मैं यहाँ अपने मोमिन के नाम से अजादाना रह रहा हूँ, उनके दी क्ष  प्रोग्रामो में हिस्सा लेकर अपनी जानकारी में अज़ाफा भी कर रहा हूँ. 
इनकी शिक्ष\ में कहीं कोई नफरत का पैगाम नहीं है. जदीद तरीन इंसानी क़द्रों के साथ साथ धर्म का ताल मेल भी, आप उनसे खुली बहेस भी कर सकते हैं. 
मैं ने यहाँ हिन्दू धर्म ग्रंथों का ज़खीरा पाया और जी भर के मुतालिया किया.
इसी तरह मैंने कई मंदिर, गुरु द्वारा, गिरजा देखा,
 बहाइयों का लोटस टेम्पिल देखा, ओशो आश्रम में रहा , 
इन जगहों में दाखिले पर जज़्बाए एहतराम पैदा होता है , 
इसके बरअक्स मुसलामानों के दरे अक़दस पर दिल बुरा होता है और नफरत के साथ वापसी होती है. चाहे वह ख्वाजा अजमेरी की दरगाह हो या निज़ामुद्दीन का दर ए अक़दस हो, जामा मस्जिद हो या मुंबई का हाजी अली. जाने में कराहियत होती है. 
आने जाने के रास्तों पर गन्दगी के ढेर के साथ साथ भिखारियों, अपाहिजों और कोढियों की मुसलसल कतारें राह पार करना दूभर कर देती है. 
मुजाविर (पण्डे) अकीदत मंदों की जेबें ख़ाली करने पर आमादः रहते हैं. 
मेरी अकीदत मन्द अहलिया निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पहुँचने से पहले ही भैंसे की गोश्त की सडांध, और गंदगी के बाईस उबकाई करने लगीं. 
बेहूदे फूल फरोश फूलों की डलिया मुँह पर लगा देते है. वह बगैर ज़्यारत किए वापस हुईं . 
इसी तरह अजमेर की दरगाह में लगे मटकों का पानी पीना गवारा न किया, 
सारी आस्था वहाँ बसे भिखारियों और हराम खोर मुजविरों के नज़र हो गई.
औरों के और मुसलामानों के ये कौमी ज्यारत गाहें, कौमों के मेयार का आइना दार हैं.. 
मुसलमान आज भी बेहिस हैं जिसकी वजेह है दीन इस्लाम. 
दूसरी कौमों ने परिवर्तन के तक़ाज़ों को तस्लीम कर लिया है और वक़्त के साथ साथ क़दम मिला कर चलती हैं. मुसलमान क़ुरआनी झूट को गले में बांधे हुए है. क़ुरआनी और हदीसी असरात ही इनके तमद्दुनी मर्काज़ों पर ग़ालिब है. 
मुसलमान दिन में पाँच बार मुँह हाथ और पैरों को धोता है जिसे वजू कहते हैं और बार बार तनासुल (लिंग) को धोकर पाक करता है, मगर नहाता है आठवें दिन जुमा जुमा. 
उसके कपडे साफी हो जाते हैं मगर उसमें पाकी बनी रहती है. नतीजतन उसके कपडे और जिस्म से बदबू आती रहती है. जहाँ जायगा अपनी दीनी बदबू के साथ. मुसलामानों को यह वर्सा मुहम्मद से मिला है. वह भी गन्दगी पसंद थे कई हदीसें इसकी गवाह हैं, अक्सर बकरियों के बाड़े में नमाज़ पढ़ लिया करते.
दूसरी बात ज़कात और खैरात की रुकनी पाबंदी ने कौम को भिखारी ज्यादा बनाया है जिसकी वजेह से मेहनत की कमाई हुई रोटी को कोई दर्जा ही नहीं मिला. सब क़ुरआनी बरकत है, 
जहां सदाक़त नहीं होती वहां सफाई भी नहीं होती और न कोई मुसबत अलामत पैदा हो पाती है.
आश्रम में कव्वे, कुत्ते कहीं नज़र नहीं आते, इनके लिए कहीं कोई गंदगी छोड़ी ही नहीं जाती. ख़ूबसूरत चौहद्दी में शादाब दरख़्त, उनपर चहचहाते हुए परिंदों के झुण्ड. जो कानों में रस घोलते हैं. 
ऐसी कोई मिसाल भारत उप महाद्वीप में मुसलामानों की नहीं है. 
यहाँ जो भी तालीम दी जाती है उसमें क़ुरआनी नफरत  होती है जो इंसानों के हक में नहीं.
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