Sunday 31 July 2016

बांग-ए-दरा 50




बांग-ए-दरा

ईमान

सिने बलूगत से पहले मैं ईमान का मतलब माली लेन देन की पुख्तगी को समझता रहा 
मगर जब मुस्लिम समाज में प्रचलित शब्द "ईमान" को जाना तो मालूम हुवा कि 
"कलमाए शहादत", 
पर यक़ीन रखना ही इस्लामी इस्तेलाह (परिभाषा) में ईमान है, 
जिसका माली लेन देन से कोई वास्ता नहीं. 
कलमाए शहादत का निचोड़ है अल्लाह, रसूल, कुरआन और इनके फ़रमूदात पर आस्था के साथ यकीन रखना, ईमान कहलाता है. 
सिने बलूगत आने पर एहसास ने इस पर अटल रहने से बगावत करना शुरू कर दिया 
कि इन की बातें माफौकुल फितरत (अप्राकृतिक और अलौकिक) हैं. 
मुझे इस बात से मायूसी हुई कि लेन देन का पुख्ता होना ईमान नहीं है 
जिसे आज तक मैं समझता था. 
बस्ती के बड़े बड़े मौलानाओं की बेईमानी पर मैं हैरान हो जाता कि ये कैसे मुसलमान हैं? मुश्किल रोज़ बरोज़ बढती गई कि इन बे-ईमानियों पर ईमान रखना होगा.? 
धीरे धीरे अल्लाह, रसूल और कुरानी फरमानों का मैं मुनकिर होता गया और 
ईमाने-अस्ल मेरा ईमान बनता गया कि कुदरती सच ही सच है. 
ज़मीर की आवाज़ ही हक है.
हम ज़मीन को अपनी आँखों से गोल देखते है जो सूरज के गिर्द चक्कर लगाती है, 
इस तरह दिन और रत हुवा करते हैं. 
अल्लाह, रसूल, कुरान और इनके फ़रमूदात पर यकीन करके इसे रोटी की तरह चिपटी माने, और सूरज को रात  के वक़्त अल्लाह को सजदा करने चले जाना, 
अल्लाह का उसको मशरिक की तरफ से वापस करना - - -  
ये मुझको क़ुबूल न हो सका. 
मेरी हैरत की इन्तहा बढती गई कि मुसलमानों का ईमान कितना कमज़ोर है. 
कुछ लोग दोनों बातो को मानते हैं, 
इस्लाम के रू से वह लोग मुनाफ़िक़ हुए यानी दोगले. दोगला बनना भी मुझे मंज़ूर न हुवा.
मुसलमानों! 
मेरी इस उम्रे-नादानी से सिने-बलूगत के सफ़र में आप भी शामिल हो जाइए और 
मुझे अकली पैमाने पर टोकिए, जहाँ मैं ग़लत लगूँ. 
इस सफ़र में मैं मुस्लिम से मोमिन हो गया, जिसका ईमान, 
सदाक़त पर अपने अकले-सलीम के साथ सवार है. 
आपको दावते-ईमान है कि आप भी मोमिन बनिए और आने वाले बुरे वक्त से नजात पाइए. आजके परिवेश में देखिए कि मुस्लमान खुद मुसलमानों का दुश्मन बना हुआ है, 
वह भी पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईराक और दीगर मुस्लिम मुमालिक में. 
बाक़ी जगह गैर मुस्लिमो को वह अपना दुश्मन बनाए हुए है. 
कुरान के नाक़िस पैगाम अब दुन्या के सामने अपने असली रूप में नाजिल और हाजिर हैं. इंसानियत की राह में हक़ परस्त लोग इसको क़ायम नहीं रहने देंगे, 
वह सब मिलकर इस गुमराह कुन इबारत को गारत कर देंगे, 
उसके फ़ौरन बाद आप का नंबर होगा. जागिए मोमिन हो जाने का पहले क़स्द करिए, 
 मोमिन बनना आसान भी नहीं, सच बोलने और सच जीने में लोहे के चने चबाने पड़ते हैं. 
मोमिन बन जाने के बाद  सब आसान हो जाता है, 
इसके बाद तरके-इस्लाम का एलान कर दीजिए.
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Saturday 30 July 2016

बांग-ए-दरा 49


बांग-ए-दरा


मैं - - - 

मैं एक बहुत ही निर्धन परिवार का बेटा हूँ. 
अनथक मेहनत से अपने सम्पूर्ण परिवार को गरीबी रेखा से ऊपर उठाया है, लाखों रुपए ईमानदारी के साथ इनकम टैक्स भरा है. 
तालीम ही मेरी मंजिल है जो बच्चों के हक में जा रही है . 
मैं आज भी इसके लिए अपने आपको समर्पित रखता हूँ, 
मेरे पास कोई बड़ी डिग्री नहीं, न ही ढंग का लेखन कर पता हूँ 
मगर धर्म गुरूओं का अध्यन किया है. 
फिर मुझे कबीर याद आता है, जो कहता है - - -
''तुम जानौ कागद की लेखी, मैं जानूं आखन की देखी.'' 
मेरे तमाम आलोचक कागद की लेखी को आधार बना कर 
मुझे उन लेखो का आइना दिखलाते हैं, 
जिनको पढ़ कर वह उधार ज्ञान अर्जित करते हैं. 
खेद है कि वह अपने दिलो-दिमाग और अपने ज़मीर को अपना साक्ष्य नहीं बनाते. 
मेरे लेख को कुरआन के उर्दू तर्जुमे से सीधे मीलान 
''मौलाना अशरफ अली थानवी'' 
के कुरान से कर लीजिए जो दुनया के सब से दिग्गज कुरआनी आलिम हैं 
और हदीसें ''बुखारी और मुस्लिम'' से मिला लीजिए. 
हाँ उस पर तबसरा मेरा है जो किसी को गराँ गुज़रता हो, 
उनको ही मेरा मशविरा है कि वह ''कागत की लेखी'' पर न जाएं, 
यह उधार का ज्ञान है. अगर आप की अपना कुछ अपने अन्दर बिसात और चेतन हो तो मेरी बात माने वर्ना हजारों ''बातिल ओलिमा'' हैं, 
उनपर अपनी तवानाई बर्बाद करें.
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Friday 29 July 2016

बांग-ए-दरा 48





बांग-ए-दरा

योग 
(+) (-) गुणा और भाग द्वारा छेड़े बिना कोई संख्या =योग नहीं बनती, योगी निरा अयोग्य होते हुए योगी कहलाता है. 
हमारे भारतीय सभ्यता की यही त्रासदी है. 
मानव जाति कोई संख्या नहीं, एक जीव है. फिर भी इसका मुकममल योग तभी बन सकता है, जब यह विपरीत लिंग से मिले. 
स्त्री पुरुष मिलन किए बिना न योगी होते हैं न योगं. 
इन्हें आयोग कहना दुरुस्त होगा.
योगी कहे जाने वाले अक्सर विवाहित ही नहीं होते, 
अगर किसी दबाव से हो भी  गए तो, 
नियोग की ज़रुरत पड जाती है. 
नियोग भारतीय संस्कृति पुराना चलन है, 
जिससे परिणाम स्वरूप बड़े महान स्तित्व में आए हैं. 
इनके लिए बड़े बड़े पराक्रमी ऋषि मुनि हायर किए जाते थे, 
जो दर अस्ल सांड हुवा करते थे. 
मैंने कई आश्रम में रह कर देखा है कि योगी और योगन मिल कर  
किस तरह का नंगा नाच नाचते हैं. 
यह लोग बड़े शयाने होते हैं, घर परिवार की ज़िम्मेदार्यों से बचने के लिए योग मार्ग अपनाते हैं. 
इनका खर्च खराबा और कुकृतियाँ समाज ढोता है.

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नील गाय 
 किसानों की ज्वलंत समस्या पहली बार जोर शोर से मंज़र ए आप पर आई है. सूखा और बाढ़ पर तो इंसान का अभी तक कोई बस नहीं रहा मगर जिन पर बस है, वह धर्म और फिलासफी के ताने बाने में फंसे हुए हैं.
नील गाय का आतंक मैंने अपने आँखों से देखा हुवा है, 
देख कर खून के आंसू बहने लगे. 
सरकार ने शूटरों के ज़रिए नील गायों की सफाई का कम जो शुरू किया है, वह फौरी हल है, इसका मुश्तकिल हल बहुत से हैं. 
जैसे भारत के मांस एक्सपोटर गाय, बैल, भैंस और अन्य जानवरों का मांस एक्सपोर्ट करते हैं, वैसे ही नील गायों को उनके हवाले कर दिया जाए . 
अरबी नाम रख कर ८५% इसके हिन्दू एक्सपोर्टर हैं, 
भगुवा ब्रिगेड को इस पर कोई एतराज़ नहीं, 
वह तो ग़रीब ट्रक ड्राईवर और क्लीनर को नंगा कर के देखते हैं, 
फिर जानवरों की तरह उन्हें पीट पीट कर मार देते हैं 
और उनके सर पर अपने जूते रख कर ISIS के विजई की तरह फोटो खिंचवाते हैं, उन्हें कोई डर नहीं कि सरकारें उन्हें इसकी छूट देती हैं.
इन गरीबों के बाल बच्चे घर में इनके मुन्तजिर रहते हैं कि अब्बू रात को कुछ खाने ला रहे होंगे.
हमारे किसानों का दुर्भाग्य है कि वह भी इन्हीं नील गायों की तरह ही शाकाहार हैं, वरना घर आई मुफ्त की गिज़ा इनके लिए उपहार होता. बिना चर्बी का, रूखा गोश्त सेहत के लिए अच्छा होता है.
नील गायों के बचाव के पक्ष में जो धर्म भीरु नेता और दलीलों के दलाल आते हैं, उनको उनके एयर कंडीशन घरों से निकाल कर उन गावों में किसानी करने की सजा दी जाए, जिनकी फसलें रात भर में जानवर बर्बाद कर देते हैं. 
इंसान अशरफुल मखलूकात हैं, 
अगर तमाम जीव खतरे में आ जाएं तो पहले इंसान को बचाना चाहिए, क्योंकि इंसान ही तमाम प्रजातियों को बचा रखने की सलाहियत रखता है. जानवरों की प्रजातियां एक दूसरे को ख़त्म करने के फिराक में रहती हैं.
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Thursday 28 July 2016

बांग-ए-दरा 47


बांग-ए-दरा

गुण गान 

एक गाँव में सर्वे के लिए सरकारी अमला पहुंचा जिसमें एक डाक्टर भी  था. उसने एक ग्रामीण से गाँव की आबो-हवा और पर्यावरण के बारे में कुछ सवाल किए.
ग्रामीण कथा सुनाने लगा,
अरे साहब हमारे गाँव की  आब व् हवा का कोई जवाब नहीं, 
लाभ कारी, सेहत बख्श, सुहानी और बेमिसाल है. 
आप मेरी तंदुरुस्ती देख कर अंदाज़ा लगा सकते हैं, 
सुनें ! मैं बिमारी की भेंट चढ़ कर मौत के घाट उतरने की कगार पर पहुच गया था, एक रोग हो तो बतलाऊँ, बस बचा लिया इस गाँव ने मुझे 
कि आज चल फिर रहा हूँ.
डाक्टर ने पूछा इस से पहले आप कहाँ रहते थे ?
यह लेव, 
और सुनो, 
डाक्टर साहब ! मैं तो कभी अपने गाँव को छोड़ कर कहीं गया ही नहीं .    
हम इसी तरह से अपने देश का गुण गान करते हैं. 
हम उस देश वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है .
हुक्मरान हमको पहले अपने देश का गुण गान सिखलाते हैं, 
इसके बाद ही हमें अक्षर ज्ञान सिखलाया जाता है.
स्वचितन तो यहाँ जुर्म है और कभी तो देश द्रोह.  
हम चोर उचक्के हैं, कोई बात नहीं, 
हम नफा खोरहैं, कोई बात नहीं. 
मिलावट करने में माहिर, कोई बात नहीं.
हम अंध विशवास में इतने डूबे हैं कि हर बनिया हमें ठग रहा है. 
कोई बात नहीं.
हमारी जेलें जरायम पेशा से भरी हैं, अदालतें आराम फार्म रही है.
कोई बात नहीं.
जब हम सुनते हैं कि फलां मुल्क में जेलें खाली पड़ी हुई हैं, उनका खर्च सरकार पर गराँ गुज़रता है, 
तो हमारे मुंह से बस आयं भर निकलता है 
और हम फिर अपनी बोझिल ज़िन्दगी कोजीने लगते हैं.
अभी स्वीटज़र लैंड ने हमारे गाल पर एक ज़ोरदार तमाचा रसीद किया, जिस गाल को हम देश भक्ति में बजाया करते हैं,  
स्वीटज़र लैंड की अवाम ने बिना मेहनत किए नेशन से रायल्टी लेने से इनकार कर दिया है.
वह गुण गान को गाते नहीं, गुण गान को जीते हैं. 

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Wednesday 27 July 2016

Hadeesi Hadse 20


हदीसी हादसे 
बुखारी ६३९

 मुहम्मद ने मर्ज़ ए वफात में अपनी बीवी आयशा से कहा यहूदियों और ईसाइयों पर खुदा की मार कि जिनहों ने अपने नबियों की क़ब्रों को सजदा गाह बना रख्खा है. 
आयशा ने कहा हाँ! मुझे खौफ़ है कि कहीं आपकी कब्र को भी सजदागाह न बना लिया जाए. 
शायद यह बात गलत है कि मरते वक़्त इंसान के दिल में बुग्ज़ और झूट की कोई जगह नहीं रहती. यह हज़रत कुदूरत के पुतले थे. 

बुखारी ६१७-१८ 

मुहम्मद ने किसी मिटटी में औरतों को शरीक होने से महरूम कर दिया और कहा जो शख्स अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान रखता है, उसे चाहिए की मौतों का सदमा तीन दिन से ज़्यादः न किया करे. 

बुखारी ६३० 
मुहम्मद अपने लौंडी जने बेटे की खबर लेने चले जो युसूफ लोहार के यहाँ पल रहा था लोहार के घर उसकी भट्टी का धुवाँ भरा हुवा था और बच्चा गालिबन धुवां को बर्दाश्त नहीं कर परः था, वह बेचैन था. मुहम्मद के गोद में आकर बच्चे इब्राहीम ने दम तोड़ दिया. जिसे मुहम्मद ने अल्लाह की मर्ज़ी जाना. लोहार पर कोई इलज़ाम न दिया जिसकी वजेह से बच्चा मर गया,. 
मुहम्मद साहिबे हसियत थे, बच्चा उनकी निगरानी में पल सकता था. 

बुखारी ६15 
अब्गुल्ला बिन अबी एक मुनाफ़िक़ था जो मुहम्मद की वजेह से मदीने का हाकिम न बन सका. उसने कई बार मुसलमान होने से पहले मुहम्मद से पंगा लिया था. आयशा पर इलज़ाम लगाने का काम इसी ने किया था. दरपर्दा मुहम्मद का जानी दुश्मन था, बावजूद इस्लाम कुबूल करने के. 
मुहम्मद ने उसके मरने के बाद उसके मुंह में थूक कर अपनी पैगम्बरी निभाई थी या दुश्मनी, इस बात को वह खूब जानते हैं.



बांग-ए-दरा 46


बांग-ए-दरा

ज़रा सी तब्दीली 

भारत उप महाद्वीप के 60 करोर मुसलमान मनुवाद के महा जाल से मुक्त, इस्लाम के छोटे जाल में फंस कर रह गए हैं. 
यह आकाश से गिर कर खजूर में अटके हुए लोग हैं.
मुसलमानों ने जिस तरह भी मनु वाद से मुक्ति पाई हो, 
सामजिक दबाव से, स्व -चिंतन से या और किसी करण से, 
उनके हक में अच्छा ही हुवा. 
मनुवाद की ज़िल्लत भरी ज़िन्दगी से नजात मिली.
मुसलामानों को एक बार और जिसारत करनी होगी कि वह मुस्लिम से मोमिन हो जाएं. कोई बड़ी तब्दीली करनी नहीं पड़ेगी, 
बस बेदारी की ज़रुरत है. इस्लामी अकीदत को तर्क कर के, 
ईमानी हकीक़त को अपना लें, 
इसमें खुद इनका ही भला न नहीं बल्कि मनुवाद के अन्धकार को भी  रौशनी की किरण मिलेगी. उनका अस्तित्व भी दुश्वार हो जाएगा. 
ईमान क्या है ? वह सच जिसकी गवाह कुदरत हो, 
लौकिक सत्य, आलमी सदाक़त. 
इस्लाम कल्पित सत्य नहीं बल्कि कल्पित मिथ्य है.  
इस्लाम को मुसलामानों के हलक में घुट्टी की तरह पिलाया गया है.
मनुवाद हिदुओं के चेहरों पर पाथा गया गोबर है. 
इससे निकलना बहुत ही आसान है. 
60 करोर मुसलमान इसी गलाज़त से निकले हुए लोग है.      


अल्लाह बनाम कुदरत 

अल्लाह कुछ और नहीं यही कुदरत है, कहीं और नहीं, सब तुम्हारे सामने मौजूद है अल्लाह के नाम से जितने नाम सजे हुए हैं सब तुम्हारा वह्म है और साज़िश्यों की तलाश है . 
कुदरत जितना तुम्हारे सामने मौजूद है उससे कहीं ज्यादा तुम्हारे नज़र और जेहन से परे है. उसे साइंस तलाश कर रही है. जितना तलाशा गया है वही सत्य है,बाकी सब इंसानी कल्पनाएँ हैं .
आदनी आम तौर पर अपने पूज्य की दासता चाहता है, 
ढोंगी पूज्य पैदा करते रहते हैं और हम उनके जाल में फंसे रहते हैं. 
हमें दासता ही चाहिए तो अपनी ज़मीन की दासता करे, इसे सजाएं, संवारें. 
इसमें ही हमारे पीढ़ियों का भविष्य निहित है. 
मन की अशांति का सामना एक पेड़ की तरह करें जो झुलस झुलस कर धूप में खड़ा रहता है, वह मंदिर और मस्जिद नहीं ढूंढता, आपकी तरह ही एक दिन मर जाता है .
हमें खुदाई हकीकत को समझने में अब देर नहीं करनी चाहिए, 
वहमों के ख़ुदा इंसान को अब तक काफी बर्बाद कर चुके हैं, अब और नहीं। 

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Tuesday 26 July 2016

बांग-ए-दरा 45


बांग-ए-दरा

बेटा ज़रा धीरे - - - 

उर्दू का महान अफसाना निगार कृष्ण चंदर का चर्चित अफसाना (कहानी), 
"बर्फ के फूल" का एक मंज़र पेश है,
१९४७ बटवारे का ज़माना था धार्मिक नफरत शबाब पर थी,
लिखता है हिदुओं के खौफ से एक मुसलमान परिवार अपने आबाई घर को छोड़ कर जा रहा था, 
जाते जाते वह और कुछ न कर सका तो,
अपनी दीवार पर लिख दिया था.
हिन्दुओं की माँ की C....
तलवार और भाले से लैस एक हिन्दू जब उस घर पर हम्लावर हुवा तो उसे मायूसी हुई कि उसको क़त्ल के लिए कोई मुसलमान न मिला,
उसकी नज़र दीवार पर लिखी इबारत पडी,
उसका खून खौल उठा, उसने उसी वक़्त प्रतिज्ञां की कि 
अगली जो भी मुसल्मानिन मिली, उसकी अस्मत वर्जी (बलात्कार) करेगा,
जूनून के आलम में वह क़दम आगे बढ़ा रहा था कि खेत में उसे एक बूढी मुसलमान औरत अपनी जान बचाए दुबकी हुई नज़र आई,
नव जवान ने उसे धर दबोचा,
मगर वह तो दादी नानी से भी बूढी और नातवां थी,
नव जवान पर उसकी प्रतिज्ञां गालिब हुई,
वह उस पर टूट पड़ा,
कहानी कार बूढी माँ के किरदार से जो अल्फाज़ अदा कराता है वह थे,
बेटा ज़रा धीरे - - - 

आजकल फेस बुक पर 70 सालों बाद हिन्दू और मुसलमान कुछ ज्यादा ही जवान और संज्ञा शून्य हो गए हैं कि 
बिना कुछ गंवाए ही एक दूसरे की माँ बहन तौल रहे हैं, 
कितने अफ़सोस का मुकाम है ?
हम कब सभ्य होंगे ??
ध्यान रहे - - - जब किसी की माँ को गाली दे रहे हों तो इसकी कल्पना भी कर लिया करें, बेटा ज़रा धीरे - - - 



Monday 25 July 2016

बांग-ए-दरा 44


बांग-ए-दरा

आपो दीपो भवः 

मैं कभी किसी संस्था के आधीन नहीं रहा, न किसी तंजीम का मिंबर.
मैं ज़िन्दगी  की मुकम्मल आज़ादी चाहता हूँ , 
बसकि मेरी ज़ात से किसी को कोई नुकसान न पहुंचे.
मैं अपने आप में खुद एक संस्था हूँ. 
जो किसी को आधीन बनाना पसंद नहीं करती.
यह धर्म व् मज़हब अपने आप में बड़ी संस्थाएं हैं, 
जो अपने आधीनों की संख्या में अज़फा करने में लगे रहते हैं. 
स्वाधीन अगर बाज़मीर है तो, किसी को आधीन नहीं बनाता .
बड़ा गर्व करती हैं संस्थाएं कि विश्व में उनके इतने सदस्य और मानने वाले हैं, मगर जब इन पर अंकुश लगता है, 
तब इनका मानवता भेदी पोल खुल जाता है,   
बाबा , स्वामी, बापू, गुरुदेव जुर्म के पुतले बन जाते हैं.
राजनीति इन्हें पालती पोस्ती है, इनके चार धाम बनाती है .
यही धाम जब किला बनकर हुकूमत को आँख दिखलाते है तो उसे आपरेशन ब्लू , रेड, येलो स्टार चलाना पड़ता है .
इन दुष्ट परिवर्ति पर अगर हुकूमत-ए-वक़्त पाबंदी नहीं लगा पाती, 
तो यह पैग़म्बर का मुकाम पा जाते हैं .

इनके फर्मूदात की पैरवी करते हुए तारीख में ISIS पैदा होते रहते हैं .

Sunday 24 July 2016

बांग-ए-दरा 43


बांग-ए-दरा

तबलीगिए

मुसलामानों में एक नया तबका तबलीगी जमात का पैदा हुवा है जिनका एक सूत्री प्रोग्राम होता है ,
नमाज़ पढ़ना और नमाज़ पढ़ाना .
यह बहुधा समाज के निकम्मे और कर्तव्य पलायन लोग होते हैं जो मज़हब की आड़ से सम्मान हासिल करने की कोशिश में रहते हैं . यह लोगों को इस तरह बहकते हैं कि - - - 
फर्द के पास जाते हैं, अल्लाह और रसूल का वास्ता देकर मस्जिद ताक ले जाते हैं, अपने असर में दो तीन दिन ताक लिए रहते हैं फिर उसको अपने साथ तबलीग (धर्म प्रचार) पर ले जाने की पेश कश रखते हैं , व्यत्ति कहता है - - - 
अरे भाई मैं अपने घर की ज़िम्मेदारी किस पर छोड़ कर जा सकता हूँ ? मेरा छोटा सा कारोबार कौन सीखेगा ??
यह उससे पूछते हैं - - -
अल्लाह पर भरोसा है ?
कभी कभी कशमकश में आकर व्यक्ति फंस जाता है .

कहते हैं इसी तरह की पांच लोगों की एक जमात कस्बे से बाहर निकली तो वापस नहीं आई .
लोग कहते हैं कि वह बहुत दूर कोरियाई कबीला तक पहुँच गए थे . वहां खेत पर काम करता हुवा एक किसान मिला जिसको इन्हों ने अपना मुद्दा बयान किया, वह इन्हें अपने मुखिया के पास ले गया . 
मुखिया ने इनकी बात सुनी और बहुत खुश हुवा . पूरे गाँव को इकठ्ठा करके उसने एलान किया कि नया मज़हब का पैगाम लेकर यह लोग आए है तुम सब को इनकी बात पर अमल करने की हिदायत है .
इन तबलीगियों ने गाँव के लोगों को नमाज़ की उठठक बैठक लडवाना शुरू कर दिया . बस थोड़ी सी दिक्क़त आती जब यह रुकु, सुजूद बहुत तेज़ी से करते , जैसे जोड़ो कराटे का अंदाज़ होता है. पेश इमाम का जितना वक़्त 
"अल्लाह हाक्बर, समी अल्लाह होलेमन हमदा " 
में लगता, कोरियाई अठ्ठारा बर रुकू कर लेते .
क्या फर्क पड़ता है , धीरे धीरे मेरी तरह ही सुस्त हो जाएँगे, मुल्ले यह सोच कर तसल्ली कर लेते . 
तब्लीगियों की चांदी कट रही थी. मन चाहा , मुफ्त में कयाम और तुआम . 
उन्हों ने चिल्ले को बढ़ा कर चालीस दिन कर दिया . 
ख़त्म तबलीग कबीले ने इन्हें एक नाव पर बिठा कर नाविक को नदी , बस अड्डे तक छोड़ने का आदेश दिया .
नाव 40-50 क़दम ही चली होगी कि मुखिया ने आवाज़ लगाई ,
मुल्ला जी ! सुनिए , 
मैं भूल रहा हूँ कि मग़रिब की नमाज़ में फ़र्ज़ की कितनी रिकात होती हैं ?
अमीर जमात बडबडाया, 
लाख तोते को पढाया, पर वह हैवाँ ही रहा .
मुखिया ने आवाज़ दी , रुकिए , मैं खुद आ रहा हूँ .
और मुखिया पानी पर चलता हवा उनके पास पहंचा , 
मुसाफा करने के लिए हाथ बढाया ,
तब्लीगियों की हवा ख़ारिज होने लगी . 
मैं पानी पर नहीं आ सकता , डूब जाऊँगा ,
तैरना तो आता होगा ? कि वह भी नहीं सीखा ?
अरे ! हम अल्लाह वाले लोग तैरना वेरना क्या जाने .
वह बोले ,
मुखिया ने नाविक को हुक्म दिया ,
डुबो दे इन हराम खोरों को ताकि मानव जाति पर से कुछ बोझ कम हो .

*****



Saturday 23 July 2016

बांग-ए-दरा 42




बांग-ए-दरा
हरामा 
मुसलामानों में रायज रुस्वाए ज़माना नाजेब्गी हलाला जिसको दर असल हरामा कहना मुनासिब होगा, 
वह तलाक़ दी हुई अपनी बीवी को दोबारा अपनाने का एक शर्म नाक तरीका है 
जिस के तहेत मत्लूका को किसी दूसरे मर्द के साथ निकाह करना होगा 
और उसके साथ हम बिस्तारी की शर्त लागू होगी 
फिर वह दूसरा शौहर तलाक़ देगा, 
बाद इद्दत ख़त्म औरत का तिबारा निकाह अपने पहले शौहर के साथ होगा, 
तब जा कर दोनों इस्लामी दागे बे गैरती को ढोते हुए तमाम जिंदगी गुज़ारेंगे. 

अक्सर ऐसा भी होता है कि टेम्प्रेरी शौहर औरत को तलाक़ ही नहीं देता और वह नई मुसीबत में फंस जाती है, उधर शौहर ठगा सा रह जाता है. ज़रा तसव्वुर करें कि मामूली सी बात का इतना बड़ा बतंगड़, दो जिंदगियां और उनके मासूम बच्चे ताउम्र रुसवाई का बोझ ढोते रहें. 
*****
अरबों का ज़वाल इस्लाम के बाद हुआ 

फतह मक्का के बाद अरब क़ौम अपनी इर्तेकाई उरूज को खो कर शिकस्त खुर्दगी पर गामज़न हो चुकी थी। जंगी लदान का इस्लामी हरबा उस पर इस क़दर पुर ज़ोर और इतने तवील अरसे तक रहा कि इसे दम लेने की फुर्सत न मिल सकी। 
इस्लामी ख़ुद साख्ता उरूज का ज़वाल उस पर इस कद्र ग़ालिब हुवा की इस का ताबनाक माज़ी कुफ़्र का मज़्मूम सिम्बल बन कर रह गया। योरोप के शाने बशाने बल्कि योरोप से दो क़दम आगे चलने वाली अरब क़ौम, योरोप के आगे अब  घुटने टेके हुए है।
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Friday 22 July 2016

बांग-ए-दरा -41


बांग-ए-दरा


नक्कारा ए खुदा 

बजा कहे जिसे दुन्या उसे बजा कहिए,
ज़बाने-खलक को नक्कारा ए खुदा कहिए.

बहुत मशहूर शेर है मगर खयाले खाम से भरा हुवा है. 
ज़बाने खलक की तरह फैली हुई यहूदियत के नककारा को तोड़ने वाला ईसा मसीह क्या मुजरिम थे ? 
इंसान को एक एक दाने को मोहताज किए हुए इस दुन्या पर छाई हुई सरमाया दारी , नादार मेहनत कशों के लिए नक्कारा ए खुदा थी? 
इसे पाश पाश करने वाला कार्ल मार्क्स क्या मुजरिम था?
३०-३५ लाख लोग हर साल काबा में शैतान को कन्कड़ी मारने जाते हैं, इसके पसे पर्दा अरबों को इमदाद और एहतराम बख्शना क्या नक्कारा ए खुदा है? 
कुम्भ के मेले में करोरों लोग गंगा में डुबकी लगा कर अपने पाप धोते है और हराम खोर पंडों को पालते हैं, नंग धुदंग नागा साधू बेशर्मी का मुजाहिरा करते हैं, क्या ये नक्कारा ए खुदा है? 
नहीं यह सब साजिशों पर आधारित बुराइयाँ है.
मैं इलाहबाद होते हुए कानपुर जा रहा था, इलाहबाद स्टेशन आते ही लट्ठ लिए हुए पण्डे हमारी बोगी में आ घुसे . कुम्भ का ज़माना था, ज्यादाः हिस्सा गंगा स्नान करने वाले बोगी में थे सब पर उन पंडों ने अपना अपना क़ब्ज़ा जमा लिया. एक फटे हल अधेड़ पर जिस पण्डे ने अपना क़ब्ज़ा जमाया था उसको टटोलने लगा, अधेड़ ने कहा मेरे पास तो कोई पैसा कौड़ी नहीं है आपको देने के लिए, पण्डे ने उसे धिक्कारते हुए कहा 
"तो क्या अपनी मय्या C दाने के लिए यहाँ आया है" 
सुनकर मेरा कलेजा फट गया . आखिर कब तक हमारे समाज में ये सब चलता रहेगा?
इन बुराइयों पर ईमान और अकीदा रखने वालों को मेरी तहरीर की नई नई परतें बेचैन कर रही होंगी. कुछ लोग मुझसे जवाब तलब होंगे कि आखिर इन पर्दा कुशाइयों की ज़रुरत क्या है? इन इन्केशाफत से मेरी मुराद क्या है ? 
इसके बदले शोहरत, इज्ज़त या दौलत तो मिलने से रही, हाँ! ज़िल्लत, नफरत और मौत ज़रूर मिल सकती है. 
मुखालिफों की मददगार हुकूमत होगी, कानून होगा, यहाँ तक कि इस्लाम के दुश्मन दीगर धर्मावलम्बी भी होंगे. 
मेरे हमदर्द कहते है तुम मुनकिरे इस्लाम हो, हुवा करो, तुम्हारी तरह दरपर्दा बहुतेरे हैं. 
तुम नास्तिक हो हुवा करो, तुम्हारी तरह बहुत से हैं, तुम कोई अनोखे नहीं. 
अक्सर लम्हाती तौर पर हर आदमी नास्तिक हो जाता है मगर फिर ज़माने से समझौता कर लेता है या अलग थलग पड़ कर जंग खाया करता है.
मेरे मुहब्बी ठीक ही कहते है जो कि मुहब्बत के मारे हुए हैं. हक कहाँ बोल सकते हैं, 
मुझे खोना नहीं चाहते.
आज़ादी के बाद बहुत से मुस्लमान मोमिन बशक्ले-नास्तिक पैदा हुए हैं. कुछ ऐसे मुसलमान हुए जो अपनी मिटटी सुपुर्दे-खाक न करके सुपुर्दे-आग किया है, 
करीम छागला, नायब सदर जम्हूर्या जस्टिस हिदायत उल्लाह, मशहूर उर्दू लेखिका अस्मत चुगताई वगैरा नामी गिरामी हस्तियाँ हैं. उनके लिए सवाल ये उठता है कि उन्हों ने इस्लाम के खिलाफ जीते जी आवाज़ क्यूँ नहीं बुलंद की? तो मैं क्यूं मैदान में उतर रहे हूँ ?
ऐ लोगो! वह अपने आप में सीमित थे, वह सिर्फ अपने लिए थे. 
नास्तिक मोमिन थे मगर ज़मीनी हकीकत को सिर्फ अपने तक रक्खा. 
मैं नास्तिक मोमिन हूँ मगर एक धर्म के साथ जिसका धर्म है सदियों से महरूम, मजलूम और नादार मुसलमानों को जगाना। 
मजकूरह बाला लोग खुद अपने आपको मज़हब की तारीकी से निकल गए, 
इनके लिए यही काफी था. मैं इसे कोताही और खुद गरजी मानता हूँ. 
उनको रौशनी मिली मिली तो उन्हों ने इसे लोगों में तकसीम क्यूँ नहीं किया? 
क्यूं अपना ही भला करके चले गए?
मेरा इंसानी धर्म कहता है कि इंसानों को इस छाए हुए मज़हबी अँधेरे से निकालो, 
खुद निकल गए तो ये काफी नहीं है. 
मेरे अन्दर का इंसान सर पे कफ़न बाँध कर बाहर निकल पड़ा है, 
डर खौफ़, मसलेहत और रवा दारी मेरे लिए कोई मानी नहीं रखती, इंसानी क़दरों के सामने. 
मैं अपने आप में कभी कभी दुखी होता हूँ कि मैं भोले भाले अकीदत मंदों को ठेंस पहुंचा रहा हूँ मगर मेरी तहरीक एक आपरेशन है जिसमें अमल से पहले बेहोश करने का फामूला मेरे पास नहीं है, इस लिए आपरेशन होश ओ हवास के आलम में ही मुझे करना पड़ रहा है. 
इस मज़हबी नशे से नजात दिलाने के लिए सीधे सादे बन्दों को कुछ तकलीफ तो उठानी ही पड़ेगी. ताकि इन के दिमाग से इस्लामी कैंसर की गाँठ निकाली जा सके. 
इनकी नस्लों को जुनूनी क़ैद खानों से नजात मिले. 
इनकी नस्लें नई फिकरों से आशना हो सकें. 
मैं यह भी नहीं चाहता कि कौम आसमान से छूटे तो खजूर में अटके. 
मैं ये सोच भी नहीं सकता कि नस्लें इस्लाम से ख़ारिज होकर ईसाइयत, हिंदुत्व या और किसी अन्य धार्मिक जाल में फसें. ये सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं.
मैं मोमिन को इन सब से अलग और आगे इंसानियत की राह पर गामज़न करना चाहता हूँ जो आने वाले वक़्त में सफ़े अव्वल की नस्ल होगी. 
शायद ही कोई मुसलमान अपनी औलादों के लिए ऐसे ख्वाब देखता हो.
ऐ गाफिल मुसलामानों! 
अपनी नस्लों को आने वाले ज़वाल से बचाओ. 
इस्लाम अपने आने वाले अंजाम के साथ इन्हें ले डूबेगा. 
कोई इनका मदद गार न होगा, सब तमाश बीन होंगे. 
ऊपर कुछ भी नहीं है, सब धोका धडी है. 
पत्थर और मिटटी के बने बुतों की तरह अल्लाह भी एक हवा का खयाली बुत है. 
इससे डरने की कोई ज़रुरत नहीं है
 मगर सच्चा मोमिन बनना ऐन ज़रूरी है.
*****



Thursday 21 July 2016

बांग-ए-दरा -40


बांग-ए-दरा

बाबा इब्राहीम के जुर्म

हज़रात इब्राहीम एक परदेसी थे, 
बद हाली और परेशानी की हालत में अपनी बीवी सारा को 
किसी मजबूरी के तहत अपनी बहन बतला कर 
मिसरी बादशाह फ़िरौन की पनाह में रहा करते थे. 
तौरेत के मुताबिक सारा हसीन थी और बादशाह कि मंजूरे नज़र हो कर उसके हरम में पनाह पा गई थी. 
सच्चाई खुलने पर हरम से बाहर की गई और साथ में इब्राहीम और उनका भतीजा लूत भी. 
उसके बाद दोनों चचा भतीजों ने मवेशी पालन का पेशा अपनाया 
और कामयाब गडरिया हुए.
बनी इस्राईल की शोहरत की वजेह तारीख़ में फिरअना के वज़ीर यूसुफ़ की ज़ात से हुई. 
युसूफ इतना मशहूर हुवा कि इसके बाप दादों का नाम तारिख में आ गया, वर्ना याकूब, इशाक , इस्माईल, और इब्राहीम जैसे 
मामूली लोगों का नामो निशान भी कहीं न होता.
मानव की रचना कालिक अवस्था में इब्राहीम को जो होना चाहिए था 
वोह थे, न इतने सभ्य कि उन्हें पैगाबर या अवतार कहा जाए, 
ना ही इतने बुरे कि जिन्हें अमानुष कहा जाय. 
मानवीय कमियाँ थीं उनमें कि अपनी बीवी को बहन बना कर बादशाह के शरण में गए और अपनी धर्म पत्नी को उसके हवाले किया. 
दूसरा उनका जुर्म ये था कि अपनी दूसरी गर्भ वती पत्नी हाजरा को 
पहली पत्नी सारा के कहने पर घर से निकल बाहर कर दिया था, 
जो कि रो धो कर सारा से माफ़ी मांग कर वापस घर आई. 
तीसरा जुर्म था कि दोबारा इस्माईल के पैदा हो जाने के बाद 
हाजरा को मय इस्माईल के घर से दूर मक्का के पास 
एक मरु खंड में मरने के लिए छोड़ आए. 
उनका चौथा बड़ा जुर्म था सपने के वहम को साकार करना 
और अपने बेटे इशाक को अल्लाह के नाम पर कुर्बान करना, 
जो मुसलमानों का अंध विश्वास बन गया है 
और हजारो जानवर हर साल मारे जाते हैं. 
*****



Wednesday 20 July 2016

Hadeesi Hadse 218


हदीसी हादसे 


बुखारी ५४१
मुहम्मद के दिमाग में फितूर जगा और उसके तहत दौरान नमाज़ वह एक क़दम आगे बढे फिर वापस आकर अपनी जगह पर कायम हो गए. ज़ाहिर है उनकी इस हरकत को उनके पीछे खड़े नमाजियों ने देखा. बाद नमाज़ लोगों ने इसकी वजेह पूछी? कहने लगे नमाज़ में पहले मेरे सामने जन्नत पेश की गई , मैं आगे बढ़ा कि इस में से एक अंगूर का खूष तोड़ लूँ, अगर मैं तोड़ लेता तो क़यामत तक तुम लोग इसको खाते.
उसके बाद मुझे दोज़ख दिखलाई गई, कहा इस जैसा मंज़र मैंने कोई नहीं देखा. इसमें रहने वाली अक्सर औरतें दिखाई दीं, सवाल उट्ठा क्यों?
कहा ये नाशुकुरी ज़्यादः होती हैं लोगों ने पूछा क्या खुदा की नाशुकुरी करती हैं?
बोले -- अपने खाविंद की नाशुकुरी ज्यादः करती हैं, एहसान फरामोश होती हैं. अगर तुम इनमें से किसी के साथ एहसान करते रहो, लेकिन वह ज़रा सी बे उन्वानी की बात पर कह देती हैं हमने तुम में कोई अच्छाई नहीं देखी.

बुखारी 539 
हदीस है एक यहूदन ने मुहम्मद से दौरान गुफ्तुगू बार कहती कि अल्लाह कब्र के अज़ाब से बचाए, मुहम्मद इस बात से इतना मुतासिर हुए कि उनको मौसमी फल की तरह कब्र का अज़ाब मिल गया. वह बहुत दिनों तक लोगों से कब्र का अजाब गाते रहे.
मै बार बार कहता हूँ कि इस्लाम यहूदियत की भोंडी नक्ल है. 
बुखारी ५३८ 
मुहम्मद फ़रमाते हैं क़ुसूफ़ ए शम्सी (सूर्य ग्रहण) और क़ुसूफ़ ए क़मरी (चन्द्र ग्रहण अल्लाह) अल्लाह अपने बन्दों को डराने के लिए ज़ाहिर करता है, नाकि इसका तअल्लुक़ किसी के मौत ओ ज़िदगी से होता है. जब तक चाँद और सूरज पर गहन पड़े, मुसलमानों को चाहिए नमाज़ पढ़ें और सद्का दिया करें. 
*ग्रहणों की अफवाहें तकरीबन हर कौम में होती थी और हन्दुओं में खास कर. जो कौमे जगी हुई है, वह जानते है कि इनकी वजह क्या है. 
मुहम्मद कहते हैं खुदा को अपने बन्दे और बंदियों के ज़िना करने से जितनी शर्म आती है, उतनी और किसी बात पर नहीं आती. 
*ए उम्मते-मुहम्मदी ! खुदा की क़सम अगर तुमको इन बातों का इल्म होता जिन बातों का मुझको है, तो तुम हँसते कम और रोते ज्यादः. 
*मुहम्मदी अल्लाह जो अपने बन्दों और बंदियों से ज़िना कराता क्यों है, दर असल बन्दों के लिए यह काबिले शर्म बात है. कुरआन कहता है बगैर अल्लाह के हम एक पत्ता भी नहीं हिल सकता. 
इस्लाम एक चूं चूँ का मुरब्बा है जिसे खाकर कोई भी शख्स इस्लामी पागल हो सकता है.
 


Hadeesi Hadse 219


हदीसी हादसे 


बुखारी ५४१
मुहम्मद के दिमाग में फितूर जगा और उसके तहत दौरान नमाज़ वह एक क़दम आगे बढे फिर वापस आकर अपनी जगह पर कायम हो गए. ज़ाहिर है उनकी इस हरकत को उनके पीछे खड़े नमाजियों ने देखा. बाद नमाज़ लोगों ने इसकी वजेह पूछी? कहने लगे नमाज़ में पहले मेरे सामने जन्नत पेश की गई , मैं आगे बढ़ा कि इस में से एक अंगूर का खूष तोड़ लूँ, अगर मैं तोड़ लेता तो क़यामत तक तुम लोग इसको खाते.
उसके बाद मुझे दोज़ख दिखलाई गई, कहा इस जैसा मंज़र मैंने कोई नहीं देखा. इसमें रहने वाली अक्सर औरतें दिखाई दीं, सवाल उट्ठा क्यों?
कहा ये नाशुकुरी ज़्यादः होती हैं लोगों ने पूछा क्या खुदा की नाशुकुरी करती हैं?
बोले -- अपने खाविंद की नाशुकुरी ज्यादः करती हैं, एहसान फरामोश होती हैं. अगर तुम इनमें से किसी के साथ एहसान करते रहो, लेकिन वह ज़रा सी बे उन्वानी की बात पर कह देती हैं हमने तुम में कोई अच्छाई नहीं देखी.

बुखारी 539 
हदीस है एक यहूदन ने मुहम्मद से दौरान गुफ्तुगू बार कहती कि अल्लाह कब्र के अज़ाब से बचाए, मुहम्मद इस बात से इतना मुतासिर हुए कि उनको मौसमी फल की तरह कब्र का अज़ाब मिल गया. वह बहुत दिनों तक लोगों से कब्र का अजाब गाते रहे.
मै बार बार कहता हूँ कि इस्लाम यहूदियत की भोंडी नक्ल है. 
बुखारी ५३८ 
मुहम्मद फ़रमाते हैं क़ुसूफ़ ए शम्सी (सूर्य ग्रहण) और क़ुसूफ़ ए क़मरी (चन्द्र ग्रहण अल्लाह) अल्लाह अपने बन्दों को डराने के लिए ज़ाहिर करता है, नाकि इसका तअल्लुक़ किसी के मौत ओ ज़िदगी से होता है. जब तक चाँद और सूरज पर गहन पड़े, मुसलमानों को चाहिए नमाज़ पढ़ें और सद्का दिया करें. 
*ग्रहणों की अफवाहें तकरीबन हर कौम में होती थी और हन्दुओं में खास कर. जो कौमे जगी हुई है, वह जानते है कि इनकी वजह क्या है. 
मुहम्मद कहते हैं खुदा को अपने बन्दे और बंदियों के ज़िना करने से जितनी शर्म आती है, उतनी और किसी बात पर नहीं आती. 
*ए उम्मते-मुहम्मदी ! खुदा की क़सम अगर तुमको इन बातों का इल्म होता जिन बातों का मुझको है, तो तुम हँसते कम और रोते ज्यादः. 
*मुहम्मदी अल्लाह जो अपने बन्दों और बंदियों से ज़िना कराता क्यों है, दर असल बन्दों के लिए यह काबिले शर्म बात है. कुरआन कहता है बगैर अल्लाह के हम एक पत्ता भी नहीं हिल सकता. 
इस्लाम एक चूं चूँ का मुरब्बा है जिसे खाकर कोई भी शख्स इस्लामी पागल हो सकता है.
 


बांग-ए-दरा -39


बांग-ए-दरा

दुश्मने इंसानियत 

खुद ला वलद मुहम्मद अपने दामाद की औलादों हसन और हुसैन का हशर हौज़ऐ कौसर के कनारे खड़े खड़े देख रहे होंगे। दुश्मने इंसानियत मुहम्मद तमाम उम्र अपने मुखालिफों को मारते पीटते और काटते कोसते रहे, असर उल्टा रहा अहले कुफ्र सुर्ख रू रहे और फलते फूलते रहे, मुस्लमान पामाल रहे और ज़र्द रू हुए। आज भी उम्मते मुहम्मदी पूरी दुन्या के सामने एक मुजरिम की हैसियत से खड़ी हुई है. किस क़दर कमजोर हैं कुरानी आयतें, मौजूदा मुसलमानों को कैसे समझाया जाय? 
2
प्रति शोध 
मुसलमानों की बाबरी मस्जिद को लाखों हिन्दु कारसेवकों ने धराशाई कर दिया , नाम कारसेवा दिया जोकि सिख्खों के गुरु द्वारों में श्रद्धालुओं की सेवा करने काम होता है। इस तरह से किसी धर्म स्थल को गिराने का काम एक तरह से सिख्खिज़्म के काँधे पर रख्खा। मुसलमानो में इसका रोष हुवा , आवाज़ उठाई , तो मुंबई में बड़ा दंगा करके उन्हें सबक सिखलाया गया जिसमे हज़ार जानों के साथ साथ झोपड़ पट्टी में बस्ने वालों का असासा आग को हवाले किया गया।  इसी दुर्घटना का शिकार एक ईमान दार पुलिस अफसर करकरे को भी हिंदू सगठनो ने मौत के घाट उतार और हत्या का इलज़ाम भी मुसलमानो के सर मढ़ा। 
इसके बाद मुंबई सीरियल बम कांड की घटना इन ज़्यादतियों का प्रति शोध था जिसमे जाने नहीं बल्कि महत्त्व पूर्ण जाने और झोपड़ पट्टियां नहीं बल्कि क़ीमती इमारतें आग के हवाले हुईं। 
दोनों कुकृतियों का न्याय अनन्याय पूर्ण हुवा जिसका विरोध दबी ज़बान में दोनों पक्ष बुद्धि जीवीयों ने किया। 
१०%की अल्पसंख्यक ९०% का खुलकर कुछ बिगड़ नहीं सकती मगर जो कर सकती उसे निडर होकर किया।  याक़ूब मेमन के जनाज़े में शरीक होकर .



Tuesday 19 July 2016

बांग-ए-दरा -38


बांग-ए-दरा

मोमिन बनाम मुस्लिम 

मुसलामानों खुद को बदलो. बिना खुद को बदले तुम्हारी दुन्या नहीं बदल सकती. तुमको मुस्लिम से मोमिन बनना है. तुम अच्छे मुस्लिम तो ज़रूर हो सकते हो मगर मोमिन क़तई नहीं, इस बारीकी को समझने के बाद तुम्हारी कायनात बदल सकती है.
 मुस्लिम इस्लाम कुबूल करने के बाद ''लाइलाहाइल्लिल्लाह मुहम्मदुर रसूल लिल्लाह'' यानि अल्लाह वाहिद के सिवा कोई अल्लाह नहीं और मुहम्मद उसके पयम्बर हैं. 
मोमिन फ़ितरी यानी कुदरती रद्दे अमल पर ईमान रखता है. ग़ैर फ़ितरी बातों पर वह यक़ीन नहीं रखता,
 मसलन इसका क्या सुबूत है कि मुहम्मद को अल्लाह ने अपना पयम्बर बना कर भेजा. इस वाकेए को न किसी ने देखा न अल्लाह को पयम्बर बनाते हुए सुना. 
जो ऐसी बातों पर यक़ीन या अक़ीदत रखते हैं वह मुस्लिम हो सकते हैं मगर मोमिन कभी भी नहीं. 
मुस्लमान खुद को साहिबे ईमान कह कर आम लोगों को धोका देता है कि लोग उसे लेन देन के बारे में ईमान दार समझें, 
उसका ईमान तो कुछ और ही होता है, वह होता है 
''लाइलाहाइल्लिल्लाह मुहम्मदुर रसूल लिल्लाह'' 
इसी लिए वह हर बात पर इंशा अल्लाह कहता है. यह इंशा अल्लाह उसकी वादा खिलाफ़ी, बे ईमानी, धोखा धडी और हक़ तल्फ़ी में बहुत मदद गार साबित होता है. 
इस्लाम जो ज़ुल्म, ज़्यादती, जंग, जूनून, जेहाद, बे ईमानी, बद फेअली, बद अक़ली और बेजा जिसारत के साथ सर सब्ज़ हुवा था, उसी का फल चखते हुए अपनी रुसवाई को देख रहा है. 
ऐसा भी वक्त आ सकता है कि इस्लाम इस ज़मीन पर शजर-ए-मम्नूअ बन जाय और आप के बच्चों को साबित करना पड़े कि वह मुसलमान नहीं हैं. इससे पहले तरके इस्लाम करके साहिबे ईमान बन जाओ. 
वह ईमान जो २+२=४ की तरह हो, जो फूल में खुशबू की तरह हो, जो इंसानी दर्द को छू सके, जो इस धरती को आने वाली नस्लों के लिए जन्नत बना सके. 
उस इस्लाम को खैरबाद करो जो ''लाइलाहाइल्लिल्लाह मुहम्मदुर रसूल लिल्लाह'' जैसे वह्म में तुमको जकड़े हुए है. 
**


Monday 18 July 2016

बांग-ए-दरा -37


बांग-ए-दरा
खुदाओं की दुन्या  1

शैतान की एक आवाज़ से ही आप बहक गए और अपनी जेब ढीली कर दी।  
यानी मेरी किताब खरीद ली और पढ़ने लगे। चलिए कोई बात नहीं, आप ज्यादा ख़सारे में नहीं जाएंगे क्योंकि भगवानों द्वारा आप सदियों नहीं, बल्कि युगों से ठगे जा रहे हैं।  
शैतान ने तो पहली बार आपको एलान के साथ ठगा है।  
शैतान बा ज़र्फ़ है कि कम से कम आपकी कटी जेब सिलने के लिए सूई धागा देगा। इससे अपनी जेब की मरम्मत ऐसी करें कि कोई भगवान इसको दोबारा न काट सके। 
ऐसा लगता है कि यह एशिया महाद्वीप की सर ज़मीन का तक़ाज़ा है कि इस पर पैदा होने वाला मानव बग़ैर भगवान् अल्लाह खुदा या किसी रूहानी हस्ती के पुर सुकून रह ही नहीं सकता। इनकी ज़ेहनी ग़िज़ा के लिए कम से कम एक झूटी महा शक्ति ,एकेशवर , कोई वाहिद ए मुतलक़ , कोई सुपर पावॅर चाहिए ही। 
पहले जानमाज़ चाहिए फिर दस्तर ख्वान , पहले मंदिर ओ मस्जिद उसके बाद घर की छत। कुछ भी हो एक परम पूज्य चाहिए ही जो इनकी तरह ही सोच विचार वाला हो, हमजिंस हो।  
इंसान जानवर, पेड़, दरिया, परबत हत्ता कि पत्थर की मूर्ति ही क्यों न हो।  
कोई शक्ल ओ सूरत न हो तो निरंकार ही सही , कोई न कोई आफ़ाक़ी खुदा इनको चाइए ही वरना सांस लेना दूभर हो जाए। 
वह अनेशश्वर वादी को पशु मानते हैं , हैवान समझते हैं जो सुकर्म और कुकर्म में कोई अंतर नहीं समझता। 
मैं कभी कभी अतीत में दूर तक जाता हूँ ब्रह्मा , विष्णु , महेश काल तक जो अढाई अरब साल का होता है , इसी महाकाल में संसार निर्मित होता है और इसका अंत होता है - - - तो मैं इस मिथ्य को सत्य मान लेता हूँ कि इसी में नजात है कि आगे दूर तक मत सोचो। 
*****
खुदाओं की दुन्या- 2

 ईसाइयों और मुसलमानों के लिए ख़याल ए सवाब बना हुवा है, 
तखलीक ए कायनात का वर्णण आता है जो सिर्फ साढ़े छः हज़ार साल पहले दुन्या के वजूद में आने की बात करता है. वह नाटा ठिंगना और हास्य स्पद लगता है। 
लाखो वर्ष पहले के इंसानी और हैवानी कंकाल मिलते है तो पहला आदमी आदम कहाँ ठहरता है ? 
यह दोनों सूरतें कोरी कल्पनाएँ हैं जहाँ पर अक़ल ए इंसानी जाकर अटक जाती है।  इनको कंडम किए बिना वह आगे नहीं बढ़ सकती। 
अब बचती है डरबन की थ्योरी जो बतलाती है कि इंसान का वजूद भी दूसरे जीवों की तरह पानी से ही हुवा। यह ख़याल अभी तक का सत्य मालूम पड़ता है, 
बाक़ी पूर्ण सत्य आने वाले भविष्य में छुपा हुवा है। 
 आप अपने सर मुबारक को खुजलाएं कि आप अपने सरों में इन अक़ली गद्दा रूहानियत फरोशों की दूकानों से खरीदा हुवा सौदा सजाए हुए हैं ?
या बेदारी की तरफ आने के लिए तैयार हैं ?
इन पाखंडियो के द्वारा मुरत्तब किए हुए खुदाओं में से जो कम अज़ कम एक को नहीं मानता, यह कहते हैं वह जानवर है।  
अब रावी आपको फिर डर्बिन की तरफ ले जाता है, इसकी तलाश में आपको आंशिक रूप में कुछ न कुछ सच्चाई नज़र आएगी। हो सकता है इंसान की शाख जीव जंतु से कुछ अलग हो मगर इंसान हैवानी हालात से दो चार होते हुए ही यहाँ तक पहुंचा है पाषाण युग तक इंसान यक़ीनी तौर पर हैवानो का हम सफ़र रहा है , इसके बावजूद तब तक आदमी सिर्फ आदमी ही था। उस वक़्त तक इंसानी ज़ेहन में किसी बाक़ायदा अल्लाह का तसव्वर क्यों नहीं आया ? 
उस वक़्त किसी खुदा के खौफ से नहीं बल्कि वजूद की बक़ा पर तवज्जो हुवा करती थी। यह खुदा फरोश इंसान के लिए खुदा को इतना ही फितरी और लाज़िम मानते हैं तो उस वक़्त खुद खुदा ने अपनी ज़ात को क्यों नहीं मनवा लिया।  
जैसा कि मैंने अर्ज़ किया कि अहद ए संग के क़ब्ल आदमी हैवानों का हम सफ़र था, इसके बाद इसको पहाड़ी खोहों, दरख्तों और ज़मीनी पैदावारों ने कुछ राहत पहुंचाई। प्रकृतिक हल चल से भी कुछ नजात मिली, इंसान इंसानी क़बीलों में रहने लगा जिसकी वजह से इसमें कुछ हिम्मत और ताक़त आई। इसके बावजूद इसे जान तोड़ मेहनत और अपनी सुरक्षा से छुटकारा नहीं मिला। वह इतना थक कर चूर हो जाता कि उसे और कुछ सोचने का मौक़ा ही न मिलता। उस वक़्त तक किसी खुदा का विचार इसके दिल में नहीं आया। 
वह रचना कालिक सीढ़ियाँ चढ़ता गया, चहार दीवारियाँ इंसान को सुरक्षित करती गईं, ज़मीनी फ़स्लेँ तरतीब पाने लगीं, जंगली जानवर मवेशी बनकर क़ाबू में आने लगे। राहत की सासें जब उसे मयस्सर हुईं तो ज़ेहनों को कुछ सोचने का मौक़ा मिला। 
इंसानी क़बीलों के कुछ अय्यारों ने इस को भापा और खुदाओं का रूहानी जाल बिछाना शुरू किया। इस कोशिश में वह बहुत कामयाब हुए। होशियार ओझों के यह फार्मूले ज़ेहनी खुराक के साथ साथ मनोरंजन के साधन भी साबित हुए। 
  इस तरह लोगों के मस्तिष्क में खुदा का बनावटी वजूद दाखिल हुवा जोकि रस्म ओ रिवाज बनता हुवा वज्द और जुनून की कैफियत अख्तियार कर गया।  
दुन्या भर की ज़मीनों पर खुदा अंकुरित हुवा, कहीं देव और देवियाँ उपजीं, कहीं पैग़मबर और अवतार हुए, तो कहीं निरंकार। इंसान ज़हीन होता गया, नफ़ा और नुक़सान विकसित हुए, फ़ायदे मंद चीज़ों को पूजने की तमीज़ आई, जिससे डरा उसे भी पूजना प्रारम्भ कर दिया। छोटे और बड़े खुदा बनते गए या यूं कहे कि आने वाली महा शक्ति के कल पुर्ज़े ढलना शुरू हुए, जो बड़ी ताक़त बनी, उसका खुदा तस्लीम होता गया। 
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Sunday 17 July 2016

बांग-ए-दरा -36


बांग-ए-दरा

खुदा

ख़ुदा हर एक का बहुत ही ज़ाती मुआमला है।  
इसे मानें या न मानें या अपने तौर पर मानने की आज़ादी हर फ़र्द को होना चाहिए।  
वैसे ख़ुदा को मैंने जहाँ तक जाना है, का फ़ायदा ज़ेहनी सुकून के सिवा कुछ भी नहीं, 
वह भी ज्यादाः हिस्सा खुद को फ़रेब देना होता है।  
थोडा सा नफ़सियाती इलाज के लिए मज़हब ने इंसान से व्यक्ति गत आज़ादी को छीन कर सामूहिक क़ैद खाने के हवाले कर दिया है , 
खास कर इस्लामी मुमालिक में अल्लाह की वजह से व्यक्ति समूह का गुलाम बन गया है। 
ख़ुदा क्या है? 
हर शख्स इसे अपने ज़ेहनी सतह पर कभी न कभी लाता ज़रूर है। 
यह लफ्ज़ फ़ारसी का है जो कि लफ्ज़ खुद से बना है. 
क़दीमी ईरानी चिंतन बतलाती है,
"वह जिसे किसी ने न पैदा किया हो और वह खुद बखुद पैदा हो गया हो, खुदा है।"  
बाक़ी तमाम जीवों और वस्तुओं को पैदा करने वाला खुदा है। 
वह खुद ही इस कायनात का मालिक है और हर शय उसके आधीन है। 
यही ख़याल यहूदियों का है मगर थोड़े से फ़र्क़ के साथ कि वह सिर्फ यहूदियों पर मेहरबान है।  
इसी तरह इस्लामी अल्लाह भी है, जो रब्बुल आलमीन तो है मगर बख्शेगा सिर्फ मुसलामानों को , बाक़ी सब जहन्नम में झोंक दिए जाएगे। 
ईसाई भी इस तंग नज़री से मुबर्रा नहीं। 
बहरहाल इन सब खुदाओं कि बुन्याद ईरानी फलसफे पर रखी हुई है 
कि ख़ुदा एक है। इसका बनाने वाला कोई नहीं है, सबको बनाने वाला वह है। 
वह एक है, इसका यक़ीन सबको है खासकर पश्चिम दुन्या के लिए। 
 हिन्दू आस्था इससे ज़रा हटके है कि वह अकेला नहीं बल्कि मुख्तलिफ अख्तियार के साथ वह एक टीम है मगर उनमें खुद साखता तीन हैं , 
ब्रहमा, विष्णु और महेश।  
पहले का काम है ब्रह्माण्ड को वजूद में लाना , 
दूसरे का इसके कारोबार का सञ्चालन करना 
और तीसरे का सृष्टि को मिटा देना। 
 इन तीनो का कार्यकाल ढाई अरब साल माना गया है जो मुसलसल चलता रहता है मगर 
एक ईश्वर कि कल्पना लाशूरी तौर पर इन पर भी ग़ालिब हो रही है.
फ़ारसी का ही एक लफ्ज़ है बन्दा, जिसके मानी आम तौर पर इंसान के लिए है मगर अस्ल में गुलाम के हैं जो पाबंद हो , जिसके ऊपर बंदिश हो ठीक वैसे ही जैसे ख़ुदा के हक़ में ख़ुद सरी है। 
यह ख़ुदा और बन्दे का ईरानी फ़लसफ़ा सदियों से इंसानी समाज को गुमराह किए हुए है। यह फ़लसफ़ा इतना कामयाब है कि आम आदमी इससे हट कर कुछ और सोचना ही नहीं चाहता , ख़ास कर मशरिक़ी बाशिंदे। 
असलियत इससे कुछ हट कर है। 
"न तो ख़ुदा खुद से है और न बंदा बन्दिश में "
सच तो यह है कि इस फ़लसफ़े के तिजारती अड्डे क़ुदरत की इस धरती पर क़ाबिज़ हैं जिन पर मज़हब के मुजाविर और धर्मों के पुजारी बैठे हुए हैं।  
जिस रोज़ यह छलावा इंसानी ज़ेहनों से निकल जाएगा , न ख़ुदा की ख़ुदी बाक़ी बचेगी न बन्दे पर पाबन्दी क़ायम रह जाएगी, जो कुछ बचेगा वह उरयाँ क़ुदरत होगी जिसका कोई ख़ुदा होगा न कोई बंदा। 
दर अस्ल यह ईरानी फ़लसफ़ा अब उल्टा नज़र आने लगा है। 
कई मोर्चे पर ख़ुदा बेबस नज़र आने लगा है 
और बंदा बा अख़तियार होता चला जा रहा है। 
बन्दा अपनी कोशिशों के पर लगा कर चाँद सितारों पर पहुँच रहा है , 
ख़ुदा अपने निर्धारित कामों में ही लगा हुवा है 
कि बन्दे के लिए अज़ाब पैदा करता रहे। 
कुदरात हमेशा इंसान की मदद के लिए आमादा रहती है। 
हर ख़ुदाई क़हर पर इंसान धीरे धीरे क़ाबू पाता चला जा रहा है।  
उसने कई बीमारियों को जड़ से ख़त्म कर दी है।  
खुदाई बीमार होती हुई नज़र आ रही है और बन्दा तंदुरुस्त होता चला जा रहा है। 
ख़ुदा और बन्दे का मेरा यह मुक़ाबला शोबदे बाज़ी लगेगी, 
जब तक आप में ज़ेहनी बलूगत आ जाएगी। 
बन्दा ख़ुदा से लड़ता नहीं बल्कि क़ुदरकत के क़हर से खुद को बचाता है 
और उसकी नेमतों को तलाशता रहता है। 
जंगल में हैवानियत का ग़लबा हक़ बजानिब है जो कि जंगल के निज़ाम को हज़ारों साल से संतुलित किए हुए है.
जबकि इंसानी समाज बे बुनियाद है। 
ख़ुदाई तसव्वुर को लेकर यह हमेशा ज़मीन को तह ओ बाला किए रहता है.
 हैवान  हैवान है जो हमेशा हैवान ही रहता है। 
इंसान पैदा तो हैवान ही की तरह होता है मगर सिन बलूगत तक आते आते 
 इससे पहले कि वह इंसान बने , मज़हब और धर्म उसे क़ौम का बना देते हैं। 
 ख़ुदा के मुख्तलिफ तसव्वुर में इस्लामी अल्लाह कुछ ज्यदा ही सख्त है।  
इसका किरदार एक भयानक देव जैसा है, 
वह ज़ालिम है, मुन्तक़िम है और चालघात करने  वाला है।  
वह अपने बन्दों के साथ शैतान से बढ़ कर खबीस, 
पिशाच और राक्षस जैसा सुलूक करता है।  
वह आग में डालकर इंसान को जलाता है। खून और पीप खिलता है, 
खौलता पानी पिलाता है और हद यह है कि  इंसान को कभी मरने नहीं देता।  
ऐसे अल्लाह को सबसे पहले मुसलामानों को तर्क करने की ज़रुरत है।  
कहते है कि क़ुरान अल्लाह का कलाम है। 
दुन्या के तमाम कलामो के सामने इसे अगर मुक़ाबले में रख दिया जाय तो 
इससे ज़यादह जिहालत और कहीं नहीं मिलेगी।
मुसलमान जितनी जल्दी इस अल्लाह से इसके रसूल से, 
इसकी किताब से अपना पिंड छुड़ाएंगे उनके हक़ में उतना ही अच्छा होगा.
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Saturday 16 July 2016

बांग-ए-दरा 35



बांग ए दरा

तवज्जो तलब - - -

क़ुरआन किसी अल्लाह का कलाम हो ही नहीं सकता.
कोई अल्लाह अगर है तो अपने बन्दों के क़त्ल-ओ- खून का हुक्म न देगा.
क्या सर्व शक्ति वान, सर्व ज्ञाता, हिकमत वाला अल्लाह 
मूर्खता पूर्ण और अज्ञानता पूर्ण बकवास करेगा?
क्या इन बेहूदा बातों की तिलावत (पाठ) से कोई सवाब मिल सकता है?
जागो! मुसलमानों जागो!! 
मुहम्मद के सर पर करोड़ों मासूमों का खून है जो इस्लाम के फरेब में आकर अपनी नस्लों को इस्लाम के हवाले कर चुके हैं. मुहम्मद की ज़िदगी में ही हज़ारों मासूम मारे गए 
और मुहम्मद के मरते ही दामाद अली और बीवी आयशा के दरमियाँ जंग जमल में एक लाख इंसान बहैसियत मुसलमान मारे गए. 
स्पेन में सात सौ साल काबिज़ रहने के बाद दस लाख मुसलमान जिंदा 
नकली इस्लामी दोज़ख में डाल दिए गए, 
अभी तुम्हारे नज़र के सामने ईराक में दस लाख मुसलमान मारे अफगानिस्तान, 
पाकिस्तान कश्मीर में लाखों इन्सान इस्लाम के नाम पर मारे जा रहे है.
चौदह सौ सालों में हज़ारों इस्लामी जंगें हुईं हैं जिसमें करोड़ों इंसानी जानें गईं.
 मुस्लमान होने का अंजाम है बेमौत मारो या बेमौत मरो.
क्या अपनी नस्लों का अंजाम यही चाहते हो? 
एक दिन इस्लाम का जेहादी सवाब मुसलामानों को मारते मारते और मरते मरते ख़त्म कर देगा. वक़्त आ गया है खुल कर मैदान में आओ. ज़मीर फरोश गीदड़ ओलिमा का बाई काट करो, 
इनके साए से दूर रहो और भोले भाले लोगों को दूर रखो.
क़ुरआन किसी अल्लाह का कलाम हो ही नहीं सकता.
कोई अल्लाह अगर है तो अपने बन्दों के क़त्ल-ओ- खून का हुक्म न देगा.
क्या सर्व शक्ति वान, सर्व ज्ञाता, हिकमत वाला अल्लाह 
मूर्खता पूर्ण और अज्ञानता पूर्ण बकवास करेगा?
क्या इन बेहूदा बातों की तिलावत (पाठ) से कोई सवाब मिल सकता है?
जागो! मुसलमानों जागो!! 
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