Wednesday 31 August 2016

Hadeesi Hadse 226


हदीसी हादसे 

 बुखारी ६७३-
मुहम्मद का इन्तेक़ाल हो गया तो अहले अरब आज़ाद हो गए, उनके ज़हनों से खौफ़ जाता रहा और वह अपने आबाई मज़हब की तरफ रागिब होने लगे. अबूबकर और उमर इस बाबत बहस करते रहे. बकर ने उनसे (काफिरों से)जिहाद की ठानी मगर उमर इस पर राज़ी न हुए कि जिसने "लाइलाहा इल्लिल्लाह " पढ़ लिया वह हमारी तरफ़ से महफ़ूज़ हो गया. बकर ने कहा खुदा की क़सम जिसने मुहम्मद को एक बकरी का बच्चा भी दिया हो, वह हमें क्यूं न देगा.
* इस तरह दोनों में खिंचाव इशारा करता है कि इस्लामी तहरीक का ईमान था लूट पट. उमर की हिकमते-अमली से इस्लाम बच गया वर्ना मुहम्मद के बाद ही यह फितना एक फ़साना बन कर रह जाता.

बुखारी ६७४
मुहम्मद क़यामती पुडिया खोलते हुए बकते हैं कि ऊँट क़यामत के दिन इतने मोटे और भारी जिस्म के हो जाएँगे कि अपने मालकों को पैरों से रौदेगे और बकरियां इतनी फ़रबा हो जाएंगी कि अपने खुरों से पालने  वालों से इन्तेकाम लेंगी.
* मज़ीद बकवास इसी हदीस में खुद पढ़ें.

बुखारी ४७५
मुहम्मद कहते हैं जिस शख्स ने अल्लाह की राह में माल न दिया होगा और ज़कात अदा न किया होगा, इसके सामने चार आँखों वाला गंजा अजदहा लाया जायगा, उसके दोनों कल्लों में झाग भरी होगी और वह उसके गले में दाल दिया जाएगा. उसके दोनों जबड़े फाड़ते ही वह कहेगा, मैं तेरा मॉल हूँ, जिसे तूने अल्लाह की राह में खर्च न किया.
*अल्लाह का कोई हाथ नहीं है जिससे वह ज़कात वसूले जैसा कि मुहम्मद जंगों में लूट के मॉल में से २०% अल्लाह के नाम से ऐंठते थे और २०% उसके रसूल के नाम से वसूलते थे.उनकी नस्लें उनके बाद हसन, यजीद और माविया ही तरह बड़ी बड़ी रियासतों के मालिक हो गए थे.
 आगा खान, सय्य्दना जैसे मालदार आजतक चले आ रहे हैं.



बांग-ए-दरा 78





बांग-ए-दरा

मोमिन हो जाओ

मुसलमानों ! 
तुम अगर अपना झूटा मज़हब इस्लाम को तर्क कर के मोमिन हो जाओ तो 
तमाम कौमें तुम्हारी पैरवी के लिए आमादा नज़र आएँगी. 
कौन कमबख्त ईमान दारी की कद्र नहीं करेगा? 
माज़ी की तमाम दुन्या, लाशऊरी तौर पर मौजूदा दुन्या की हुकूमतों को ईमानदार बनने के लिए कुलबुला रही है, मगर मज़हबी कशमकश इनके आड़े आती है. 
चीन पहला मुल्क है जिसने मज़हबी वबा से छुटकारा पा लिया है,
 नतीजतन वह ज़माने में सुर्खुरू होता जा रहा है, 
शायद हम चीन की सच्ची सियासत की पैरवी पर मजबूर हो जाएं.
मोमिन लफ्ज़ अरबी है, इसके लिए तमाम इंसानियत अरबों की शुक्र गुज़ार है 
कि इतना पाक साफ़ और लाजवाब लफ्ज़ दुन्या को उन्हों ने दिया, 
जिसे एक अरब ने ही इस्लाम का नाम देकर इस पर डाका डाला और 
इसे लूट कर खोखला कर दिया. 
मगर लफ्ज़ में इसका असर अभी भी क़ायम है.
ऐसे ही "सेकुलर" लफ्ज़ को हमारे नेताओं ने लूटा है. 
सेकुलर के मानी हैं "ला मज़हब" 
जिसका नया मानी इन्हों ने गढ़ा है 
"सभी मज़हब को लिहाज़ में लाना" 
सियासत दान और मज़हबी लोग ही गैर मोमिन होते हैं, 
अवाम तो मोम की तरह मोमिन, होती है, 
हर सांचे में ढल जाती है.
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Tuesday 30 August 2016

बांग-ए-दरा 77




बांग-ए-दरा

जन्नत की नाकिस नहरें 

क़ुरान में मुहम्मदी अल्लाह क्या कहना चाहते हैं ? 
उनकी फितरत को समझते हुए मफहूम अगर समझ भी लो तो 
सवाल उठता है कि बात कौन सी अहमयत रखती है? 
क्या ये बातें तुम्हारे इबादत के क़ाबिल हैं ?
क्या रूस, स्वेडन, नारवे, कैनाडा, यहाँ तक की कश्मीरियों के लिए घरों के नीचे बहती हुई नहरें अज़ाब नहीं होंगी ? आज तो घरों के नीचे बहने वाली गटरें होती हैं. 
मुहम्मद अरबी रेगिस्तानी थे जो गर्मी और प्यास से बेहाल हुवा करते थे, 
लिहाज़ा ऐसी भीगी हुई बहिश्त उनका तसव्वुर हुवा करता था.
ये कुरान अगर किसी खुदा का कलाम होता या किसी होशमंद इंसान का कलाम ही होता तो 
वह कभी ऐसी नाकबत अनदेशी की बातें न करता.

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मोमिन और मुस्लिम का फ़र्क़ 
मुसलमानो! 
एक बार फिर तुम से गुज़ारिश है कि तुम मुस्लिम से मोमिन बन जाओ. 
मुस्लिम और मोमिन के फ़र्क़ को समझने की  कोशिश करो. 
मुहम्मदी ओलिमा ने दोनों लफ़्ज़ों को खलत मलत कर दिया है और तुम को गुमराह किया है कि 
मुस्लिम ही असल मोमिन होता है जिसका ईमान अल्लाह और उसके रसूल पर हो. 
यह किज़्ब है, दरोग़ है, झूट है,
 सच यह है कि आप के किसी अमल में बे ईमानी न हो यही ईमान है, 
इसकी राह पर चलने वाला ही मोमिन कहलाता है. 
जो कुछ अभी तक इंसानी ज़ेहन साबित कर चुका है वही अब तक का सच है, 
वही इंसानी ईमान है. 
अकीदतें और आस्थाएँ कमज़ोर और बीमार ज़ेहनों की पैदावार हैं जिनका नाजायज़ फ़ायदा खुद साखता अल्लाह के पयम्बर, भगवन रूपी अवतार , गुरु, महात्मा उठाते हैं.
तुम समझने की कोशिश करो. 
मैं तुम्हारा सच्चा ख़ैर ख्वाह हूँ. 
ख़बरदार ! कहीं मुस्लिम से हिन्दू न बन जाना वर्ना सब गुड गोबर हो जायगा, 
क्रिश्चेन न बन जाना, बौद्ध न बन जाना वर्ना मोमिन बन्ने के लिए फिर एक सदी दरकार होगी. धर्मांतरण बक़ौल जोश मलीहाबादी एक चूहेदान से निकल कर दूसरे चूहेदान में जाना है. 
बनना ही है कुछ तो मुकम्मल इन्सान बनो, 
इंसानियत ही दुन्या का आख़िरी मज़हब होगा. 
मुस्लिम जब मोमिन हो जायगा तो इसकी पैरवी में ५१% भारत मोमिन हो जायगा। 
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Monday 29 August 2016

बांग-ए-दरा 76



बांग-ए-दरा

अल्लाह का इंसानी मिज़ाज 

जब हमल क़ब्ल अज वक़्त गिर जाता है तो वह खून का लोथड़ा जैसा दिखता है, 
मुहम्मद का मुशाहिदा यहीं तक है, जो अपने आँख से देखा उसे अल्लाह की हिकमत कहा. 
वह कुरान में बार बार दोहराते हैं कि
 "जिसने इंसानों को खून के लोथड़े से पैदा किया'' 
इंसान कैसे पैदा होता है, इसे मेडिकल साइंस से जानो.
इंसान को क़लम से तालीम अल्लाह ने नहीं दी, 
बल्कि इंसान ने इंसान को क़लम से तालीम दी. 
क़लम इन्सान की ईजाद है. कुदरत ने इंसान को अक्ल दिया कि उसने सेठे को क़लम की शक्ल दी, उसके बाद लोहे को और अब कम्प्युटर को शक्ल दे रहा है. 
मुहम्मद किसी बन्दे को मुस्तगना (आज़ाद) देखना पसंद नहीं करते.
सबको अपना असीर देखना चाहते हैं बज़रीए अपने कायम किए अल्लाह के.
ये आयतें पढ़ कर क्या तुम्हारा खून खौल नहीं जाना चाहिए कि मुहम्मदी अल्लाह इंसानों की तरह धमकता है
 "अगर ये शख्स बाज़ न आएगा तो हम पुट्ठे पकड़ कर जो दरोग़ और ख़ता में आलूदा हैं, घसीटेंगे.सो ये अपने हम जलसा लोगों को बुला ले. हम भी दोज़ख के प्यादों को बुला लेंगे."
क्या मालिके-कायनात की ये औकात रह गई है?
मुसलमानों अपने जीते जी दूसरा जनम लो. 
मुस्लिम से मोमिन हो जाओ. 
मोमिन मज़हब वह होगा जो उरियाँ सच्चाई को कुबूल करे. 
कुदरत का आईनादार और ईमानदार. 
इस्लाम तुम्हारे साथ बे ईमानी है. 
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Sunday 28 August 2016

बांग-ए-दरा 75


बांग-ए-दरा
 नास्तिक 

धर्म और मज़हब का सबसे बड़ा बैर है नास्तिकों से जिन्हें इस्लाम दहेरया और मुल्हिद कहता है. 
वो इनके खुदाओं को न मानने वालों को अपनी गालियों का दंड भोगी और मुस्तहक समझते हैं. 
कोई धर्म भी नास्तिक को लम्हा भर नहीं झेल पाता. 
यह कमज़र्फ और खुद में बने मुजरिम, 
समझते हैं कि खुदा को न मानने वाला कोई भी पाप कर सकता है, 
क्यूंकि इनको किसी ताक़त का डर नहीं. 
ये कूप मंडूक नहीं जानते कि कोई शख्सियत नास्तिक बन्ने से पहले आस्तिक होती है और तमाम धर्मों का छंद विच्छेद करने के बाद ही क़याम पाती है. 
वह इनकी खरी बातों को जो फ़ितरी तकाज़ा होती हैं,
 उनको ग्रहण कर लेता है और थोथे कचरे को कूड़ेदान में डाल देता है. 
यही थोथी मान्यताएं होती हैं धर्मों की गिज़ा. 
नास्तिकता है धर्मो की कसौटी. 
पक्के धर्मी कच्चे इंसान होते हैं. 
नास्तिकता व्यक्तित्व का शिखर विन्दु है.
एक नास्तिक के आगे बड़े बड़े धर्म धुरंदर, आलिम फाजिल, ज्ञानी ध्यानी, 
आंधी के आगे न टिक पाने वाले मच्छर बन जाते हैं. 
पिछले दिनों कुछ टिकिया चोर धर्मान्ध्र नेताओं ने एलक्शन कमीशन श्री लिंग दोह पर इलज़ाम लगाया था  कि वह क्रिश्चेन हैं, इस लिए सोनिया गाँधी का खास लिहाज़ रखते हैं. 
जवाब में श्री लिंगदोह ने कहा था,
"मैं क्रिश्चेन नहीं  हूँ , एक नास्तिक हूँ 
और इलज़ाम लगाने वाले नास्तिक का मतलब भी नहीं जानते.
" बाद में मैंने अखबार में पढ़ा कि आलमी रिकार्ड में 
"आली जनाब लिंगदोह, 
दुन्या के बरतर तरीन इंसानों में पच्चीसवें नंबर पर शुमार किए गए हैं. 
ऐसे होते हैं नास्तिक.
फिर मैं दोहरा रहा हूँ कि दुन्या की ज़ालिम और जाबिर तरीन हस्तियाँ धर्म और मज़हब के कोख से ही जन्मी है. जितना खूनी नदियाँ इन धर्म और मज़ाहब ने बहाई हैं, उतना किसी दूसरी तहरीक ने नहीं. और इसके सरताज हैं मुहम्मद अरबी 
जिनकी इन थोथी आयतों में तुम उलझे हुए हो.

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Saturday 27 August 2016

बांग-ए-दरा 74


बांग-ए-दरा

कुरानी निजाम ए हयात 

मैं फिर इस बात को दोहराता हूँ कि मुस्लमान समझता है कि इस्लाम में कोई ऐसी नियमा वाली है जो उसके लिए मुकम्मल है, ये सोच  बिलकुल बे बुन्याद है, 
बल्कि कुरआन की नियम तो मुसलामानों को पाताल में ले जाते हैं. 
मुसलामानों ने कुरानी निजाम ए हयात को कभी अपनी आँखों से नहीं देखा, बस कानों से सुना भर है. इनका कभी कुरआन का सामना हुवा है, 
तो तिलावत के लिए. 
मस्जिदों में कुवें के मेंढक मुल्ला जी अपने खुतबे में जो उल्टा सीधा समझाते हैं, 
ये उसी को सच मानते हैं. जदीद तालीम और साइंस का स्कालर भी समाजी लिहाज़ में आकर जुमा जुमा नमाज़ पढने चला ही जाता है. इसके माँ  बाप ठेल धकेल कर इसे मस्जिद भेज ही देते हैं, वह भी अपनी आकबत की खातिर. मज़हब इनको घेरता है कि हश्र के दिन अल्लाह इनको जवाब तलब करेगा कि अपनी औलाद को टनाटन मुसलमान क्यूँ नहीं बनाया ? 
और कर देगा जहन्नम में दाखिल.
कुरआन में ज़मीनी ज़िन्दगी के लिए कोई गुंजाईश नहीं है, 
जो है वह क़बीलाई है, निहायत फ़रसूदा. क़ब्ल ए इस्लाम, अरबों में रिवाज था कि शौहर अपनी बीवी को कह देता था कि तेरी पीठ मेरी माँ या बहन की तरह हुई, 
बस उनका तलाक हो जाया करता था. इसी तअल्लुक़ से एक वक़ेआ हुवा कि
 कोई ओस बिन सामत नाम के शख्स ने गुस्से में आकर अपनी बीवी हूला को तलाक़ का मज़कूरा जुमला कह दिया. बाद में दोनों जब होश में आए तो एहसास हुआ कि ये तो बुरा हो गया. 
इन्हें अपने छोटे छोटे बच्चों का ख़याल आया कि इनका क्या होगा? 
दोनों मुहम्मद के पास पहुँचे और उनसे दर्याफ़्त किया कि उनके नए अल्लाह इसके लिए कोई गुंजाईश रखते हैं ? कि वह इस आफत ए नागहानी से नजात पाएँ. 
मुहम्मद ने दोनों की दास्तान सुनने के बाद कहा तलाक़ तो हो ही गया है, 
इसे फ़रामोश नहीं किया जा सकता. बीवी हूला खूब रोई पीटी और मुहम्मद के सामने गींजी कि नए अल्लाह से कोई हल निकलवाएँ. 
फिर हाथ उठा कर सीधे अल्लाह से वह मुख़ातिब हुई और जी भर के अपने दिल की भड़ास निकाली, 
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Friday 26 August 2016

बांग-ए-दरा 73




बांग-ए-दरा 

नाकिस इल्म 

मुहम्मदी अल्लाह काफिरों, मुशरिकों, मुकिरों और मुल्हिदों का उनके मरने के बाद जो करेगा सो तो बाद की बात है, फिलहाल जिन लोगों ने इसका दीन ए इस्लाम क़ुबूल हर लिया है उनकी जान साँसत में डाले हुए है. 
जिन्हों ने इस्लाम नहीं कुबूल किया उनके लिए तो क़यामत और सवाब ओ अज़ाब मज़ाक की बातें हैं  मगर जिन्हों ने इस्लाम की घुट्टी पी ली है उनपर अल्लाह का खौफ़ तारी रहता है. 
इस नए मौला की याद आते ही मुस्लिम, मस्जिद की तरफ़ भागते हैं. 
नमाज़ को किसी भी हालत में अल्लाह मुआफ़ नहीं करता,  
खड़े होकर नहीं तो बैठ कर, बैठ कर भी नहीं लेट कर, बोल नहीं सकते तो इशारे से ही सहीह. नमाज़ किसी भी हालत में मुआफ़ नहीं.

इसी तरह रोज़ा भी है मगर थोड़ी सी रिआयत के साथ. आज नहीं रख पाए तो क़ज़ा हुवा, बाद में रखना पड़ेगा. मोहताजों को खाना खिला कर इसका हर्जाना अदा किया जा सकता है या दूसरे को बदले में रोज़ा रखवा कर जान छूट सकती है.

कुछ मॉल टाल इकठ्ठा हुवा तो इससे नजात पाने के लिए हज का रुक्न सामने खड़ा हुवा है कि मक्का जाकर आले रसूल की मदद करिए. यानी हज फ़र्ज़ बन जाता है.

इसके बाद खैरात लाजिम है. हर हालत में ज़कात निकलना फ़र्ज़ है २.५% सालाना अगर ४० रुपिए बचे तो १ रुपया ज़कात निकालिए. ये भुगतान तब तक लाजिम है जब तक की आप खुद खैरात खोरों की लाइन में न आ जाएँ.

चौदह सौ सालों से मुसलमान हुए इंसानी बिरादरी इस टार्चर को झेलती हुई चली आ रही है.
इनकी ये अज़ीयत पसंदी दर असल इनकी ज़ेहनी गिज़ा बन चुकी है. 
जैसे कि क़दीम यूनान के उम्र क़ैद काटने वाले कैदियों को अपने हथकड़ियों और बेड़ियों से प्यार हो जाया करता था कि वह उसे रगड घिस करते कि क़ैदी के वह ज़ेवर चमकने लगते थे. 
वह उन बेड़ियों से नजात पाने के बाद उसे लादे रहते. 
मुसलमान इन गैर तामीरी अमल और फेल के इतने आदी हो चुके हैं कि जैसे इन लग्व्यात के बगैर जिंदा ही नहीं रह सकते.
अल्लाह के एजेंट्स इसके लिए हम्मा वक़्त तैयार रहते हैं. 
मुसलमान अपनी इस दीनी मुसीबत को ज़रा देर के लिए भूलना भी चाहे तो ये भूलने नहीं देते. 
वह दिन में पाँच बार इन्हें लाउड स्पीकर से याद दिलाए रहते हैं कि 
चलो अल्लाह के सामने उठठक बैठक करने का वक़्त हो गया है. 
पहले ये गाज़ी माले गनीमत का मज़ा लिया करते थे अब मस्जिदों की खिमत की ज़कात, मदरसों के चंदा और गण्डा तावीज़ इनका माल गनीमत बन चुके हैं
ये हराम खोर और निकम्मे खुद धरती का बोझ बने हुए हैं और हर साल अपनी जैसी एक जमात कौम को खोखला करने के लिए खड़ी कर देते हैं. ये लोग मुल्क के मदरसों में सरकारी मदद से मुफ्त खोरी की तालीम ए नाक़िस पाते हैं फिर बड़े होने पर बड़ी बड़ी मज़हबी किताबें लिखते है एक नमूना मैं पेश कर रहा हूँ ,इनकी तहरीर का - - -
एक बादशाह का क़िस्सा है कि निहायत मूतशद्दित (आतंकी) और  मुतअस्सिब )भेद भाव करने वाला) था. इत्तेफ़ाक़ से मुसलामानों की एक लड़ाई में गिरफ़्तार हो गया. चूंकि मुसलामानों को इसने तकलीफ बहुत पहुँचाई थी, इस लिए इंतेक़ाम का ज़ोर इनमें भी बहुत था. इसको एक देग में डाल कर आग पर रख दिया. इसने अव्वल अपने बुतों को पुकारना शुरू कर दिया और मदद चाही, जब कुछ न बन पडा तो वहीँ मुसलमान हुवा और लाइलाहा इललिल्लाह का विरद (रटंत) शुरू कर दिया. लगातार पढ़ रहा था और ऐसी हालत में जिस ख़ुलूस और जोश से पढ़ा जा सकता है. ज़ाहिर है अल्लाह तअला शानाहू की तरफ़ से जो मदद हुई, और इस ज़ोर की बारिश हुई कि वह सारी आग भी बुझ गई और देग ठंडी हो गई. इसके बाद जोर की आँधी चली, जिससे वह देग उडी और दूर उस शहर में जहां सब काफ़िर ही रहते थे, जा गिरी. ये शख्स लगातार कलमे तय्यबा पढ़ रहा था, लोग इसके गिर्द जमा हो गए और अजूबा देख के हैरान थे. इससे हाल दर्याफ़्त किया, उसने अपनी सरगुज़श्त सुनाई, जिससे वह लोग भी मुसलमान हो गए.
तबलीगी निसाब फ़ज़ायल ज़िक्र 
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Thursday 25 August 2016

बांग-ए-दरा 72




बांग-ए-दरा

तहजीबें

खालिस काफ़िर ले दे के नेपाल या भारत में ही बाक़ी बचे हुए हैं .
कुफ़्र और शिर्क इंसानी तहज़ीब की दो क़ीमती विरासतें है. 
इनके पास दुन्या की क़दीम तरीन किताबें हैं जिन से इस्लाम ज़दा मुमालिक महरूम हो गए हैं. इनके पास बेश कीमती चारों वेद मौजूद हैं, जो कि मुख्तलिफ़ चार इंसानी मसाइल का हल हुवा करते थे, इन्हीं वेदों की रौशनी में १८ पुराण हैं. माना कि ये मुबालगों से लबरेज़ है, 
मगर तमाज़त और ज़हानत के साथ, जिहालत से बहुत दूर हैं. 
इसके बाद इनकी शाख़ें १०८ उप निषद मौजूद हैं, रामायण और महा भारत जैसी क़ीमती गाथाएँ, गीता जैसी सबक आमोज़ किताबें, अपनी असली हालत में मौजूद हैं. 
ये सारी किताबें तखलीक़ हैं, तसव्वर की बुलंद परवाज़ें हैं, 
जिनको देख कर दिमाग हैरान हो जाता है. और अपनी धरोहर पर रश्क होता है. 
जब बड़ी बड़ी कौमों के पास कोई रस्मुल ख़त भी नहीं था, 
तब हमारे पुरखे ऐसे ग्रन्थ रचा करते थे. 
अरबों का कल्चर भी इसी तरह मालामाल था और कई बातों में वह आगे था, 
जिसे इस्लाम की आमद ने धो दिया. बढ़ते हुए कारवाँ की गाड़ियाँ बैक गेर में चली गई.
माज़ी में इंसानी दिमाग को रूहानी मर्कज़ियत देने के लिए मफ्रूज़ा माबूदों, 
देवी देवताओं और राक्षसों के किरदार उस वक़्त के इंसानों के लिए अलहाम ही थे. 
तहजीबें बेदार होती गईं और ज़ेहनों में बलूगत आती गई, 
काफ़िर अपने ग्रंथो को एहतराम के साथ ताक़ पर रखते गए. 
ख़ुशी भरी हैरत होती है कि आज भी उनके वच्चे अपने पुरखों की रचनाओं को 
पौराणिक कथा के रूप में पहचानते हैं.
मुसलमान इसकी पौराणिक कथा की जगह, मुल्लाओं की बखानी हुई पौराणिक हकीकत की तरह जानते हैं और इन देव परी की कहानियों पर यक़ीन और अक़ीदा रखते है. 
यह मुसलमान कभी बालिग़ हो ही नहीं सकते. एक वक़्त इस्लामी इतिहास में ऐसा आ गया था कि इंगलिस्तान अरबों के क़ब्ज़े में होने को था कि बच गया. 
इतिहास कार "वर्नियर" लिखता है 
"अगर कहीं ऐसा हो जाता तो आज आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पैगम्बर मुहम्मद के फ़रमूदात पढाए जा रहे होते."
अरब भी मुहम्मद को देखने और सुनने के बाद कहते थे कि 
"इसका कुरआन शायर के परेशान ख़यालों का पुलिंदा है" 
इस हक़ीक़त को जिस कद्र जल्दी मुसलमान समझ लें, इनके हक में होगा .
एक ही हल है कि मुसलमान अपने बुनयादी कल्चर को संभालते हुए मोमिन बन जाने की सलाह है. जिसकी तफ़सील हम बार बार अपने मज़ामीन में दोहराते है. 
कोई भी गैर मुस्लिम नहीं चाहता कि मुसलमान इस्लाम का दामन छोड़े. 
अरब तरके इस्लाम करके बेदार हुए तो योरप और अमरीका के हाथों से तेल का खज़ाना निकल जाएगा, भारत के मालदार लोगों के हाथों से नौकर चाकर, मजदूर, मित्री और एक बड़ा कन्ज़ियूमर तबक़ा सरक जाएगा. तिजारत और नौकरियों में दूसरे लोग कमज़ोर हो जाएँगे, गोया सभी चाहते है कि दुन्या की  २०% आबादी सोलवीं सदी में अटकी रहे.



Wednesday 24 August 2016

बांग-ए-दरा 71




बांग-ए-दरा
तवज्जो तलब - - -

क़ुरआन किसी अल्लाह का कलाम हो ही नहीं सकता.
कोई अल्लाह अगर है तो अपने बन्दों के क़त्ल-ओ- खून का हुक्म न देगा.
क्या सर्व शक्ति वान, सर्व ज्ञाता, हिकमत वाला अल्लाह 
मूर्खता पूर्ण और अज्ञानता पूर्ण बकवास करेगा?
क्या इन बेहूदा बातों की तिलावत (पाठ) से कोई सवाब मिल सकता है?
जागो! मुसलमानों जागो!! 
मुहम्मद के सर पर करोड़ों मासूमों का खून है जो इस्लाम के फरेब में आकर अपनी नस्लों को इस्लाम के हवाले कर चुके हैं. मुहम्मद की ज़िदगी में ही हज़ारों मासूम मारे गए 
और मुहम्मद के मरते ही दामाद अली और बीवी आयशा के दरमियाँ जंग जमल में एक लाख इंसान बहैसियत मुसलमान मारे गए. 
स्पेन में सात सौ साल काबिज़ रहने के बाद दस लाख मुसलमान जिंदा 
नकली इस्लामी दोज़ख में डाल दिए गए, 
अभी तुम्हारे नज़र के सामने ईराक में दस लाख मुसलमान मारे अफगानिस्तान, 
पाकिस्तान कश्मीर में लाखों इन्सान इस्लाम के नाम पर मारे जा रहे है.
चौदह सौ सालों में हज़ारों इस्लामी जंगें हुईं हैं जिसमें करोड़ों इंसानी जानें गईं.
 मुस्लमान होने का अंजाम है बेमौत मारो या बेमौत मरो.
क्या अपनी नस्लों का अंजाम यही चाहते हो? 
एक दिन इस्लाम का जेहादी सवाब मुसलामानों को मारते मारते और मरते मरते ख़त्म कर देगा. वक़्त आ गया है खुल कर मैदान में आओ. ज़मीर फरोश गीदड़ ओलिमा का बाई काट करो, 
इनके साए से दूर रहो और भोले भाले लोगों को दूर रखो.
क़ुरआन किसी अल्लाह का कलाम हो ही नहीं सकता.
कोई अल्लाह अगर है तो अपने बन्दों के क़त्ल-ओ- खून का हुक्म न देगा.
क्या सर्व शक्ति वान, सर्व ज्ञाता, हिकमत वाला अल्लाह 
मूर्खता पूर्ण और अज्ञानता पूर्ण बकवास करेगा?
क्या इन बेहूदा बातों की तिलावत (पाठ) से कोई सवाब मिल सकता है?
जागो! मुसलमानों जागो!! 
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hADEESI HADSE 225




हदीसी हादसे 
बुखारी ६५७-५८ 

मुहम्मद एक बार जंगे-बदर के कुँए क़लीब से गुज़रे तो अपने ही मरे हुए रिश्ते दारों को, जिन्हें उन्हों ने जंग के बाद कुँए में फिकवाया था, मुखातिब करके कहा 
"तुमने अपने रब के वादे को सच्चा पाया?" 
लोगों ने कहा आप मुर्दों से बातें करते हैं, 
"जवाब था खुदा की क़सम! ये तुमसे ज्यादह सुनते हैं." 
मुहम्मद खुद अपनी उम्मत में वहम फैलाते थे, जिसको ओलिमा गुनाह बतलाते हैं. खुद उनकी बीवी आयशा इसकी तरदीद करती हैं. 

बुखारी ६५९ -६६०-६१-६२ 

मुहम्मद शाम के वक़्त अपने घर में घुसे कि एक धमाके की आवाज़ सुनी, कहा - - -
" कब्र में यहूदियों पर अज़ाब नाजिल हो रहा है." 

*मुहम्मद हर मौके पर कोई न कोई मन गढ़ंत कायम करते थे जिसे लोग उनके गलबा की वजह से बर्दाश्त करते थे. सितम ये है कि इस्लामी आलिम इसे अकीदे और सच्चाई में पिरोते हैं. 

बुखारी ६३ 

मुहम्मद कहते हैं कि उनका ( नाजायज़) बेटा इब्राहीम मरा तो जन्नत में उन्होंने उसके लिए दूध पिलाने वाली दाई मुक़र्रर किया. 
*दुनया में उनका बस न चला तो रोने लगे और जन्नत पर इतना क़ब्ज़ा है कि बेटे के लिए दाइयां मुक़र्रर करते फिर रहे हैं. 
ऐ खबीस की औलादो! आलिमान दीन !! क्या कहते हो? 


hADEESI HADSE 225




हदीसी हादसे 
बुखारी ६५७-५८ 

मुहम्मद एक बार जंगे-बदर के कुँए क़लीब से गुज़रे तो अपने ही मरे हुए रिश्ते दारों को, जिन्हें उन्हों ने जंग के बाद कुँए में फिकवाया था, मुखातिब करके कहा 
"तुमने अपने रब के वादे को सच्चा पाया?" 
लोगों ने कहा आप मुर्दों से बातें करते हैं, 
"जवाब था खुदा की क़सम! ये तुमसे ज्यादह सुनते हैं." 
मुहम्मद खुद अपनी उम्मत में वहम फैलाते थे, जिसको ओलिमा गुनाह बतलाते हैं. खुद उनकी बीवी आयशा इसकी तरदीद करती हैं. 

बुखारी ६५९ -६६०-६१-६२ 

मुहम्मद शाम के वक़्त अपने घर में घुसे कि एक धमाके की आवाज़ सुनी, कहा - - -
" कब्र में यहूदियों पर अज़ाब नाजिल हो रहा है." 

*मुहम्मद हर मौके पर कोई न कोई मन गढ़ंत कायम करते थे जिसे लोग उनके गलबा की वजह से बर्दाश्त करते थे. सितम ये है कि इस्लामी आलिम इसे अकीदे और सच्चाई में पिरोते हैं. 

बुखारी ६३ 

मुहम्मद कहते हैं कि उनका ( नाजायज़) बेटा इब्राहीम मरा तो जन्नत में उन्होंने उसके लिए दूध पिलाने वाली दाई मुक़र्रर किया. 
*दुनया में उनका बस न चला तो रोने लगे और जन्नत पर इतना क़ब्ज़ा है कि बेटे के लिए दाइयां मुक़र्रर करते फिर रहे हैं. 
ऐ खबीस की औलादो! आलिमान दीन !! क्या कहते हो? 


hADEESI HADSE 224




हदीसी हादसे 
बुखारी ६५७-५८ 

मुहम्मद एक बार जंगे-बदर के कुँए क़लीब से गुज़रे तो अपने ही मरे हुए रिश्ते दारों को, जिन्हें उन्हों ने जंग के बाद कुँए में फिकवाया था, मुखातिब करके कहा 
"तुमने अपने रब के वादे को सच्चा पाया?" 
लोगों ने कहा आप मुर्दों से बातें करते हैं, 
"जवाब था खुदा की क़सम! ये तुमसे ज्यादह सुनते हैं." 
मुहम्मद खुद अपनी उम्मत में वहम फैलाते थे, जिसको ओलिमा गुनाह बतलाते हैं. खुद उनकी बीवी आयशा इसकी तरदीद करती हैं. 

बुखारी ६५९ -६६०-६१-६२ 

मुहम्मद शाम के वक़्त अपने घर में घुसे कि एक धमाके की आवाज़ सुनी, कहा - - -
" कब्र में यहूदियों पर अज़ाब नाजिल हो रहा है." 

*मुहम्मद हर मौके पर कोई न कोई मन गढ़ंत कायम करते थे जिसे लोग उनके गलबा की वजह से बर्दाश्त करते थे. सितम ये है कि इस्लामी आलिम इसे अकीदे और सच्चाई में पिरोते हैं. 

बुखारी ६३ 

मुहम्मद कहते हैं कि उनका ( नाजायज़) बेटा इब्राहीम मरा तो जन्नत में उन्होंने उसके लिए दूध पिलाने वाली दाई मुक़र्रर किया. 
*दुनया में उनका बस न चला तो रोने लगे और जन्नत पर इतना क़ब्ज़ा है कि बेटे के लिए दाइयां मुक़र्रर करते फिर रहे हैं. 
ऐ खबीस की औलादो! आलिमान दीन !! क्या कहते हो? 


Tuesday 23 August 2016

बांग-ए-दरा 70





बांग-ए-दरा

अल्लाह बनाम कुदरत 

अल्लाह कुछ और नहीं यही कुदरत है, कहीं और नहीं, सब तुम्हारे सामने मौजूद है अल्लाह के नाम से जितने नाम सजे हुए हैं सब तुम्हारा वह्म है और साज़िश्यों की तलाश है . 
कुदरत जितना तुम्हारे सामने मौजूद है उससे कहीं ज्यादा तुम्हारे नज़र और जेहन से परे है. उसे साइंस तलाश कर रही है. जितना तलाशा गया है वही सत्य है,बाकी सब इंसानी कल्पनाएँ हैं .
आदनी आम तौर पर अपने पूज्य की दासता चाहता है, 
ढोंगी पूज्य पैदा करते रहते हैं और हम उनके जाल में फंसे रहते हैं. 
हमें दासता ही चाहिए तो अपनी ज़मीन की दासता करे, इसे सजाएं, संवारें. 
इसमें ही हमारे पीढ़ियों का भविष्य निहित है. 
मन की अशांति का सामना एक पेड़ की तरह करें जो झुलस झुलस कर धूप में खड़ा रहता है, वह मंदिर और मस्जिद नहीं ढूंढता, आपकी तरह ही एक दिन मर जाता है .
हमें खुदाई हकीकत को समझने में अब देर नहीं करनी चाहिए, 
वहमों के ख़ुदा इंसान को अब तक काफी बर्बाद कर चुके हैं, अब और नहीं। 
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Monday 22 August 2016

बांग-ए-दरा 69



बांग-ए-दरा


 धर्म गुरु और ओलिमा 

कितनी बड़ी विडंबना है कि एक तरफ तो हम नफ़रत का पाठ पढाने वालों को सम्मान देकर सर आँखों पर बिठाते हैं, उनकी मदद सरकारी कोष से करते हैं, उनके हक में हमारा कानून भी है, मगर जब उनके पढे पाठों का रद्दे अमल होता है तो उनको अपराधी ठहराते हैं. 
ये हमारे मुल्क और क़ौम का दोहरा मेयार है. 
धर्म अड्डों धर्म गुरुओं को खुली छूट कि वोह किसी भी अधर्मी और विधर्मी को एलान्या गालियाँ देता रहे भले ही सामने वाला विशुद्ध मानव मात्र हो या योग्य कर्मठ पुरुष हो अथवा चिन्तक नास्तिक हो. इनको कोई अधिकार नहीं की यह अपनी मान हानि का दावा कर सकें. मगर उन मठाधिकारियों को अपने छल बल के साथ न्याय का सन्रक्षन मिला हुवा है. ऐसे संगठन, और संसथान धर्म के नाम पर लाखों के वारे न्यारे करते हैं, अय्याशियों के अड्डे होते हैं और अपने स्वार्थ के लिए देश को खोखला करते हैं.

इन्हीं के साथ साथ हमारे मुल्क में एक कौम है मुसलमानों की जिसको दुनयावी दौलत से ज़्यादः आसमानी दौलत की चाह है. यह बात उन के दिलो दिमाग में सदियों से इस्लामी ओलिमा (धर्म गुरु) भर रहे हैं, जिनका ज़रीआ मुआश (भरण-पोषण) इस्लाम प्रचार है. 
हिंदुत्व की तरह ये भी हैं. मगर इनका पुख्ता माफिया बना है. इनकी भेड़ें न सर उठा सकती हैं न कोई इन्हें चुरा सकता है. बागियों को फतवा की तौक़ पहना कर बेयारो-मददगार कर दिया जाता है. कहने को हिदू बहु-संख्यक भारत में हैं मगर क्षमा करें धन लोभ और धर्म पाखण्ड ने उनको कायर बना रखा है, 
१०% मुस्लमान उन पर भारी है, 
तभी तो गाँव गाँव, शहर शहर मदरसे खुले हुए हैं जहाँ तालिबानी की तलब और अलकायदा के कायदे बच्चों को पढाए जाते हैं. भारत में जहाँ एक ओर पाखंडियों, और लोभियों की खेती फल फूल रही है वहीँ दूसरी और तालिबानियों और अल्काय्दयों की फसल तैयार हो रही है.

सियासत दान देश के इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने में बद मस्त हैं. क्या दुन्या के मान चित्र पर कभी कोई भारत था? क्या आज कहीं कोई भारत है? धर्म और मज़हब की अफीम खाए हुए, लोभ और अमानवीय मूल्यों को मूल्य बनाए हुए क्या हम कहीं से देश भक्त भारतीय भी हैं? नकली नारे लगाते हुए, ढोंग का परिधान धारण किए हुए हम केवल स्वार्थी ''मैं'' हूँ। 
हम तो मलेशिया, इंडोनेशिया तक भारत थे, थाई लैंड, बर्मा, श्री लंका और काबुल कंधार तक भारत थे. कहाँ चला गया वह भारत? 
अगर यही हाल रहा तो पता नहीं कहाँ जाने वाला है भारत. 
भारत को भारत बनाना है तो अतीत को दफ़्न करके वर्तमान को संवारना होगा, 
धर्म और मज़हब की गलाज़त को कोडों से साफ़ करना होगा. 
मेहनत कश अवाम को भारत का हिस्सा देना होगा, न कि गरीबी रेखा के पार रखना और कहते रहना की रूपिए का पंद्रह पैसा ही गरीबों तक पहुँच पाता है.
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Sunday 21 August 2016

बांग-ए-दरा 68




बांग-ए-दरा



कबीलाई माहौल 
कहते हैं कि इतिहास कार किसी हद तक ईमान दार होते हैं 
मगर इस्लामी इतिहास कारों ने तारीख़ को अपने अक़ीदे में ढाल कर दुन्या को परोसा.
"मुकम्मल तारीख ए इस्लाम" का एक सफ़ा मुलाहिज़ा हो - - -
"हज़रात अब्दुल्ला (मुहम्मद के बाप) के इंतेक़ाल के वक़्त हज़रात आमना हामिला थीं, 
गोया रसूल अल्लाह सल्ललाह - - शिकम मादरी में ही थे कि यतीम हो गए. आप अपने वालिद के वफ़ात के दो माह बाद १२ रबीउल अव्वल सन १ हिजरी मुताबिक ५७० ईसवी में तवल्लुद (पैदा) हुए. आप के पैदा होते ही एक नूर सा ज़ाहिर हुवा, जिस से सारा मुल्क रौशन हो गया. विलादत के फ़ौरन बाद ही आपने (मुहम्मद ने) सजदा किया और अपना सर उठा कर फरमाया 
" अल्लाह होअक्बर वला इलाहा इल्लिल्लाह लसना रसूल लिल्लाह "
जब आप पैदा हुए तो सारी ज़मीन लरज़ गई. 
दर्याय दजला इस क़दर उमड़ा कि इसका पानी कनारों से उबलने लगा. 
ज़लज़ले से कसरा के महल के चौदह कँगूरे गिर गए. 
आतिश परस्तों के आतिश कदे जो हज़ारों बरस से रौशन थे, खुद बख़ुद बुझ गए. 
आप कुदरती तौर पर मख्तून ( खतना किए हुए) थे और 
आप के दोनों शाने के दरमियान मोहरे नबूवत मौजूद थी.
रसूल अल्लाह सलअम निहायत तन ओ मंद और तंदुरुस्त पैदा हुए. 
आप के जिस्म में बढ़ने की कूव्कत आप की उम्र के मुकाबिले में बहुत ज़्यादः थी. 
जब आप तीन महीने के थे तो खड़े होने लगे और जब सात महीने के हुए तो चलने लगे. 
एक साल की उम्र में तो आप तीर कमान लिए बच्चों के साथ दौड़े दौड़े फिरने लगे. 
और ऐसी बातें करने लगे थे कि सुनने वालों को आप की अक़ल पर हैरत होने लगी."
गौर तलब है कि किस क़दर गैर फ़ितरी बातें पूरे यकीन के साथ लिख कर सादा लौह अवाम को पिलाई जा रही हैं. अगर कोई बच्चा पैदा होते ही सजदा में जा कर दुआ गो हो जाता तो समाज उसे उसी दिन से सजदा करने लगता. न कि वह हलीमा दाई की बकरियां चराने पर मजबूर होता. 
एक साल की उसकी कार गुजारियां देख कर ज़माना उसकी ज़यारत करने आता न कि बरसों वह गुमनामी की हालत में पड़ा रहता.
कबीलाई माहौल में पैदा होने वाले बच्चे की तारीखे पैदाइश भी गैर मुस्तनद है. 
रसूल और इस्लाम पर लाखों किताबें लिखी जा चुकी हैं. और अभी भी लिखी जा रही हैं जो दिन बदिन सच पर झूट की परतें बिछाने का कम करती हैं. इन्हीं परतों में मुसलामानों की ज़ेहन दबे हुए हैं.

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Saturday 20 August 2016

बांग-ए-दरा 67


बांग-ए-दरा

ज़ालिम और मजलूम 

हम मुहम्मद की अन्दर की शक्ल व सूरत उनकी बुनयादी किताबों कुरआन और हदीस में अपनी खुली आँखों से देख रहे हैं. मेरी आँखों में धूल झोंक कर उन नुत्फे हराम ओलिमा की बकवास पढने की राय दी जा रही है जिसको पढ़ कर उबकाई आती है कि झूट और इस बला का. मुझे तरस आती है और तअज्जुब होता है कि यह अक्ल से पैदल पाठक उनकी बातों को सर पर लाद कैसे लेते हैं?
एक मुस्लिम के बार बार इसरार पर एक बार उसके ब्लॉग पर चला गया, देखा कि एक हिदू मुहम्मद भग्त 'राम कृष्ण राव दर्शन शास्त्री' लिखते है कि
''एक क़बीले के मेहमान का ऊँट दूसरे क़बीले की चरागाह में ग़लती से चले जाने की छोटी-सी घटना से उत्तेजित होकर जो अरब चालीस वर्ष तक ऐसे भयानक रूप से लड़ते रहे थे कि दोनों पक्षों के कोई सत्तर हज़ार आदमी मारे गए, और दोनों क़बीलों के पूर्ण विनाश का भय पैदा हो गया था, उस उग्र क्रोधातुर और लड़ाकू क़ौम को इस्लाम के पैग़म्बर ने आत्मसंयम एवं अनुशासन की ऐसी शिक्षा दी, ऐसा प्रशिक्षण दिया कि वे युद्ध के मैदान में भी नमाज़ अदा करते थे।''
'सत्तर हज़ार' अतिश्योक्ति के लिए ये मुहम्मद का तकिया कलाम हुवा करता था, उनके बाद नकलची मुल्लाओं ने भी उनका अनुसरण किया शास्त्री जी भी उसी चपेट में हैं. बात अगर अंधी आस्था वश कर रहे हैं तो बकते रहें और अगर किराए के टट्टू हैं तो इनको भी मैं उन्हीं ओलिमा में शुमार करता हूँ. गौर तलब है कि उस वक़्त पूरे मक्का की आबादी सत्तर हज़ार नहीं थी, ये दो क़बीलों की बात करते हैं. इनकी पूरी हांड़ी में एक चावल टो कर आपको बतला रहा हूँ कि पूरी हाँडी उस मुस्लिम की ही तरह बदबूदार हुलिए की है।
आज भारत भूमि का सब से बड़ा संकट है नक्सलाइट्स जिसकी कामयाबी शायद भारत का सौभाग्य हो और नाकामी इसका दुर्भाग्य. दूसरा बड़ा संकट है इस्लामी आतंकवाद जो सिर्फ भारत के लिए ही नहीं पूरी दुन्या के लिए अज़ाब बना हुवा है. दुन्या इस से कैसे निपटती है दुन्या जाने या बराक हुसैन ओबामा, मगर भारत की सियासी फ़िज़ा इसे ज़रूर पाल पोस रही है. 
क़ुरआन में क्या है अब किसी से छिपा नहीं है, सब जानते हैं क़ुरआन जेहाद सिखलाती है, काफिरों से नफरत करना सिखलाती है, भारत में हर हिन्दू प्योर काफ़िर है. मदरसों में इनको मारना ही सवाब है, पढाया जाता है, मदरसे हर पार्टी के नाक के नीचे चलते हैं, वह भी सरकारी मदद से. मदरसे से फारिग तालिबान यह काम कर भी रहे हैं, पकडे भी जाते हैं, क़ुबूल भी करते हैं. आत्म घाती बन जाते हैं, मरते ही हूरों भरी जन्नत में पहुँच जाएँगे जहाँ अय्याशी के साथ साथ शराबन तहूरा भी मयस्सर होगी, ऐसा उनका विश्वास है जैसे बालाजी पर दस लाख के चढ़ावे पर पोता पा जाने का बिग बी. का विश्वास. मदरसों पर, कुरआन पर, वेदों पर, मनु स्मृरिती पर, अंध विश्वासों पर पाबन्दी नहीं लगाई जा सकती. ऐसे में क्या कोई भारत भाग्य विधाता पैदा होगा?
कट्टर साम्प्रदायिक पार्टियाँ चाहती है कि इसकी जेहादी आयतों को इस से निकाल कर इसे क़ायम रहने दिया जाए. 
वजेह? 
ताकि मुसलमान इसकी जेहालत में मुब्तिला रह कर हिदुओं के लिए सस्ती मज़दूरी करते रहें और इनकी कंज्यूमर मार्केट भी बनी रहे. सवर्णों की पार्टी कांग्रेस चाहती है कि क़ुरआन की नाक़िस तालीम क़ायम रहे वर्ना मनुवाद सरीके पंडितो द्वारा दोहित हो रहे भारत उनके कब्जे से निकल जाएगा जोकि उनके हक में न होगा. 
बहुजन जैसी दलित उद्धार के नेता मौक़ा मिलते ही ब्रह्मण बन कर दलितों पर राज करने लग जाते हैं. इन्हीं धोका धडी में लिपटी ८०%भारत की आबादी ५% नाजायज़ अक्सरियत, ५% नाजायज़ अक़ल्लियत के हाथों का खिलौना बनी हुई है. बिल गेट्स दुन्या के अमीरों में पहले नंबर पर रहे अपनी ५३ बिलियन डालर की दौलत में से ३८.७बिलियन डालर ''बिल & मिलिंडा गेट्स फ़ौंडेशन'' नाम का ट्रस्ट बना के इसको दान देकर ग़रीब किसानों और मजदूरों की सेहत और सुधार काम में लगा दिया है. 
हमारे देश में अम्बानी बन्धु जो देश की मालिक बने बैठे हैं, पेट्रोल, गैस से लेकर किसानों तक के कामों को उनके हाथों से छीन कर अपने हाथों में ले लिया है, बद्री नाथ की तीर्थ यात्रा से अपने पाप धो रहे हैं. तिरुपति मंदिर से अजमेर दरगाह तक घर्म के धंघे बाज़ इन्ही ५.५% बे ईमानों के शिकार हैं. 
देखिए कुदरत द्वरा माला मॉल देश का सितारा कब तक गर्दिश में रहता है।
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Friday 19 August 2016

बांग-ए-दरा 66


बांग-ए-दरा

बन्दों का हक

धर्म और ईमान के मुख्तलिफ नज़रिए और माने अपने अपने हिसाब से गढ़ लिए गए हैं. 
आज के नवीतम मानव मूल्यों का तकाज़ा इशारा करता है कि धर्म और ईमान हर वस्तु के उसके गुण और द्वेष की अलामतें हैं. इस लम्बी बहेस में न जाकर मैं सिर्फ मानव धर्म और ईमान की बात पर आना चाहूँगा. 
मानव हित, जीव हित और धरती हित में जितना भले से भला सोचा और भरसक किया जा सके वही सब से बड़ा धर्म है और उसी कर्म में ईमान दारी है.
वैज्ञानिक हमेशा ईमानदार होता है क्यूँकि वह नास्तिक होता है, इसी लिए वह अपनी खोज को अर्ध सत्य कहता है. वह कहता है यह अभी तक का सत्य है, कल का सत्य भविष्य के गर्भ में है. मुल्लाओं और पंडितों की तरह नहीं कि आखरी सत्य और आखरी निजाम की ढपली बजाते फिरें. धर्म और ईमान हर आदमी का व्यक्तिगत मुआमला होता है मगर होना चाहिए हर इंसान को धर्मी और ईमान दार, कम से कम दूसरे के लिए. 
इसे ईमान की दुन्या में ''हुक़ूक़ुल इबाद'' कहा गया है, अर्थात ''बन्दों का हक'' 
आज के मानव मूल्य दो क़दम आगे बढ़ कर कहते हैं 
''हुक़ूक़ुल मख्लूकात'' अर्थात हर जीव का हक.
धर्म और ईमान में खोट उस वक़्त शुरू हो जाती है जब वह व्यक्तिगत न होकर सामूहिक हो जाता है. धर्म और ईमान , धर्म और ईमान न राह कर मज़हब और रिलीज़न यानी राहें बन जाते हैं. 
इन राहों में आरंभ हो जाता है कर्म कांड, वेश भूषा, नियमावली , उपासना पद्धित, 
जो पैदा करते हैं इंसानों में आपसी भेद भाव. 
राहें कभी धर्म और ईमान नहीं हो सतीं. धर्म तो धर्म कांटे की कोख से निकला हुआ सत्य है, 
पुष्प से पुष्पित सुगंध है, 
उपवन से मिलने वाली बहार है. 
हम इस धरती को उपवन बनाने के लिए समर्पित राहें यही मानव धर्म है. 
धर्म और मज़हब के नाम पर रची गई पताकाएँ, दर अस्ल अधार्मिकता के चिन्ह हैं.
लोग अक्सर तमाम धर्मों की अच्छाइयों(?) की बातें करते हैं ,
यह धर्म जिन मरहलों से गुज़र कर आज के परिवेश में कायम हैं, क्या यह अधर्म और बे ईमानी नहीं बन चुके है? 
क्या यह सब मानव रक्त रंजत नहीं हैं? 
इनमें अच्छाईयां है कहाँ? जिनको एह जगह इकठ्ठा किया जाय, यह तो परस्पर विरोधी हैं..
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Thursday 18 August 2016

बांग-ए-दरा 65





बांग-ए-दरा

"मियाऊँ"

एक बच्चे ने बाग़ में बैठे कुछ बुजुर्गों से, आकर पूछा क़ि क्या उनमें से कोई उसके एक सवाल का जवाब दे सकता है?
छोटा बच्चा था, लोगों ने उसकी दिलजोई की, बोले पूछो.
बच्चे ने कहा एक बिल्ली अपने बच्चे के साथ सड़क पार कर रही थी क़ि अचानक एक कार के नीचे आकर मर गई, मगर उसका बच्चा बच गया, बच्चे ने आकर अपनी माँ के कान में कुछ कहा और वहां से चला गया. ,
आप लोगों में कोई बतलाए क़ि बच्चे ने अपनी माँ के कान में क्या कहा होगा ?
बुड्ढ़े अपनी अपनी समझ से उस बच्चे को बारी बारी जवाब देते रहे जिसे बच्चा ख़ारिज करता रहा. थक हर कर बुड्ढों ने कहा , अच्छा भाई  हारी, तुम ही बतलाओ क्या कहा होगा?
बच्चे ने कहा उसने अपनी माँ के कान में कहा था "मियाऊँ"
आलिमान दीन की चुनौती है कि कुरआन का सही मतलब समझना हर एक की बस की बात नहीं, वह ठीक ही समझते है क़ि मियाऊँ को कौन समझ सकता है? मुहम्मद के मियाऊँ का मतलब है 
"क़यामत ज़रूर आएगी"
नमाज़ के लिए जाना है तो ज़रूर जाओ, उस वक्फे में वजूद की गहराई में उतरो, खुद को तलाश करो. अपने आपको पा जाओगे तो वही तुम्हारा अल्लाह होगा. उसको संभालो और अपनी ज़िन्दगी का मकसद तुम खुद मुक़र्रर करो.
तुम्हें इन नमाज़ों के बदले 'मनन चिंतन' की ज़रुरत है. 
इस धरती पर आए हो तो इसके लिए खुद को इसके हवाले करो, इसके 
हर जीव की खिदमत तुम्हारी ज़िन्दगी का मक़सद होना चाहिए, 
इसे कहते हैं ईमान, क़ि जो झूट का इस्तेमाल किसी भी हालत में न करे. 
तुम्हारे कुरआन में  मुहम्मदी झूट का अंबार है.
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Wednesday 17 August 2016

हदीसी हादसे 23


हदीसी हादसे 


बुखारी ६६५ 

मुहम्मद नमाज़ से फारिग होने के बाद लोगों से पूछा करते थे कि अगर उन्होंने कोई ख़्वाब देखा हो कि वह उसकी ताबीर बतला दें. रोज़ की उनकी बकवास सुनते सुनते लोग बेजार हो गए तो एक दिन ऐसा आया कि किसी ने कोई ख्वाब ही नहीं देखा. इस पर मुहम्मद ने कहा मैं ने एक ख़्वाब देखा सुनो - - - 
1-मैंने देखा कि एक मुक़द्दस ज़मीन की तरफ़ मुझे ले जाया गया, ले जाने वाले दो थे. मैं ने देखा कि एक शख्स हाथ में ज़मबूर लिए दूसरे का कल्ला चीर रहा था, ज़म्बूर मुंह से निकलते ही उसका कल्ला सालिम हो जाता तब वह डूसरे गलफरे को चीरता है . . .
पूछा माजरा क्या है? 
दोनों ने कहा आगे चलो. 
२- आगे मैं ने देखा कि एक चित लेटे आदमी पर दूसरा पत्थर मारता है कि सर फट जाता है, वह पत्थर उठाने जाता है कि उसका सर फिर से सलिम हो जाता है. 
मैंने माजरा जानना चाह तो कहा आगे चलो. 
३-आगे मैंने देखा कि दो मर्द और औरत नंगे एक तंदूर में जल रहे हैं. तंदूर जब उफनता है तो दोनों ऊपर तक आ जाते हैं मगर बाहर नहीं निकल पाते और फिर नीचे चले जाते हैं. मैंने माजरा जानना चाहा तो कहा आगे चलो. 
४- आगे मैंने देखा कि एक शख्स नहर में फंसा हुवा है और नहर के दोनों कनारे पर दो लोग पत्थर लिए खड़े हैं. वह एक कनारे पर निकलने को जाता है तो उस पर पहला पथराव करता है और दूसरे कनारे पर जाता है तो दूसरा उस पर पथराव कर के वापस कर देता है. मैंने उन से इसका माजरा पूछा तो वह लोग मुझे एक शानदार बाग में ले गए जिसमे एक बूढा बैठा था और बाग में एक आली शान माकन था ,फिर दूसरा माकन था, जिसमें बच्चे जवान और बूढ़े बकसरत भरे हुए है, मेरे तजस्सुस पर उन दोनों ने कहा 
१- पहला जिसका कल्ला चीरा जा रहा था वह झूटी बातों की खबर फैलता था .
२- दूसरा जिसे ज़ख़्मी किया जा रह था, वह कुरान पाकर भी उसकी तिलावत नहीं करता था.
३- जिन जोड़े को आपने तंदूर में देखा, वह दोनों ज़िना कार थे. 
४-जो शख्स नाहर में फंसा था वह सूद खोर था.
इन चरों को क़यामत तक यूं ही सज़ा जरी रहेगी.
बाग में बैठे ज़ईफ हज़रात इब्राहीम अलेहिस सलाम थे. 
मकानों में उनके जन्नती औलादें थीं और दूसरे में शहीद ए जिहाद थे.
बाद में दोनों ने बतलाया हम लोग जिब्रील और मीकाईल हैं.
उन्हों ने ऊपर अब्र पर इशारा करके बतलाया कि ऊपर आप का मकान है, 
मैने कहा तो मुझे मेरे माकन ले चलो तो उन लोगों ने कहा अभी नहीं अभी आपकी उम्र बाकी है.
यह हदीस मुहम्मद की मन गढ़ंत है. सबसे पहले इनका क़ल्ला चीरा जाना था, मगर मोहताज अवाम की इतनी हिम्मत कहाँ कि वह झूठे पैगाबर के खिलाफ लब कुशाई करते .
बल्कि इन चारो सज़ाओं के मुजरिम खुद मुहमद होते हैं. 
अपने बहू के साथ ज़िना करते, बेटे ने देख लिया था, फिर उसे बगैर निकाह के ज़िन्दगी भर रखैल बना कर रखा, जिसकी तबलीग ओलिमा उनके हक़ में करते रहे, ये उनकी मजबूरी है कि मुसलमान यही सुनना चाहते है.
इतना बड़ा ख्वाब जो दूसरे दिन इस तरह बयान किया जय? इसकी पेश बंदी बतलाती है कि यह दिन में मुहम्मद ने खुली आँखों से देखा. 
मुसलमानों! 
क्या तुम कहाँ हो, क्या तुम्हारा रहनुमा इतना झूठा हो सकता है? 



बांग-ए-दरा 64


बांग-ए-दरा

मुहम्मद एक कमज़ोर इंसान 

तथा कथित बाबा, रामदेव की मौजूदः कहानी, इनकी शख्सियत, इनका तौर तरीक़ा, इनकी लफ्फाज़ी और चाल-घात, कुछ कुछ मुहम्मद से मिलती जुलती हैं. 
जंगे-बदर के बाद जंगे-ओहद में अल्लाह के खुद साख्ता रसूल हार के बाद अपने मुँह ढक कर हारी हुई फ़ौज के सफ़े-आखीर में पनाह लिए हुए खड़े थे और अबू सुफ्यान की आवाज़ ए बुलंद को सुनकर भी टस से मस न हुए. वह आवाज़ जंग का बाहमी समझौता हुवा करती थी कि नाम पुकारने के बाद दस्ते के मुखिया को सामने आ जाना चाहिए ताकि उसके मातहतों का खून खराबा मजीद न हो.
वैसे भी मुहम्मद ने कभी तलवार और तीर कमान को हाथ नहीं लगाया, 
बस लोगों को चने की झाड़ पर चढाए रहते थे. उनका कलाम होता ,
'' मार ज़ोर लगा के, तुझ पर मेरे माँ बाप कुर्बान"
बकौल लालू ,बाबा कुदंग योग लगा कर भागे.
राम देव ने लिबासे निसवां पहन कर जान बचाई और मुहम्मद ने लिबासे दरोग (मिथ्य)का सहारा लिया.
मुहम्मद अल्लाह के झूठे रसूल थे और रामदेव जनता का झूठा पीड़ा मोचक. 
उसके समर्थको को देख कर मैं मुसलमानों को देखता हूँ और अपना सर पीटता हूँ.


Monday 15 August 2016

बांग-ए-दरा 63





बांग-ए-दरा

इब्लीस मरदूद

अल्लाह ने मिटटी और गारे का एक पुतला बनाया और अपने सबसे बड़े फ़रिश्ते को हुक्म दिया कि इसको सजदा कर . 
फ़रिश्ते ने लाहौल (धिक्कार) पढ़ी और कहा मैं अग्नि का बना, और इस माटी के माधो को सजदा करूँ ?
अल्लाह को ग़ुस्सा आया और फ़रिश्ते को इब्लीस मरदूद क़रार दिया और जन्नत से बाहर का रास्ता दिखलाया। 
जाते जाते शैतान ने अल्लाह को गच्चा देते हुए उसके कुछ अख्तियार ले ही गया .
अपनी हिकमत ए अमली के बदौलत वह बन्दों का खुदाए सानी बन गया अर्थात अल्लाहु असग़र। शैतान अल्लाह की तरह हर जगह विराजमान है , कुरआन की हर सूरह शैतानुर रजीम का नाम पहले आता है, बिस्म अल्लाह का नाम बाद में (एक को छोड़ कर) इस्लाम में शैतान पेश पेश है और अल्लाह पस्त पस्त . 
इंसान के हर अमल में शैतान का दख्ल है. करम अच्छे हों या बुरे, नतीजा ख़राब है तो शैतान के नाम अगर अच्छे रहे तो अअल्लाह के नाम .
( इस बे ईमानी को हज़रत ए इंसान खुद तस्लीम करते हैं .) 
अल्लाह की तरह शैतान किसी की जान नहीं लेता, यह उसकी खैर है .
शैतान ने ही इंसान को इल्म जदीद, मन्तिक़ और साइंस की ऐसी घुट्टी पिलाई कि वह सय्यारों पर पहुँच गया है 
और अल्लाह के बन्दे याहू ! याहू !! रटने लगे हैं . 
शैतान ही इंसान को नई तलाश में गामज़न रखता है, अक़ीदे जिसे गुनाह और गुमराही कहते हैं।
अल्लाह की बख्शी हुई ऊबड़ खाबड़ ज़मीन को शैतानी बरकतों ने पैरिस, लन्दन, न्यूयार्क, टोटियो, दुबई और बॉम्बे का रूप दे दिया है। 
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Sunday 14 August 2016

बांग-ए-दरा 62





बांग-ए-दरा

यतीम मुहम्मद

मुहम्मद जब पेट में थे, उनके बाप चल बसे, बचपन में ही माँ का इन्तेक़ाल हो गया। 
इसके बाद दाई हलीमा की सुपुरदगी में बकरियाँ चराने में उनका काफ़ी वक़्त बीता। फिर मुहम्मद अपने घर में अपनी माँ की हबशन लौंडी ऐमन के साथ रहने लगे जो कि उम्र में उनसे कुछ बड़ी थी, इतनी की उनकी पैदाइश पर उनका गू मूत और पोतड़े वही धोती। 
मुहम्मद के रिश्तेदार तो बहुतेरे थे, सगे दादा, कई एक चचा भी थे, मगर यतीम का कोई पुरसान ए हाल न था। झूठे ओलिमा इनके दादा और चाचाओं की दास्तानें बघारते हैं। साबित यह होता है कि वह मक्का के लोगों की बकरियां चरा कर अपना और ऐमन का गुज़ारा करते। 
पचीस साल की उम्र तक उनकी ज़िन्दगी की कोई क़ाबिल ए ज़िक्र हाल -चाल  नहीं मिलते । 
मुहम्मद के मिज़ाज को देखते हुए यह बात यकीन के साथ कही जा सकती है कि सिने बलूग़त आते आते इनका जिस्मानी तअल्लुक़ ऐमन के साथ हो चुका था। उस वक़्त यह बात कोई मायूब भी नहीं मानी जाती थी।
खादीजः ने जब मुहम्मद के सामने निकाह की पेश कश रखी तो मुहम्मद को कोई एतराज़ न हुआ, हांलाकि वह उम्र में उनसे पंद्रह साल बड़ी थीं, मगर मालदार थीं। 
मुहम्मद ने घर जंवाई बनना भी ठीक जाना। वह साथ में अपनी लौड़ी को भी ले गए।
इसी दरमियाँ ऐमन हामलाः हो गई, खदीजः के मशविरे पर मुहम्मद ने फ़ौरन इसकी शादी की बात मान ली। ग़ुलाम ज़ैद उनकी गुलामी में था ही, उसे ऐमन का शौहर बना दिया, गोकि उसकी उम्र अभी बारह साल की ही थी, वह जिन्सियात से वाक़िफ़ भी नहीं था कि एक अदद बच्चे का बाप बन गया। 
लौंडी और ग़ुलाम की मजाल ही क्या थी कि शादी से इनकार कर देते। ज़ैद मशहूर हदीस गो ओसामा का बाप कहलाया, जो कि दर अस्ल मुहम्मद का बेटा था। 
मुहम्मद ने इसे हर जगह फ़ौक़ियत भी दी।
इसी ज़ैद बिन हारसा की दूसरी कहानी शुरू हुई 
जब मुहम्मद ने इसकी दूसरी शादी अपनी रखैल जैनब से की। 
किसी इस्लामी मुवर्रिख की मजाल नहीं की इस सच्चाई को क़लम ज़द कर सके। 
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Friday 12 August 2016

बांग-ए-दरा 61


बांग-ए-दरा
इस्लामी आक़बत 

हिंदी का बड़ा प्यारा लफ्ज़ है 'कल्पना', यह तसव्वुर का हम मानी है , मगर इसका अपना ही रंग है। हर आदमी अपने हाल से बेज़ार होकर अक्सर कल्पनाओं की दुन्या में कुछ देर के लिए चला जाता है। 
कल्पनाएं तो सैकड़ों क़िस्म की होती हैं मगर मैं फिलहाल प्रेमिका को लेता हूँ  यानी तसव्वुरे जानां। तसव्वुरे जानां इसके शिवा कुछ नहीं हैं कि इसे तसव्वुरे जिनसां (sex) कहा जाए। 
उम्मत ए मुस्लिमा चलते फिरते इस कल्पना से महमहज़ूज़ होती है क्योँकि आक़बत (परलोक) का सब से अव्वल इनाम हूरें और गिलमा हैं।  
 हिदू परलोक का मतलब होता है कि इस लोक के झंझा वाद से मुक्ति मगर इस्लामी आक़बत है कि जिंसी बागात में भरपूर ऐश करना। 
जब उम्र ढलने लगाती है तो कल्पित  हसीनाएं कज अदाई करने लगती हैं , बूढ़ों की तो शामत ही आ जाती है जैसा कि कहते हैं दिल कभी बूढा नहीं होता है. ऐसी हालत में वह कल्पनाओं  में जवान होकर फिर से सब कुछ दोहराने लगते हैं। 
इंसान की इस कमज़ोरी को मुहम्मद ने कसके पकड़ा है। उन्होंने मौत के बाद जवानी को आने और जहान ए जिंस में फिर से ग़ोता लगाने का नायाब तसव्वुर मुसलामानों को दिया है।  
आप देखें कि यह बूढ़े जिंस ए लतीफ़ के लिए मस्जिद की तरफ किस तेज़ी से  भागते नज़र आते हैं।  
हूरों की कशिश और गिलमा की चाहत इन से नमाज़ों की कसरत कराती है , रमज़ान में फ़ाक़ा कराती है , हजों का दुश्वार गुज़ार सफ़र तय कराती है और ख़ैरात ओ ज़कात कि फय्याजी कराती है।  
यह बुढ्ढे नमाज़ों के लिए नवजवानों और बच्चों को भी गुमराह करते हैं। 
कोई बताए कि इस्लामी आक़बत का माहसिल इसके अलावा और क्या है ?
 इसके बाद मुख्तलिफ़ ज़ायक़ों की शराबें जन्नतयों को पीने को मिलेंगी , 
बड़ी बडी आँखों वाली हूरें अय्याशी के लिए मयस्सर होंगी , हत्ता कि इग्लाम बाज़ी के लिए महफूज़ मोती  जैसे लौण्डे होंगे।  
 खाना पीना तो कोई मसअला ही नहीं होगा , जिस मेवे की ख्वाहिश होगी उसकी शाखे मुँह के सामने होंगी। 
 अगर इन सब चीज़ों से कोई इंकार करता है तो वह क़ुरान को नकारता है।  
एक नमाज़ी मुसलमान क़ुरान को नकारे, यह मुमकिन नहीं है, जबकि अंदर से वह अल्लाह की इन्हीं नेमतों का आरज़ूमन्द रहता है जिन्हें वह जीते जी नहीं पा सका , जो लतीफ़ होते हुए भी ममनून थीं।  
 इस्लामी दुन्या के आलावा बाक़ी दुन्या में आख़िरुज़ज़मा (अंतिम पैग़म्बर), आखिरी किताब और आखिरी निज़ाम जैसा कोई हादसाती वाक़िआ नहीं हुवा। इस लिए ज़मीन के बाक़ी हिस्सों में इर्तिकाई तामीरात होते गए। पैग़मबर आते गए , राहनुमा जलवा गर होते गए , किताबें रुनुमा होती रहीं , निज़ाम बदलते गए और बदलती गई उनकी धरती की क़िस्मत।
  कहीं कहीं तो इंसानी आज़ादी इतनी तेज़ी से फूली फली कि उनहोंने आसमानी जन्नत को लाकर ज़मीन पर उतार दिया जिसको कुरआन मौत के बाद आसमान पर मिलने की बात करता है, बल्कि इससे भी बेहतर। ऐसी जन्नतें इस ज़मीन पर बन चुकी हैं कि जहाँ नहरें और बाग़ात मज़ाक़ की बातें लगेंगी।
 काफ़ूर और सोठ की लज़ज़त वाली शराबें, वह भी गन्दी ज़मीन पर बहती हुई , लानत भेजिए। हूरों और परियों का हुजूम हम रक़्स है और इनको भी नरों को चुनने की  पूरी आज़ादी है। 
 दूर दूर तक क़यामत का कहीं कोई शोर ओ गुल नहीं, कोई ज़िक्र नहीं, कोई फ़िक्र नहीं, जिहालत कि बातों का कोई गुज़र नहीं। इंसानी हुक़ूक़ इतने महफूज़ हैं कि जैसे बत्तीस दातों के बीच ज़बान महफूज़। 
 ऐसा निज़ाम ए हयात पा लिया है इस ज़मीन के बाशन्दों ने जहाँ इंसान क्या , हैवान और पेड़ पौदे तक महफूज़ हो गए हैं। 
 आखरी निज़ाम वाली दुन्या, अहमकों की जन्नत में रहती है, कोई इनको जगाए। 
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