
बांग-ए-दरा
खुदा
ख़ुदा हर एक का बहुत ही ज़ाती मुआमला है।
इसे मानें या न मानें या अपने तौर पर मानने की आज़ादी हर फ़र्द को होना चाहिए।
वैसे ख़ुदा को मैंने जहाँ तक जाना है, का फ़ायदा ज़ेहनी सुकून के सिवा कुछ भी नहीं,
वह भी ज्यादाः हिस्सा खुद को फ़रेब देना होता है।
थोडा सा नफ़सियाती इलाज के लिए मज़हब ने इंसान से व्यक्ति गत आज़ादी को छीन कर सामूहिक क़ैद खाने के हवाले कर दिया है ,
खास कर इस्लामी मुमालिक में अल्लाह की वजह से व्यक्ति समूह का गुलाम बन गया है।
ख़ुदा क्या है?
हर शख्स इसे अपने ज़ेहनी सतह पर कभी न कभी लाता ज़रूर है।
यह लफ्ज़ फ़ारसी का है जो कि लफ्ज़ खुद से बना है.
क़दीमी ईरानी चिंतन बतलाती है,
"वह जिसे किसी ने न पैदा किया हो और वह खुद बखुद पैदा हो गया हो, खुदा है।"
बाक़ी तमाम जीवों और वस्तुओं को पैदा करने वाला खुदा है।
वह खुद ही इस कायनात का मालिक है और हर शय उसके आधीन है।
यही ख़याल यहूदियों का है मगर थोड़े से फ़र्क़ के साथ कि वह सिर्फ यहूदियों पर मेहरबान है।
इसी तरह इस्लामी अल्लाह भी है, जो रब्बुल आलमीन तो है मगर बख्शेगा सिर्फ मुसलामानों को , बाक़ी सब जहन्नम में झोंक दिए जाएगे।
ईसाई भी इस तंग नज़री से मुबर्रा नहीं।
बहरहाल इन सब खुदाओं कि बुन्याद ईरानी फलसफे पर रखी हुई है
कि ख़ुदा एक है। इसका बनाने वाला कोई नहीं है, सबको बनाने वाला वह है।
वह एक है, इसका यक़ीन सबको है खासकर पश्चिम दुन्या के लिए।
हिन्दू आस्था इससे ज़रा हटके है कि वह अकेला नहीं बल्कि मुख्तलिफ अख्तियार के साथ वह एक टीम है मगर उनमें खुद साखता तीन हैं ,
ब्रहमा, विष्णु और महेश।
पहले का काम है ब्रह्माण्ड को वजूद में लाना ,
दूसरे का इसके कारोबार का सञ्चालन करना
और तीसरे का सृष्टि को मिटा देना।
इन तीनो का कार्यकाल ढाई अरब साल माना गया है जो मुसलसल चलता रहता है मगर
एक ईश्वर कि कल्पना लाशूरी तौर पर इन पर भी ग़ालिब हो रही है.
फ़ारसी का ही एक लफ्ज़ है बन्दा, जिसके मानी आम तौर पर इंसान के लिए है मगर अस्ल में गुलाम के हैं जो पाबंद हो , जिसके ऊपर बंदिश हो ठीक वैसे ही जैसे ख़ुदा के हक़ में ख़ुद सरी है।
यह ख़ुदा और बन्दे का ईरानी फ़लसफ़ा सदियों से इंसानी समाज को गुमराह किए हुए है। यह फ़लसफ़ा इतना कामयाब है कि आम आदमी इससे हट कर कुछ और सोचना ही नहीं चाहता , ख़ास कर मशरिक़ी बाशिंदे।
असलियत इससे कुछ हट कर है।
"न तो ख़ुदा खुद से है और न बंदा बन्दिश में "
सच तो यह है कि इस फ़लसफ़े के तिजारती अड्डे क़ुदरत की इस धरती पर क़ाबिज़ हैं जिन पर मज़हब के मुजाविर और धर्मों के पुजारी बैठे हुए हैं।
जिस रोज़ यह छलावा इंसानी ज़ेहनों से निकल जाएगा , न ख़ुदा की ख़ुदी बाक़ी बचेगी न बन्दे पर पाबन्दी क़ायम रह जाएगी, जो कुछ बचेगा वह उरयाँ क़ुदरत होगी जिसका कोई ख़ुदा होगा न कोई बंदा।
दर अस्ल यह ईरानी फ़लसफ़ा अब उल्टा नज़र आने लगा है।
कई मोर्चे पर ख़ुदा बेबस नज़र आने लगा है
और बंदा बा अख़तियार होता चला जा रहा है।
बन्दा अपनी कोशिशों के पर लगा कर चाँद सितारों पर पहुँच रहा है ,
ख़ुदा अपने निर्धारित कामों में ही लगा हुवा है
कि बन्दे के लिए अज़ाब पैदा करता रहे।
कुदरात हमेशा इंसान की मदद के लिए आमादा रहती है।
हर ख़ुदाई क़हर पर इंसान धीरे धीरे क़ाबू पाता चला जा रहा है।
उसने कई बीमारियों को जड़ से ख़त्म कर दी है।
खुदाई बीमार होती हुई नज़र आ रही है और बन्दा तंदुरुस्त होता चला जा रहा है।
ख़ुदा और बन्दे का मेरा यह मुक़ाबला शोबदे बाज़ी लगेगी,
जब तक आप में ज़ेहनी बलूगत आ जाएगी।
बन्दा ख़ुदा से लड़ता नहीं बल्कि क़ुदरकत के क़हर से खुद को बचाता है
और उसकी नेमतों को तलाशता रहता है।
जंगल में हैवानियत का ग़लबा हक़ बजानिब है जो कि जंगल के निज़ाम को हज़ारों साल से संतुलित किए हुए है.
जबकि इंसानी समाज बे बुनियाद है।
ख़ुदाई तसव्वुर को लेकर यह हमेशा ज़मीन को तह ओ बाला किए रहता है.
हैवान हैवान है जो हमेशा हैवान ही रहता है।
इंसान पैदा तो हैवान ही की तरह होता है मगर सिन बलूगत तक आते आते
इससे पहले कि वह इंसान बने , मज़हब और धर्म उसे क़ौम का बना देते हैं।
ख़ुदा के मुख्तलिफ तसव्वुर में इस्लामी अल्लाह कुछ ज्यदा ही सख्त है।
इसका किरदार एक भयानक देव जैसा है,
वह ज़ालिम है, मुन्तक़िम है और चालघात करने वाला है।
वह अपने बन्दों के साथ शैतान से बढ़ कर खबीस,
पिशाच और राक्षस जैसा सुलूक करता है।
वह आग में डालकर इंसान को जलाता है। खून और पीप खिलता है,
खौलता पानी पिलाता है और हद यह है कि इंसान को कभी मरने नहीं देता।
ऐसे अल्लाह को सबसे पहले मुसलामानों को तर्क करने की ज़रुरत है।
कहते है कि क़ुरान अल्लाह का कलाम है।
दुन्या के तमाम कलामो के सामने इसे अगर मुक़ाबले में रख दिया जाय तो
इससे ज़यादह जिहालत और कहीं नहीं मिलेगी।
मुसलमान जितनी जल्दी इस अल्लाह से इसके रसूल से,
इसकी किताब से अपना पिंड छुड़ाएंगे उनके हक़ में उतना ही अच्छा होगा.
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