Tuesday 26 February 2013

Hadeesi Hadse 74


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बुख़ारी 1289
हदीस है कि ख़लीफा उमर ने लुक़मान इब्न मक़रन को सिपह सालार बना कर मुल्क कसरा (ईरान) पर चढ़ाई का हुक्म दिया, जिसके मुक़ाबिले में कसरा की चालीस हज़ार फ़ौज सामने आ खड़ी हुई . इसमें से एक तर्जुमान बाहर आया और पूछा 
"कौन लोग हो ? हमसे तुम्हारा मतलब क्या है? तुम में से कोई एक बाहर   आकर हम से कलाम करेगा ?
जवाब में मुग़ीरा नाम का एक सहाबी बाहर आया और बोला - - - 
क्या जानना चाहता है ?
उसने दर्याफ़्त किया, कौन लोग हो ?
मुग़ीरा बोला - - हम लोग अरब के रहने वाले हैं .
 हम लोग बड़ी तंग दस्ती और मुसीबत में थे .
 भूक के मारे चमड़े और खजूर की गुठलियाँ चूस चूस कर गुज़र अवक़ात किया करते थे। ऊन और बाल हमारी पोशाकें थीं। 
हम दरख्तों और पत्थरों की पूजा किया करते थे। 
ऐसे में अल्लाह ने अपनी जानिब से हम लोगों के लिए एक रसूल भेजा ,  उसी ने हम लोगों को तुम से लड़ने का हुक्म दिया .

उस वक़्त तक कि तुम एक अल्लाह की इबादत न करने लगो, 
या फिर हमें जज़िया देना क़ुबूल न करो .
उसी ने हमें परवर दिगार की तरफ़ से इत्तेला दी है कि जो जिहाद में क़त्ल हो जाएगा , वह जन्नत जाएगा और जो ज़िंदा रह जाएगा , वह तुम्हारी गर्दनों का मालिक होगा " 
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इस हदीस में इस्लाम की सच्ची रूहे-बद समाई हुई है।मुग़ीरा का सीधा सादा और सच्चा बयान है।
(हालाँकि इसकी हक़ीक़त यह है कि सफ़र में यह एक क़बीले को धोका देकर उनका हम सफ़र बन गया था और उनका एतमाद हासिल करके रात में उनको क़त्ल कर दिया था। इनका तमाम माल लूट कर मुहम्मद के पास आकर इस शर्त पर मुसलमान हो गया था कि इसके लूट में किसी का कोई दख़ल न होगा। मुहम्मद ने इसकी शर्त मान ली थी और इसे मुसलमान बना लिया था, क्योकि ऐसे लोगों की ही मुहम्मद को हमेशा ज़रुरत रही है .)
इस्लाम से पहले अरब अवाम के ऐसे ही हालात थे ,जैसा मुग़ीरा ने बयान किया, यहाँ तक कि वह अपनी बेटियों को ज़िन्दा दफ़्न कर दिया करते थे कि उनकी परवरिश मुहाल हुवा करती थी।
मुग़ीरा अपने क़ौम का माज़ी बयान करता है जिससे अब वह नजात पा चुका है। उनके हाल  पर अल्लाह का करम है कि वह जिहाद से खुश हाल हो गए हैं।
सवाल उठता है कि अरबों पर खुश हाली आई कहाँ से ?
दीगरों को बद हाल करके ?
या मुहम्मद ने फ़रिश्तों से कह कर इनकी खेतियाँ जुतवा दी थीं ? हक़ीक़त यह है कि मुहम्मद ने पहले अरबों को और बाद में मुसलमानों को पक्का क़ज़ज़ाक़ और लुटेरे बना दिया था। अफ़सोस कि मज़लूमों का कोई एक मुवर्रिख़  नहीं हुवा कि उनका मातम करने वाला होता और इस्लाम के लाखों टिकिया चोर मुवर्रिख़ और ओलिमा बैठे हुए हैं। 
माले-ग़नीमत ने मुसलमानों को मालामाल कर दिया।
कितना मासूमाना और शरीफ़ाना सवाल था उस कसरा फ़ौज के तर्जुमान का कि 
"कौन लोग हो ? हमसे तुम्हारा मतलब क्या है? 
और कितनी जारहय्यत थी इस्लाम की कि 
"ऐसे में अल्लाह ने अपनी जानिब से हम लोगों के लिए एक रसूल भेजा ,  उसी ने हम लोगों को तुम से लड़ने का हुक्म दिया .
उस वक़्त तक कि तुम एक अल्लाह की इबादत न करने लगो, 
या फिर हमें जजया देना क़ुबूल न करो .
उसी ने हमें परवर दिगार की तरफ़ से इत्तेला दी है कि जो जिहाद में क़त्ल हो जाएगा , वह जन्नत जाएगा और जो ज़िंदा रह जाएगा , वह तुम्हारी गर्दनों का मालिक होगा " 
ज़ाहिर है कोई भी हुक्मरान अपना आबाई दीन को तर्क कर के मुसलमान तो हो नहीं जाएगा।
और न थाली में सजाकर उन्हें जज़िया देने लगेगा . यह दोनों कम तो लूट मार के बाद ही हुवा करते थे।
इस तरह दुन्या में फैला इस्लाम जिसे कि आज कोर दबने पर इस्लामी आलिमान सैकुलर क़दरों का सहारा ले रहे हैं।
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जीम. मोमिन 

Tuesday 19 February 2013

Hadeesi Hadse 73


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बुख़ारी 1280 
अबू जेहल का खात्मः

जंग ए बदर में दो अंसारी नव जवानों ने सहाबी अब्दुर रहमान से दरयाफ्त किया कि क्या वह अबू जेहल को पहचानते हैं ? अब्दुर रहमान ने कहा हाँ !नव जवानों ने कहा जब वह दिखें तो हमें बतला देना। कुछ देर बाद अबू जेहल जब उन्हें दिखे तो उन्होंने ने उन नव जवानों को इशारा करके बतला दिया। वह दोनों आनन् फानन में अबू जेहल के पास पहुँचे और उनका काम तमाम कर दिया और इस खबर को जाकर मुहम्मद को दी।
मुहम्मद ने दोनों नव जवानों से पूछा कि तुम में से किसने क़त्ल किया ? दोनों ने अपना अपना दावा पेश किया . मुहम्मद ने दरयाफ्त किया कि क्या तुमने अपनी तलवारों का खून साफ़ किया ? जवाब था नहीं . जब तलवारें देखी गईं तो सच पाई गईं। 
मुहम्मद ने इनाम के तौर पर दोनों नव जवानों को मकतूल का घोडा और साज़ ओ सामान दे दिया।
* वाज़ह हो कि अबू जेहल मुहम्मद के सगे चचा थे और क़बीला ए कुरैश के सरदार थे। उन्हों ने हमेशा मुहम्मद की मुख़ालिफ़त की और अपने क़बीले को इस्लाम न कुबूल करने दिया, हत्ता कि मुहम्मद के सर परस्त चचा अबी तालिब को भी इससे बअज़ रखा। 
"उनका नाम "अबू जेहल", जिसके मअनी होते हैं " जेहालत की अवलाद " यह इस्लाम का बख्श हुवा नाम है जो इतना बोला गया कि झूट सच हो गया।"
 इनका असली नाम "उमरू बिन हुश्शाम " था।
मुर्दा उमरू बिन हुश्शाम की दाढ़ी पकड़ के मुहम्म्द लाश से गुफ्तुगू करते हैं और अपनी बरतरीबयान करते है, फिर लाश को बदर के कुएँ में फिकवा देते हैं।
 मुहम्मद के इस कुफ्र को मुसलमानों को ओलिमा नहीं देखने और समझने देते।

मुस्लिम - - - किताबुल हुदूद 

 मख़ज़ूमी क़बीले की एक ख़ातून को मुहम्मद ने चोरी के जुर्म में पकड़ा और ख़ुद उसका हाथ अपने हाथों से क़लम किया।
 इसके लिए लोगों ने काफ़ी कोशिश की कि ख़ातून एक मुअज़ज़िज़ क़बीले की फ़र्द थीं और चोरी बहुत मामूली थी, लोगों ने मुहम्मद के चहीते ओसामा से भी सिफ़ारिश कराई मगर मुहम्मद न म़ाने। 
बोले शरीफ़ को सज़ा न दी जायगी तो रज़ील एतराज़ करेंगे. बरहाल कसाई तबअ मुहम्मद ने उस सिन्फ़ ए नाज़ुक के हाथ कट डाले।
* बड़ा सवाल ये उठता है कि जेहाद के पहाड़ जैसे डाका को वह हक़ बजानिब ठहराते थे और राई जैसी चोरी को बड़ा जुर्म। मुहम्मद को इस जिहादी डाके की सज़ा इनकी सर क़लमी से वसूली जाती, अगर वह किसी डाके में नाकाम होकर गिरफ्तार होते। 


जीम. मोमिन 

Tuesday 12 February 2013

Hadeesi Hadse 72



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मुहम्मद जब पेट में थे, उनके बाप चल बसे, बचपन में ही माँ का इन्तेक़ाल हो गया। इसके बाद दाई हलीमा की सुपुरदगी में बकरियाँ चराने में उनका काफ़ी वक़्त बीता। फिर मुहम्मद अपने घर में अपनी माँ की हबशन लौंडी ऐमन के साथ रहने लगे जो कि उम्र में उनसे कुछ बड़ी थी, इतनी की उनकी पैदाइश पर उनका गू मूत और पोतड़े वही धोती। मुहम्मद के रिश्तेदार तो बहुतेरे थे, सगे दादा, कई एक चचा भी थे, मगर यतीम का कोई पुरसान ए हाल न था। झूठे ओलिमा इनके दादा और चाचाओं की दास्तानें बघारते हैं। साबित यह होता है कि वह मक्का के लोगों की बकरियां चरा कर अपना और ऐमन का गुज़ारा करते। पचीस साल की उम्र तक उनकी ज़िन्दगी की कोई क़ाबिल ए ज़िक्र हल-चल नहीं मिलती। 
मुहम्मद के मिज़ाज को देखते हुए यह बात यकीन के साथ कही जा सकती है कि सिने बलूग़त आते आते इनका जिस्मानी तअल्लुक़ ऐमन के साथ हो चुका था। उस वक़्त यह बात कोई मायूब भी नहीं मानी जाती थी।
खादीजः ने जब मुहम्मद के सामने निकाह की पेश कश रखी तो मुहम्मद को कोई एतराज़ न हुआ, हांलाकि वह उम्र में उनसे पंद्रह साल बड़ी थीं, मगर मालदार थीं। मुहम्मद ने घर जंवाई बनना भी ठीक जाना। वह साथ में अपनी लौड़ी को भी ले गए।
इसी दरमियाँ ऐमन हामलाः हो गई, खदीजः के मशविरे पर मुहम्मद ने फ़ौरन इसकी शादी की बात मान ली। ग़ुलाम ज़ैद उनकी गुलामी में था ही, उसे ऐमन का शौहर बना दिया, गोकि उसकी उम्र अभी बारह साल की ही थी, वह जिन्सियात से वाक़िफ़ भी नहीं था कि एक अदद बच्चे का बाप बन गया। लौंडी और ग़ुलाम की मजाल ही क्या थी कि शादी से इनकार कर देते। ज़ैद मशहूर हदीस गो ओसामा का बाप कहलाया, जो कि दर अस्ल मुहम्मद का बेटा था। मुहम्मद ने इसे हर जगह फ़ौक़ियत भी दी।
इसी ज़ैद बिन हारसा की दूसरी कहानी शुरू हुई जब मुहम्मद ने इसकी दूसरी शादी अपनी रखैल जैनब से की। 
किसी इस्लामी मुवर्रिख की मजाल नहीं की इस सच्चाई को क़लम 
ज़द कर सके। 


बुख़ारी 1253
अली का इल्म 
"किसी सहाबी ने अली से दरयाफ्त किया कि आप को कुछ ऐसे एहकाम भी  मालूम हैं जो क़ुरआन से हट कर हों ?
अली ने क़सम खाकर कहा मुझे क़ुरआन के एहकाम के सिवा कोई चीज़ मालूम नहीं या एक सहीफ़ह है जिस में तहरीर है कि कोई मुसलमान किसी काफ़िर के क़स्सास  में क़त्ल नहीं होगा ."
*शिया हजरात आम मुसलमानों से ज्यादह तालीम याफ्ता होते हैं। इनको अक्सर तकरीरों में सुनने का मौकाः मिला, कमबख्त ज़मीन और आसमान का कुलाबह मिला देते हैं। अपने ताजिराना बयान में यह लोग तमाम इंसानी क़द्रें पंजातन, मुहम्मद , फातमा , अली , हसन और हुसैन में पिरो देते हैं। यहाँ पर अली खुद तस्लीम करते हैं कि उनका इल्म कितना था। यही सोलह आना सहिह है।
 बचपन से ही अली मुहम्मद पिछ लग्गू रहे। अली के वालदैन ने उनको मुहम्मद के किफ़ालत में दे दिया था, जिनका इल्म से कोई वास्ता नहीं था . जवान होते ही अली ज़ुल्म और गारत गरी में मुब्तिला हो गए। नतीजतन मुहम्मद के आखरत के बाद से लेकर अपनी आखरत तक वह घिनावनी सियासत में पड़े रहे। पढने पढाने का मौकाः की कब मिला ? इनको तो शिया पीटों ने आलिम ओ फ़ाज़िल बना रख्खा है .

बुखारी 1257
मुहम्मदी अल्लाह काना नहीं है 
"मुहम्मद ने कहा तुमको  दज्जाल से डराता हूँ . अगर्च कि हर एक नबी ने इससे अपनी उम्मत को डराया है, हत्ता कि नूह अलैहिस्सलाम ने भी अपनी उम्मत को डराया था , लेकिन मैं तुमको एक ज़ायद बात बतलाता हूँ कि दज्जाल काना होगा , अल्लाह ताला काना नहीं।"
*अल्लाह काना नहीं, यानी उसकी दोनों आँखें सहीह सलामत हैं, किसी ने उसकी एक आँख को फोड़ा नहीं, न ही उसको मोतिया बिन्द हुवा।
अल्लाह की आँखें हैं तो कान  नाक मुंह हाथ पैर सभी अज्ज़ा होंगे औए आज़ा ए तानासुल भी . कभी अंगडाई भी आती होगी और अपनी तरह किसी तनहा जिन्स  ए मुखालिफ को तलाश करता होगा . बकौल फैज़ - - -

मुहम्मद ने अपने अल्लाह के साथ बद तमीज़ी की है। कोई मदक्ची ही इस किस्म की बातें करता है। अगर उनका अल्लाह काना, लूला, लंगड़ा या बहरा होता तो बात बतलाने की होती, अल्लाह ऐबदार है।
मुहम्मद ने अपनी उम्मत को एक लक़ब बख्शा है कि एक आँख की खराबी वाले इंसान को ज़रा सी बात पर काना दज्जाल सुनने की ज़िल्लत उठानी पड़ती है। 

बुखारी 1276
"मुहम्मद फ़रमाते हैं कि एक नबी ने बस्ती के लोगों से जिहाद में शिरकत का एलान किया , मगर उन लोगों को रोका जिनकी शादी हुई हो और सुहागरात न मनी हो। उनको भी जिनके मकानों  की छत पड़ना बाकी हो, और उनको भी जिन की बकरियां और ऊंटनीयाँ  बियाई न हों। 
ग़रज़ बाकी लोग जिहाद के लिए निकल पड़े। अस्र के वक़्त उस गाँव के नज़दीक पहुंचे, नबी ने अल्लाह से दरख्वास्त की कि सूरज को कुछ देर के लिए डूबने से रोके ताकि दिन के उजाले में जिहाद की कारगुज़ारी को अंजाम देदें। गोयः सूरज रुक गया और दिन के उजाले में ही लूट पाट से जिहादी फ़ारिग हो गए।
जिहाद में लूट के माल को देख कर वह नबी छनके कि तुम लोगों में से किसी ने ग़नीमत में ख़यानत की है। नबी ने हुक्म दिया कि सब लोग उनके पास आएं और उनके हाथ पर हाथ रख कर सफ़ाई पेश करें। इससे दो चोरों के हाथ नबी के हाथ से चिपक गए . उन दोनों चोरों ने एक गय के सर के बराबर सोना चुरा रखा था। उसके मिलने के बाद ही आग ने ग़नीमत को खाना मंज़ूर किया .
आगे मुहम्मद कहते हैं कि पहले गनीमत खाना हराम था और उसको आग को खिला  दिया जाता था, मगर मेरे जोअफ़ और आजिजी को देख कर अल्लाह ने हमारे लिए गनीमत (लूट पाट का माल )को हलाल कर दिया।"
*इस्लाम से पहले जंगों में लूट पाट नाजायज़ क़रार था, वह भी अवाम को लूटना तो जुर्म हुवा करता था। इसको मुहम्मद ने मुसलमानों के लिए हलाल कर दिया और मकर का सहारा लेकर कहा कि अल्लाह ने मेरी ज़ईफ़ी और आजज़ी को देख सुनकर इसे हलाल कर दिया।
मुहम्मद के बुढ़ापे और कमजोरी पर और उनकी दुआओं पर तरस खाकर अल्लाह ने उनके लूट-पाट को जायज़ कर दिया, ठीक ही किया कि कमज़ोर पर तरस आई, 
मगर उनके बाद उनकी उम्मत को हमेशा के लिए जईफ और कमज़ोर भी कर दिया कि वह हमेशा ग़नीमत खाते रहें। लूट पाट से न मिले तो खैरात ज़कात खाया करें, बासी तिवासी, उगला जूठन को निंगल लिया करें। आज कौम मुहम्मद की दुआओं के असर से दुन्या में खुली आँखों से महरूम और रू सियाह है।
कैसा है मुहम्मदी अल्लाह जो लूट पाट करने के लिए सूरज को डूबने नहीं देता ताकि लुटेरे आराम से मेहनत कशों की बस्ती को लूट सकें, इस लिए कि उनके मेहनत से हासिल किए गए असासे को आग के हवाले कर दिया जाए।
मगर देखिए कि ज़लील पैगम्बरी ने कैसे अपनी ज़ात को चमकाया है? 
अंधे मुसलमानों !
तुमको कौन सा आयना दिखलाया जाए की तुम सही और ग़लत की तमीज़ कर सको। इन हराम के जाने बेज़मीर ओलिमा ने तुम्हें इस्लाम की उलटी तस्वीर को दिखला कर गुमराह किए हुए हैं।
जागो! जागो !! जागो !!!



जीम. मोमिन 


Tuesday 5 February 2013

Hadeesi Hadse 71


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बुख़ारी 1246
मुहम्मदी शगूफ़ा 

"मुहम्मद कहते हैं नबियों में से किसी नबी को चींटी ने काट लिया, उन्हों ने ग़ज़बनाक होकर चींटियों के दल को जला डाला। अल्लाह ने उन पर वहिय भेजी कि एक चींटी ने तुम्हें काटा , तुमने उनके पूरे जत्थे को जला डाला ,वह अल्लाह की तस्बीह कर रही थीं ."

*सिर्फ इंसान अल्लाह की इबादत और भगवानों का भजन करते हैं, कोई दूसरी मख्लूक़ नहीं। उनकी जो भी मौसीकी और संगीत होता है, वह अपने शरीक हयात को रिझाने के लिए , अपने बच्चों को इत्तेला देने के लिए या फिर अपने समूह को संबोधित करने के लिए। अल्लाह कोई हस्ती होती तो सब से पहले मखलूक हमें बाख़बर करती।
मुहम्मद की बातें हमेशा अलौकिक होती हैं जिनका वास्तविक्ता से कोई संबंध नहीं।आम मुसल्मान ऐसे अंध विश्वास को जी रहा है।

 बुख़ारी 1249 + मुस्लिम - - -किताबुल जेहाद 

मुहम्मद कहते हैं धोखे बाज़ी का नाम लड़ाई है। जंग में हीला जायज़ है।

*एक महान आत्मा की बात तो, होना चाहिए कि जंग ही नाजायज़ है मगर मुहम्मद की शररी शख्सियत क्या महान हो सकती है? जंग और इश्क में सब जायज़ है , जैसी भाषा एक पैगम्बर बोले , यह उसका नाजायज़ पैग़ाम है। 
 महान आत्मा , महात्मा गाँधी का पैगाम अहिंसा है, जो कि  एक सच्चा पैगाम।
अज़ीम मुफ़क्किर दाओ कहता है - - -
जो दूसरों को जानता है, वह ज़हीन होता है, जो खुद को पहचानता है, वह आलिम होता है।
जो दूसरों को फ़तह  करता है फ़ातेह होता है, जो खुद को फ़तेह करता है , वह अज़ीम होता है।
हमारे सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम कहाँ जगह पाते हैं ?

बुखारी 1250
जंग ओहद में मुहम्मद की फ़जीहत 

इस हदीस में जंग ए ओहद का मुआमला है, जिसमें मुसलमानों को शिकस्त हुई थी . हदीस तवील है , मुख़्तसर ये कि काफिरों के कमांडर अबु सुफ़ियान ने कैदियों की लश्कर को तीन बार आवाज़ लगाई कि - - -
" मुहम्मद लोगों के दरमियान अगर छुपे हों बहार आकर मेरे सामने हाज़िर हों।"
मुहम्मद को उस वक़्त जंगी क़ानून के मुताबिक बाहर आकर खुद को कमांडर के हवाले कर देना चाहिए था, मगर वह अपना मुंह छिपाए हुए भीड़ में ख़ामोश खड़े रहे । इससे साबित होता है कि वह एक ईमानदार फौजी भी नहीं थे, पैगम्बर होना तो अलग है। वह सज़ा से बच गए , इस लिए कि अबु सुफियान को उम्मीद थी कि कुरैश होने के नाते कुरैश मुहम्मद ऐसी नामर्दी का सुबूत नहीं देंगे।
अबु सुफियान ने एलान किया कि फितने और फसाद की जड़ (मुहम्मद) ख़त्म हुआ, इस तरह जंगे ए बदर का हिसाब चुकता हुवा।

*  काश कि अबु सुफियान 70 मरे हुए कैदियों का फ़रदन फ़रदन शिनाख्त कर लेता और मुहम्मद को जिंदा कैदियों से बहार लाकर उनकी पैगम्बरी का हिसाब लेता और ऐसी इबरत नाक सज़ा देता कि आगे के लिए पैगम्बरी पनाह मांगती और आज की 20% आबादी इस्लामी अज़ाबों में मुब्तिला न होती।
इसी जंग में हुन्दः जिगर खोर ने अपने शौहर के क़ातिल हमज़ा की लाश तलाश करके उसका जिगर निकाल कर कच्चा चबा गई थी।

मुस्लिम - - - किताबुल  

मुहम्मद ने कहा उन चोरों  का हाथ न काटा जाए जिनकी चोरी चौथाई दरहम से कम की हो।

* यानि चवन्नी को चोरी पर हाथ क़लम ! 
वाह !
जिहादी डाके डालने वाले मुहम्मद, किस क़दर अपने समाजी चोरों पर मेहरबान थे .
ज़ालिम मुहम्मद चवन्नी की चोरी पर एक सय्यद ज़ादी के हाथ खुद अपने हाथों से काटे जोकि रिश्ते में उनकी फूफी लगती थीं।
शब खून करबे बस्ती को लूट मार कर तबाह ओ बर्बाद करने वाले का दूसरा रूप था जो आज तक मुहज्ज़ब दुन्या में रायज है।

जीम. मोमिन