बांग ए दरा
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आप मोमनीन को जेहाद की तरगीब दीजिए. अगर तुम में से बीस आदमी साबित क़दम होंगे तो दो सौ पर ग़ालिब आ जाएँगे और अगर तुम में सौ होंगे तो एक हज़ार पर ग़ालिब आ जाएंगे.''
सूरह -इंफाल - ८ नौवाँ परा आयत (६४)
मुहम्मदी अल्लाह अपने रसूल को गणित पढ़ा रहा है, मुसलमान कौम उसका हाफिज़ा करके अपने बिरादरी को अपाहिज बना रही और इन इंसानी खून खराबे की आयातों से अपनी आकबत सजा और संवार रही है, अपने मुर्दों को बख्शुवा रही है, इतना ही नहीं इनके हवाले अपने बच्चों को भी कर रही है. इसी यकीन को लेकर क़ुदरत की बख्शी हुई इस हसीन नेमत को खुद सोज़ बमों के हवाले कर रही है. क्या एक दिन ऐसा भी आ सकता है की मुसलमान इस दुन्या से नापैद हो जाएं जैसा कि खुद रसूल ने एहसासे जुर्म के तहत अपनी हदीसों में पेशीन गोई भी की है.
मुहम्मद अल्लाह के कलाम के मार्फ़त अपने जाल में आए हुए मुसलामानों को इस इतरह उकसाते हैं - - -
''तुम में हिम्मत की कमी है इस लिए अल्लाह ने तख्फीफ (कमी) कर दी है,
सो अगर तुम में के सौ आदमी साबित क़दम रहने वाले होंगे तो वह दो सौ पर ग़ालिब होंगे."
नबी के लायक नहीं की यह इनके कैदी रहें,
जब कि वह ज़मीन पर अच्छी तरह खून रेज़ी न कर लें.
सो तुम दुन्या का माल ओ असबाब चाहते हो और अल्लाह आख़िरत को चाहता है
और अल्लाह तअल बड़े ज़बरदस्त हैं और बड़े हिकमत वाले हैं.''
सूरह -इंफाल - ८ नौवाँ परा आयत (६७)
इसके पहले अल्लाह एक मुसलमान को दस काफिरों पर भारी पड़ने का वादा करता है मगर उसका तखमीना बनियों के हिसाब की तरह कुछ गलत लगा तो अपने रियायत में बखील हो रहा है.
अब वह दो काफिरों पर एक मुसलमान को मुकाबिले में बराबर ठहरता है।
अल्लाह नहीं मल्लाह है नाव खेते खेते हौसले पस्त हो रहे हैं.
इधर संग दिल मुहम्मद को क़ैदी पालना पसंद नहीं,
चाहते है इस ज़मीन पर खूब अच्छी तरह खून रेज़ी हो जाए ,
काफ़िर मरें चाहे मुस्लिम उनकी बला से मरेगे तो इंसान ही जिन के वह दुश्मन हैं,
तबई दुश्मन, फ़ितरी दुश्मन, जो बचें वह गुलाम बचें ज़ेहनी गुलाम और लौंडियाँ.
और वह उनके परवर दिगार बन कर मुस्कुराएँ.
मुहम्मद पुर अमन तो किसी को रहने ही नहीं देना चाहते थे, चाहे वह मुसलमान हो चुके सीधे, टेढ़े लोग हों, चाहे मासूम और ज़हीन काफ़िर.
दुन्या के तमाम मुसलामानों के सामने यह फरेबी क़ुरआन के रसूली फ़रमान मौजूद हैं मगर ज़बाने गैर में जोकि वास्ते तिलावत है.
इस्लाम के मुज्रिमाने-दीन डेढ़ हज़ार साल से इस क़दर झूट का प्रचार कर रहे हैं कि झूट सच ही नहीं बल्कि पवित्र भी हो चुका है,
मगर यह पवित्रता बहर सूरत अंगार पर बिछी हुई राख की परत की तरह है.
अगर मुसलामानों ने आँखें न खोलीं तो वह इसी अंगार में एक रोज़ भस्म हो जाएँगे, उनको अल्लाह की दोज़ख भी नसीब न होगी.
ऊपर की इन आयातों में मुहम्मदी अल्लाह नव मुस्लिम बने लोगों को जेहाद के लिए वर्गलाता है, इनके लिए कोई हद, कोई मंजिल नहीं, बस लड़ते जाओ,
मरो, मारो वास्ते सवाब.
सवाब ?
एक पुर फरेब तसव्वुर, एक कल्पना, एक मफरूज़ा जन्नत, ख्यालों में बसी हूरें और लामतनाही ऐश की ज़िन्दगी जहाँ शराब और शबाब मुफ्त, बीमारी आज़ारी का नमो निशान नहीं.
कौन बेवकूफ इन बातों का यकीन करके इस दुन्या की अजाबी ज़िन्दगी से नजात न चाहेगा?
हर बेवकूफ इस ख्वाब में मुब्तिला है.
मुहम्मद कहते हैं कि पहला हल तो यहीं दुन्या में धरा हुवा है जंग जीते तो ज़न, ज़र, ज़मीन तुम्हारे क़दमों में, हारे,
तो शहीद हुए इस से वहाँ लाख गुना रक्खा है.
अजीब बात है कि खुद मुहम्मद ठाठ बाट की शाही ज़िन्दगी जीना पसंद नहीं करते थे, न महेल, न रानियाँ, पट रानियाँ, न सामाने ऐश.
मरने के बाद विरासत में उनके खाते में बाँटने लायक कुछ खास न था.
वह ऐसे भी नहीं थे कि अवामी फलाह की अहमियत की समझ रखते हों,
कोई शाह राह बनवाई हो,
कुएँ खुदवाए हों,
मुसाफ़िर खाने तामीर कराए हों,
तालीमी इदारे क़ायम किया हो.
यह काम अगर उनकी तहरीक होती तो आज मुसलामानों की सूरत ही कुछ और होती.
मुहम्मद काफिरों, मुशरिकों, यहूदियों, ईसाइयों, आतिश परस्तों और मुल्हिदों के दुश्मन थे, तो मुसलमानों के भी दोस्त न थे.
मामूली इख्तेलाफ़ पर एक लम्हा में वह अपने साथी मुस्लमान को मस्जिद के अन्दर इशारों इशारों में काफ़िर कह देते.
उनके अल्लाह की राह में फिराख दिली से खर्च न करने वाले को जहन्नुमी करार दे देते.
उनकी इस खसलात का असर पूरी कौम पर रोज़े अव्वल से लेकर आज तक है.
उनके मरते ही आपस में मुसलमान ऐसे लड़ मरे की काफिरों को बदला लेने की ज़रुरत ही न पड़ी.
गोकि जेहाद इस्लाम का कोई रुक्न नहीं मगर जेहाद कुरान का फरमान- ए-अज़ीम है जो कि मुसलामानों के घुट्टी में बसा हुवा है. कुरान मुहम्मद की वाणी है जिसमे उन्हों ने उम्मियत की हर अदा से चाल घात के उन पहलुओं को छुआ है जो इंसान को मुतास्सिर कर सकें.
अपनी बातों से मुहम्मद ने ईसा, मूसा बनने की कोशिश की है, बल्कि उनसे भी आगे बढ़ जाने की.
इसके लिए उन्हों ने किसी के साथ समझौता नहीं किया, चाहे सदाक़त हो, चाहे शराफत, चाहे उनके चचा और दादा हों, यहाँ तक की चाहे उनका ज़मीर हो.
अपनी तालीमी खामियों को जानते हुए, अपने खोखले कलाम को मानते हुए, वह अड़े रहे कि खुद को अल्लाह का रसूल तस्लीम कराना है.
मुहम्मद का अनोखा फार्मूला था लूट मार के माल को ''माले गनीमत'' क़रार देना.यानि इज्तेमाई डकैती को ज़रीया मुआश बनाना. बेकारों को रोज़ी मिल गई थी । बाकी दुन्य पर मुसलमान ग़ालिब हो गए थे. आज बाकी दुन्य मिल कर मुसलामानों की घेरा बंदी कर रही है,
तो कोई हैरत की बात नहीं.
मुसलामानों को चाहिए कि वह अपने गरेबान में मुँह डाल कर देखें और तर्क इस्लाम करके मजहबे इंसानियत अपनाएं जो इंसान का असली रंग रूप है। सारे धर्म नकली रंग ओ रोगन में रंगे हुए हैं सिर्फ और सिर्फ इंसानियत ही इंसान का असली धर्म है जो उसके अन्दर खुद से फूटता रहता है.