Wednesday 30 November 2016

बांग-ए-दरा 161


बांग ए दरा 
सूरह -इंफाल - ८ नौवाँ परा आयत ( 48 )

यह है मुसलामानों तुम्हारा क़ुरआन और तुम्हारा दीन जो कि बच्चों को दिल बहलाने के लिए किसी कार्टून फिल्म के किरदार की तरह है. 
क्या इसी पर तुम्हारा ईमान है? 
क्या तुम इस पर कभी शर्मिंदा नहीं होते? 
या तुम को यह सब कुछ बतलाया ही नहीं जाता, 
तुमसे क्यूँ यह बातें छिपाई जाती हैं? 
या फिर तुम हिन्दुओं के देवी देवताओं की पौराणिक कथाओं को जानते हुए इन बातों को उन से बेहतर मानते हो? 
ज़रा सोचो मुहम्मद ने किस समझदार शैतान को तुमको बहकाने के लिए गढ़ा है कि तुम सदियों से उसकी गुमराही में भटकते रहोगे .आँखें खोलो.
उम्मी मुहम्मद गधी मख़लूक़ को समझाते हैं - - - चूँकि शैतान भी अल्लाह से डरता है, इस लिए तुमको भी अल्लाह से डरना चाहिए. और यह मख़लूक़ इस बात को समझ ही नहीं पाती कि बेवकूफ मुहम्मद उससे शैतान की पैरवी करा रहे है. 


hadeesi haadse 438




हदीसी हादसे 
बुख़ारी १४५७+१७५५ 
सकीना बादलों में 
हदीस है की एक साहब सूरह कुहफ की तिलावत कर रहे थे कि उनका घोडा जो करीब बंधा था , बिदकने लगा। उन्हों ने सलाम फेर कर इसकी वजह जाननी चाही तो बादलों में सायाए फुगन मालूम पड़ा . इन साहब ने वाकिए को मुहम्मद से अर्ज़ किया . मुहम्मद ने कहा पढ़ते रहते तो बेहतर होता क्योंकि ये सकीना थीं जो तिलावत ए कुरान के वक़्त नाजिल हुई थीं .
*मुहम्मद बर जश्ता झूट बोलने में कितने माहिर थे , बस मौक़ा मिलने की देर होती . उनकी उम्मत चार क़दम आगे निकल जाती है जब ऐसी हदीसों में सच्चाई तलाश कर लेती है. मुहम्मद रोज़ बरोज़ कामयाबियों के जीने चढ़ते जा रहे हैं , अपने आल औलाद को कन्धों पर लादे . उसी एतबार से मुसलमान पाताल में समाता चला जा रहा 
* हाँ ! वह वक़्त यक़ीनन आने वाला है , बल्कि आ भी गया है . मगर यह बात ग़लत है कि उनको इमाम नहीं मिलते बल्कि इमाम तो इफरात हैं कि हर मुसलमान पर एक की जगह दो दो हैं। यही इमाम इनका खून चूस चूस कर इनको जेहनी तौर पर मुर्दा बनाए हुए हैं .

बुख़ारी १४१७  
मुहम्मद अपनी गवाही के साथ कहते हैं कि जिस शख्स ने सब से पहले सांड छोड़ने की रस्म निकली वह इब्न आमिर खज़ाआ है, मैं ने दोज़ख़ में उसको अपनी आतें घसीट कर चलते देखा .
* इब्न आमिर खज़ाआ अगर पहला शख्स था, सांड को छोड़ने की ईजाद को कायम करने वाला, तो उसका दुन्याए इंसानियत पर एहसान है.अगर नर मवेशी आकता (बधिया) न हुए होते तो तमाम धरती पर जंगल राज होता . 
मुहम्मदी उम्मत को लज़ीज़ गोश्त कहाँ से नसीब होता .
मुहम्मद झूट बोलने में किस कद्र माहिर हो गए थे कि हर जुमला उनका कुछ न कुछ झूट में लिप्त होता . . जनाब जीते जी जन्नत की सैर कर रहे हैं और अपने से पहले मरे लोगों को पहचान कर उनके हालात बयां करते हैं .  
मुसलमान इनकी झूट में जी रहे हैं .


Monday 28 November 2016

बांग-ए-दरा 159




बांग ए दरा 

''इस ने अपनी हिकमत अमली से कभी दुश्मनों को मोमिनों कि लश्कर को कसीर दिखला कर और कभी मोमिनों की हौसलों को बढाने के लिए काफिरों कि फ़ौज को मुख़्तसर दिखलाया .''
सूरह इंफाल - ८ नौवाँ परा आयत ( ४३)
मुहम्मद को अपने अल्लाह से दगाबाजी का काम कराने से भी कोई परहेज़ नहीं करते. 
नादान भोले भाले मुसलमान तो इसकी गहराई में जाते ही नहीं, मगर यह तालीम याफ़्ता मुसलमान इस बात को नज़र अंदाज़ करके कौम को पस्ती में डाले हुए हैं. अगर यह आगे आएँ तो वह इनके पीछे चलने की हिम्मत कर सकते है.
''काफ़िरों को हिम्मत बंधाने वाला शैतान , मुसलमानों के लिए मदद आता देख कर, सर पर पाँव रखकर भागता है, यह कहते हुए कि मैं तो अल्लाह से डरता हूँ.


Sunday 27 November 2016

बांग-ए-दरा 158




बांग ए दरा 

''और जान लो जो शै बतौर गनीमत तुम को हासिल हो तो कुल का पाँचवां हिस्सा अल्लाह और उसके रसूल का है और आप के क़राबत दारों का है और यतीमो का है और गरीबों का है और मुसाफिरों का है, अगर तुम अल्लाह पर यक़ीन रखते हो तो.''
सूरह इंफाल ८ नौवाँ परा आयत ( ३२ - ३९ - ४१)

मैं एक बार फिर अपने पाठकों को बतला दूं कि जंग में लूटे हुए माल को मुहम्मद ने माले गनीमत नाम दिया और इसको ज़रीया मुआश का एक साधन करार दिया.
यह बात पहले लूट मार और डकैती जैसे बुरे नाम से जानी जाती थी जिसको उन्होंने वाहियों के नाटक से अपने ऊपर जायज़ कराया. माले गनीमत के बटवारे का कानून भी अल्लाह बतलाता है ,
वह अपना पांचवां हिस्सा आसमान से उतर कर ले जाता है, उसके बाद यतीमों, गरीबों और मुसफिरून का हिसा कायम करके रसूल अपने यहाँ रखवाते, 
कहीं कोई इदारह ए फलाह ओ बहबूद उनकी ज़िन्दगी में इनके लिए कायम नहीं हुवा. 
खुद अपने मुसाहिबों में तकसीम करके अपनी शान बघारते, 
जो बुनयादी फायदे होते उससे कुरैशियो कि जड़ें मज़बूत होती रहतीं. 
उनकी मौत के बाद ही उनकी सींची हुई बाग़ कुरैशियों के लिए लहलहा उट्ठी, अली हसन, हुसैन और यजीद इस्लामी शहजादे बन कर उभरे. कुछ रद्दे-अमल में क़त्ल हुए और कुछ आज तक फल फूल रहे हैं.
हमें गम है कि हम न अरब हैं, 
हम न कुरैश हैं
और हम न अल्वी न यजीदी हैं, 
हम भारतीय हैं, हम भला इस्लाम कि ज़द में आकर क्यों इसके शिकार बने हुए है?




Saturday 26 November 2016

बांग-ए-दरा 157


बांग-ए-दरा  

''और जब उन लोगों ने कहा ऐ अल्लाह ! अगर यह आप की तरफ से वाकई है तो हम पर आसमान से पत्थर बरसाए या हम पर कोई दर्द नाक अज़ाब नाज़िल कर दीजिए.''
काफ़िरों का बहुत ही जायज़ एहतेजाज था, और मुहम्मद के लिए यह एक चुनौती थी.
''और तुम उन कुफ्फारो से इस हद तक लड़ो की उन्हें फ़सादे अक़ीदत न रहे और दीन अल्लाह का ही क़ायम हो जाए, फिर अगर वह बअज़ आ जाएँ तो अल्लाह उनके अअमाल को खूब देखते हैं.''
ऐसी जिहादी आयतों से कुरआन भरा हुवा है, जिस पर तालिबान जैसे पागल अमल कर रहे है और कुत्तों की मौत मारे जा रहे है.


Friday 25 November 2016

बांग-ए-दरा 156


बांग ए दरा 

''ऐपैगम्बर! 
आप मोमनीन को जेहाद की तरगीब दीजिए. अगर तुम में से बीस आदमी साबित क़दम होंगे तो दो सौ पर ग़ालिब आ जाएँगे और अगर तुम में सौ होंगे तो एक हज़ार पर ग़ालिब आ जाएंगे.''
सूरह -इंफाल - ८ नौवाँ परा आयत (६४)
मुहम्मदी अल्लाह अपने रसूल को गणित पढ़ा रहा है, मुसलमान कौम उसका हाफिज़ा करके अपने बिरादरी को अपाहिज बना रही और इन इंसानी खून खराबे की आयातों से अपनी आकबत सजा और संवार रही है, अपने मुर्दों को बख्शुवा रही है, इतना ही नहीं इनके हवाले अपने बच्चों को भी कर रही है. इसी यकीन को लेकर क़ुदरत की बख्शी हुई इस हसीन नेमत को खुद सोज़ बमों के हवाले कर रही है. क्या एक दिन ऐसा भी आ सकता है की मुसलमान इस दुन्या से नापैद हो जाएं जैसा कि खुद रसूल ने एहसासे जुर्म के तहत अपनी हदीसों में पेशीन गोई भी की है.
मुहम्मद अल्लाह के कलाम के मार्फ़त अपने जाल में आए हुए मुसलामानों को इस इतरह उकसाते हैं - - -
''तुम में हिम्मत की कमी है इस लिए अल्लाह ने तख्फीफ (कमी) कर दी है,
सो अगर तुम में के सौ आदमी साबित क़दम रहने वाले होंगे तो वह दो सौ पर ग़ालिब होंगे."
नबी के लायक नहीं की यह इनके कैदी रहें,
जब कि वह ज़मीन पर अच्छी तरह खून रेज़ी न कर लें.
सो तुम दुन्या का माल ओ असबाब चाहते हो और अल्लाह आख़िरत को चाहता है
और अल्लाह तअल बड़े ज़बरदस्त हैं और बड़े हिकमत वाले हैं.''
सूरह -इंफाल - ८ नौवाँ परा आयत (६७)
इसके पहले अल्लाह एक मुसलमान को दस काफिरों पर भारी पड़ने का वादा करता है मगर उसका तखमीना बनियों के हिसाब की तरह कुछ गलत लगा तो अपने रियायत में बखील हो रहा है.
अब वह दो काफिरों पर एक मुसलमान को मुकाबिले में बराबर ठहरता है।
अल्लाह नहीं मल्लाह है नाव खेते खेते हौसले पस्त हो रहे हैं.
इधर संग दिल मुहम्मद को क़ैदी पालना पसंद नहीं,
चाहते है इस ज़मीन पर खूब अच्छी तरह खून रेज़ी हो जाए ,
काफ़िर मरें चाहे मुस्लिम उनकी बला से मरेगे तो इंसान ही जिन के वह दुश्मन हैं,
तबई दुश्मन, फ़ितरी दुश्मन, जो बचें वह गुलाम बचें ज़ेहनी गुलाम और लौंडियाँ.
और वह उनके परवर दिगार बन कर मुस्कुराएँ.
मुहम्मद पुर अमन तो किसी को रहने ही नहीं देना चाहते थे, चाहे वह मुसलमान हो चुके सीधे, टेढ़े लोग हों, चाहे मासूम और ज़हीन काफ़िर.
दुन्या के तमाम मुसलामानों के सामने यह फरेबी क़ुरआन के रसूली फ़रमान मौजूद हैं मगर ज़बाने गैर में जोकि वास्ते तिलावत है.
इस्लाम के मुज्रिमाने-दीन डेढ़ हज़ार साल से इस क़दर झूट का प्रचार कर रहे हैं कि झूट सच ही नहीं बल्कि पवित्र भी हो चुका है,
मगर यह पवित्रता बहर सूरत अंगार पर बिछी हुई राख की परत की तरह है.
अगर मुसलामानों ने आँखें न खोलीं तो वह इसी अंगार में एक रोज़ भस्म हो जाएँगे, उनको अल्लाह की दोज़ख भी नसीब न होगी.
 
ऊपर की इन आयातों में मुहम्मदी अल्लाह नव मुस्लिम बने लोगों को जेहाद के लिए वर्गलाता है, इनके लिए कोई हद, कोई मंजिल नहीं, बस लड़ते जाओ,
मरो, मारो वास्ते सवाब. 
सवाब ?
एक पुर फरेब तसव्वुर, एक कल्पना, एक मफरूज़ा जन्नत, ख्यालों में बसी हूरें और लामतनाही ऐश की ज़िन्दगी जहाँ शराब और शबाब मुफ्त, बीमारी आज़ारी का नमो निशान नहीं.
कौन बेवकूफ इन बातों का यकीन करके इस दुन्या की अजाबी ज़िन्दगी से नजात न चाहेगा?
हर बेवकूफ इस ख्वाब में मुब्तिला है.
मुहम्मद कहते हैं कि पहला हल तो यहीं दुन्या में धरा हुवा है जंग जीते तो ज़न, ज़र, ज़मीन तुम्हारे क़दमों में, हारे,
तो शहीद हुए इस से वहाँ लाख गुना रक्खा है.
अजीब बात है कि खुद मुहम्मद ठाठ बाट की शाही ज़िन्दगी जीना पसंद नहीं करते थे, न महेल, न रानियाँ, पट रानियाँ, न सामाने ऐश.
मरने के बाद विरासत में उनके खाते में बाँटने लायक कुछ खास न था.
वह ऐसे भी नहीं थे कि अवामी फलाह की अहमियत की समझ रखते हों,
कोई शाह राह बनवाई हो,
कुएँ खुदवाए हों,
मुसाफ़िर खाने तामीर कराए हों,
तालीमी इदारे क़ायम किया हो.
यह काम अगर उनकी तहरीक होती तो आज मुसलामानों की सूरत ही कुछ और होती.
मुहम्मद काफिरों, मुशरिकों, यहूदियों, ईसाइयों, आतिश परस्तों और मुल्हिदों के दुश्मन थे, तो मुसलमानों के भी दोस्त न थे.
मामूली इख्तेलाफ़ पर एक लम्हा में वह अपने साथी मुस्लमान को मस्जिद के अन्दर इशारों इशारों में काफ़िर कह देते.
उनके अल्लाह की राह में फिराख दिली से खर्च न करने वाले को जहन्नुमी करार दे देते.
उनकी इस खसलात का असर पूरी कौम पर रोज़े अव्वल से लेकर आज तक है.
उनके मरते ही आपस में मुसलमान ऐसे लड़ मरे की काफिरों को बदला लेने की ज़रुरत ही न पड़ी.
गोकि जेहाद इस्लाम का कोई रुक्न नहीं मगर जेहाद कुरान का फरमान- ए-अज़ीम है जो कि मुसलामानों के घुट्टी में बसा हुवा है. कुरान मुहम्मद की वाणी है जिसमे उन्हों ने उम्मियत की हर अदा से चाल घात के उन पहलुओं को छुआ है जो इंसान को मुतास्सिर कर सकें.
अपनी बातों से मुहम्मद ने ईसा, मूसा बनने की कोशिश की है, बल्कि उनसे भी आगे बढ़ जाने की.
इसके लिए उन्हों ने किसी के साथ समझौता नहीं किया, चाहे सदाक़त हो, चाहे शराफत, चाहे उनके चचा और दादा हों, यहाँ तक की चाहे उनका ज़मीर हो.
अपनी तालीमी खामियों को जानते हुए, अपने खोखले कलाम को मानते हुए, वह अड़े रहे कि खुद को अल्लाह का रसूल तस्लीम कराना है.
मुहम्मद का अनोखा फार्मूला था लूट मार के माल को ''माले गनीमत'' क़रार देना.यानि इज्तेमाई डकैती को ज़रीया मुआश बनाना. बेकारों को रोज़ी मिल गई थी । बाकी दुन्य पर मुसलमान ग़ालिब हो गए थे. आज बाकी दुन्य मिल कर मुसलामानों की घेरा बंदी कर रही है,
तो कोई हैरत की बात नहीं.
मुसलामानों को चाहिए कि वह अपने गरेबान में मुँह डाल कर देखें और तर्क इस्लाम करके मजहबे इंसानियत अपनाएं जो इंसान का असली रंग रूप है। सारे धर्म नकली रंग ओ रोगन में रंगे हुए हैं सिर्फ और सिर्फ इंसानियत ही इंसान का असली धर्म है जो उसके अन्दर खुद से फूटता रहता है.



Thursday 24 November 2016

बांग-ए-दरा 155


बांग ए दरा 

''वह वही है जिसने आप को अपनी इमदाद से और मुसलामानों से कूवत दी और इनके दिलों में इत्तेफाक पैदा कर दिया. अगर आप दुन्या भर की दौलत खर्च करते तो इन के कुलूब में इत्तेफाक पैदा न कर पाते. लेकिन अल्लाह ने ही इन के दिलों में इत्तेफाक पैदा कर दिया. बेशक वह ज़बरदस्त है और हिकमत वाला है.''
सूरह -इंफाल - ८ नौवाँ परा आयत (६३)

इंसान अपनी फितरत में लालची होता है और अगर पेट की रोटी किसी अमल से जुड़ जाए तो वह अमल जायज़ लगने लगता है, जब कोई पैगंबर बन कर इसकी ताईद करे तो फिर इस अमल में सवाब भी नज़र आने लगता है. यही पेट की रोटी भुखमरे अरबी मुसलामानों में इत्तेहाद और इत्तेफाक पैदा करती है जिसे अल्लाह की इनायत मनवाया जा रहा है। मुहम्मद अपनी ज़ेहानते-बेजा की पकड़ को अल्लाह की हिकमत क़रार दे रहे हैं. जंगी तय्यारियों से इंसानी सरों को तन से जुदा करने की साज़िश को अपने अल्लाह की मर्ज़ी बतला रहे हैं.



Wednesday 23 November 2016

hadeesi Hadse 437


हदीसी हादसे 

बुखारी १४२९ 
मुहम्मद की हुलया 
हसन बिन मालिक मुहम्मद की हुलया कुछ इस तरह बयान करते हैं - - -
क़द दरमियाना , न ज्यादा लम्बे , न पास्ता क़द ,
रंग चमकदार , न ज़्यादः गंदुमी न ज़्यादः सफेद ,
बाल न ज़्यादः सीधे , न ज़्यादः खमदार ,
जिस वक़्त वफात पाई थी , सर और रीश में गिनती के सफेद बाल थे 
* वह गवाह जिसने मुलजिम को देखा नहीं और अदालत में खड़ा अकली गद्दा मार रहा है .
आज कल नातिया शायर इस गवाह से हज़ार गुना आगे बढ़ कर मुहम्मद की गवाही अपने कलाम में दे रहे है. 
मुस्लिम - - - किताबुल शर्बतः 
मुहम्मद कहते हैं कि कोई तुम में से खाना खाए तो अपने हाथ न पोछे , जब तक कि इसको चाट न ले या चटवा न ले , अपनी बीवी बच्चे या लौड़ी से जो बुरा न माने बल्कि खुश हो .
दूसरी जगह है कि खाने के बाद अपनी उँगलियाँ और रिकाबियाँ चाट कर साफ़ करना चाहिए . अगर नवाला गिर गया हो और जगह नजिस न हो तो कूड़ा करकट साफ़ करके इसे खा लेना चाहिए .शैतान के लिए नहीं छोड़ना चाहिए .
*आज की इस मुहज्ज़ब दुनिया में इस ग़ैर मुहज्ज़ब शरअ और कबीलाई तौर तरीके के लोग पाए जाते हैं जो औरों के साथ बैठ कर इस घिनावने तरीके पर अमल करते है जिसको मेडिकल साइंस इजाज़त नहीं देती है . 
शैतान के वजूद को तस्लीम करने वाला पैगम्बर उसे भूकों मारने के मशविरे अपनी उम्मत को देता है जिस में ज़ुल्म और जब्र का सीगा छिपा हुवा है ,

बुख़ारी १४३९ आयशा अपने शौहर की सफाई में कहती हैं कि मुहम्मद ज़ाती बिना पर किसी से बदला नहीं लेते थे , मगर खुदाए बरतर के हुक्म में अगर कोताही हुई तो बदला ज़रूर लेते थे. 
* बे शुमार वाकिए हैं कि मुहम्मद जाती मामलों में बदतरीन इन्तेकाम लेते थे मगर मामलों को अल्लाह का मामला साबित करने में अल्लाह बने मुहम्मद को कितनी देर लगती थी . दरपर्दा वह खुद को अल्लाह ही समझते थे. 
दूसरी बात यह कि मुहम्मदी अल्लाह क्या इतना कमज़ोर है कि वह खुद अपना बदला नहीं ले पाता ? कोई अहमक ही अल्लाह का बदला लेगा .
ऐसी गुमराही में मुसलमान ही लगा हुवा है .
बुख़ारी १४५१ 
कुरैश परवर 
मुहम्मद ने कहा कुरैश का यह क़बीला हम लोगों को हालाक कर देगा . लोगों ने कहा या रसूल अल्लाह ! ऐसे वक़्त में हम लोगों के लिए क्या हुक्म है ? मुहम्मद ने कहा काश ऐसे वक़्त में लोग उनसे परहेज़ करें तो बेहतर है .
* मुहम्मद ने अपने कबीले कुरैश के लिए तो ही सारे पापड़ बेले थे और वही पामाल हो जाएं तो ? उनको कुरैश की बद ख्वाही किसी हालत में गवारा नहीं . इनके लिए वह खुद को और अपनी उम्मत को कुर्बान कर सकते थे . 
यही नहीं अगली हदीस १४५२ में वह यहाँ तक कहते हैं कि मेरी उम्मत चंद कुरैश लड़कों के हाथों हलाह होगी , मैं चाहूं तो उनकी वल्दियत बतला सकताहूं .
कुरैश और अरबी क़बीलों की लड़ाई में हम हिदुस्तानी मुब्तिला हैं , यह हैरत का मक़ाम है .




बांग-ए-दरा 154




बांग ए दरा

''और काफ़िर लोग अपने को ख़याल न करें कि वह बच गए. यकीनन वह लोग आजिज़ नहीं कर सकते.''
सूरह -इंफाल - ८ नौवाँ परा आयत ( ५९)
कूवत वाला अल्लाह, मेराकी शौहर की बीवी की तरह आजिज़ भी होता है ?
क्या क्या खसलतें मुहम्मद ने अपने अल्लाह में पैदा कर रखी है.
वह कमज़ोर, बीमार और चिडचिड़े बन्दों की तरह आजिजो-बेज़ार भी होता है ,
वह अय्यारो-मक्कार की तरह चालों पर चालें चलने वाला भी है,
वह कल्बे सियाह की तरह मुन्तकिम भी है, वह चुगल खोर भी है,
अपने नबी की बीवियों की बातें इधर की उधर, नबी के कान में भर के मियाँ बीवी में निफाक भी डालता है.
कभी झूट और कभी वादा खिलाफी भी करता है.
आगे आगे देखते जाइए मुहम्मदी अल्लाह की खसलतें.
यह किरदार खुद मुहम्मद के किरदार की आइना दार हैं तरीख इस्लाम इसकी गवाह है,
जिसकी उलटी तस्वीर यह इस्लामी मुसन्नाफीन और उलिमा आप को दिखला कर गुमराह किए हुए हैं.
आप इनकी तहरीरों पर भरोसा करके पामाल हुए जा रहे हैं तब भी आप को होश नहीं आ रहा. लिल्लाह अपनी नस्लों पर रहम खइए।


Monday 21 November 2016

बांग-ए-दरा 153




बांग ए दरा 
2x2 =५
अपने पाठकों को एक बार फिर मैं यकीन दिला दूं कि मैं उसी तबके का जगा हुआ फर्द हूँ जिसके आप हैं. मुझको आप पर तरस के साथ साथ हँसी भी आती है, जब आप हमें झूठा लिखते हैं, जिसका मतलब है आप खुद तस्लीम कर रहे हैं कि आपका अल्लाह और उसका रसूल झूठ है, क्यूँकि मैं तो मशहूर आलिम मौलाना शौकत अली थानवी के क़ुरआनी तर्जुमे को और इमाम बुखारी की हदीस को ही नक्ल करता हूँ और अपने मशविरे में आस्था नहीं अक्ले-सलीम रखता हूँ. मैं मुसलामानों का सच्चा हमदर्द हूँ. दीगर धर्मों में इस्लाम से बद तर बाते हैं, हुआ करें, उनमें इस्लाह-ए- मुआशरा हो रहा है, इसकी ज़रुरत मुसलामानों को खास कर है। अगर आप अकीदे की फ़र्सूदा राह तर्क करके इंसानियत की ठोस सड़क पर आ जाएँ तो, दूसरे भी आप की पैरवी में आप के पीछे और आपके साथ होंगे।
 
चलिए अब अल्लाह की राह पर जहाँ वह मुसलमानों को पहाड़े पढ़ा रहा है 2x2 =५
देखिए कि इंसानी सरों को उनके तनों से जुदा करने के क्या क्या फ़ायदे हैं -
 
''बिला शुबहा बद तरीन खलायाक अल्लाह तअला के नज़दीक ये काफ़िर लोग हैं, तो ईमान न लाएंगे''
सूरह -इंफाल - ८ नौवाँ परा आयत ( ५५)
और खूब तरीन मोमिन हो जाएँ अगर ईमान लाकर तुम्हारे साथ तुम्हारे गढ़े हुए अल्लाह की राह पर खून खराबा के लिए चल पड़ें. जेहालत की राह पर अपनी नस्लों को छोड़ कर मुहम्मदुर रसूलिल्लाह कहते हुए इस से बेहोशी के आलम में रुखसत हो जाएँ.



Friday 18 November 2016

बांग-ए-दरा 151


बांग ए दरा 

बहुत सी अच्छी बातें, बहुत ही पहले कही गई हैं

"कुरान में कीडे निकलना भर मेरा मकसद नहीं है बहुत सी अच्छी बातें हैं, इस पर मेरी नज़र क्यूँ नहीं जाती?" 
अक्सर ऐसे सवाल आप की नज़र के सामने मेरे खिलाफ मिलते होंगे. 
बहुत सी अच्छी बातें, बहुत ही पहले कही गई हैं, एक से एक अज़ीम हस्तियां और नज़रियात इसलाम से पहले इस ज़मीन पर आ चुकी हैं जिसे कि कुरानी अल्लाह तसव्वुर भी नहीं कर सकता. 
अच्छी और सच्ची बातें फितरी होती हैं जिनहें आलमीं सचचाइयाँ भी कह सकते हैं. कुरान में कोई एक बात भी इसकी अपनी सच्चाई या इन्फरादी सदाक़त नहीं है. हजारों 
बकवास और झूट के बीच अगर किसी का कोई सच आ गया हो तो उसको कुरान का नहीं कहा जा सकता,
"माँ बाप की खिदमत करो" 
अगर कुरान कहता है तो इसकी अमली मिसाल श्रवण कुमार इस्लाम से सदियों पहले क़ायम कर चुका है. 
मौलाना कूप मंदूकों का मुतालिआ कुरान तक सीमित है इस लिए उनको हर बात कुरान में नज़र आती है. यही हाल अशिक्षित मुसलमानों का है. 


क़ुरान की एक आयत मुलाहिज़ा हो 
''अल्लाह की आयातों को झुटलाने वाले लोग कभी भी जन्नत में न जावेंगे जब तक कि ऊँट सूई के नाके से न निकल जाए.''
अलएराफ़ ७ -आठवाँ पारा आयत (४०)
''ऊँट सूई के नाके से निकल सकता है मगर दौलत मंद जन्नत में कभी दाखिल नहीं हो सकता''
ईसा की नकल में मुहम्मद की कितनी फूहड़ मिसाल है जहाँ अक्ल का कोई नामो निशान नहीं है. शर्म तुम को मगर नहीं आती. 
मुसलमानों तुम ही अपने अन्दर थोड़ी गैरत लाओ.
ईसा कहता है - - -
''ऐ अंधे दीनी रहनुमाओं! तुम ढोंगी हो, मच्छर को तो छान कर पीते हो और ऊँट को निगल जाते हो.'' 
मुवाज़ना करें मुस्लिम अपने कठमुल्ल्ले सललललाहो अलैहे वसल्लम को शराब में तुन रहने वाले ईसा से. 


हदीसी हादसे ४३६




हदीसी हादसे 

बुख़ारी १४०२ 
मुहम्मद कहते हैं 
"एक शख्स अपनी तहबन्द लुथड़ाते हुए ज़मीन पर चल रहा था . अल्लाह तअला ने उसे ज़मीन में धंसा दिया .क़यामत तक यूँ ही वह ज़मीं में धंसता रहेगा ."  
* मुल्ला अपने रसूल की बात को इस तरह साबित करते हैं कि अगर यकीन न हो तो कानों में उंगलियाँ ठूंस कर उस की धँसने की आवाज़ को सुन सकते हो. 
पिछली हदीसों में था कि कुरता ज़मीन पर लुथड़े तो जन्नती होने की अलामत है . मुहम्मद की कठ बैठियों में भी कोई ताल मेल नहीं . जो उनके मुंह से निकला, वह मुसलमानों के लिए हदीस शरीफ हो गया .आज कल मुल्लाओं की हुलिया इसी हदीस के असर में देखी जा सकती है . ज़माने से अलग कार्टून नुमा .

मुस्लिम - - -किताबुल अश्रबता 
मुहम्मद कहते हैं जब रात की तारीकी छा जाए तो बच्चों को घर से बाहर नहीं निकलने देना चाहिए , क्योंकि शैतान इस वक़्त फ़ैल निकलते हैं , फिर जब एक घडी रात गुज़र जाए तो  इनको छोड़ दो और दरवाज़ा बंद कर दो और अल्लाह तअला का नाम लो , इस लिए कि शैतान बंद दरवाजे नहीं खोलता और अपनी मुश्कों पर डाट लगा दो और अल्लाह का नाम लो . अगर कुछ बर्तन ढकने को न मिले तो इस आड़ा कर के कुछ रख दो . अपने चरागों को बुझा दो .
* यह हिदायत उस ज़माने के तौर तरीके रहे होंगे , मगर क्या इस ज़माने के लिए यह बातें निसाब ए हयात बनाई  जा सकती है ? उस वक़्त भी जगे हुए लोग थे जिनकी पैरवी हुवा करती थी और लाखैरे भी थे जिनके सरदार मुहम्मद थे , उनकी उम्मत आज तक उनकी पैरवी करती चली आ रही है .
बुख़ारी १४०७ 
ख़िलाफ़त कुरैश के लिए 
मुहम्मद कहते है 
"जब तक कुरैश में से दो लोग भी बाकी बचेंगे , ख़िलाफ़त कुरैश के हाथों में ही होगी "
** सच पूछिए तो इस्लाम की रूह में मुहम्मद का ख्वाब अपने क़बीले को सरफ़राज़ करने तक महदूद था . वाक़िया है कि मुहम्मद ने सबसे पहले बनी हाशिम को इकठ्ठा करके दरपर्दा मीटिंग की थी और कहा था कि
" तुम लोग मुझे पैगम्बर तस्लीम कर लो तो मेरे लिए आसान हो जाएगा की मैं रसूल अल्लाह बन जाऊं , मैं अगर अपने मंसूबे में कामयाब हुवा तो इसका फ़ायदा तमाम कुनबे को मिलेगा और अगर नाकाम रहा तो नुकसान सिर्फ मेरा होगा की मार दिया जाऊँगा । 
मेरी कामयाबी पर बनी हाशिम क़ुरैश में बरतर होंगे , क़ुरैश अहले अरब में बरतर होगे , अरब पूरी दुन्या में बरतर होगा और मक्का दुन्या का मरकज़ बन जाएगा और काबा दुन्या की इबादत गाह . इससे अहले मक्का क़यामत तक फ़ैज़याब होते रहेंगे . "
बनी हाशिम ने मुहम्मद की तजवीज़ को ठुकरा दिया और आजके मुसलमानों की तरह ही अपने आबाई दीन पर कायम रहने की क़सम खाई . मुहम्मद की उलटी फ़ज़ीहत हुई , लोगों में उनके लिए नफ़रत का बाब खुल गया .
जब यह हरबा मुहम्मद का कामयाब न हुवा तो अपनी बीवी खदीजा को लेकर मक्र की राह चुनी . ग़ार हिरा में बैठ कर मंसूबा बंदी करते और खुद पर वाहियों (ईश वाणी ) का खेल खेलना शरू किया .
क़ुरैश ही थे जिन्होंने इनकी भरपूर मुखालिफत की थी , कामयाबी के बाद मुहम्मद उनको नवाज़ रहे हैं की उनकी विरासत उनके खानदान में ही रहे .
हम लोग कुरैशियों के जेहनी गुलाम है . अफ़सोस कि कल के वहशी , लड़ाके और जाहिल क़बीले की गुलामी को हम ओढ़ बिछा रहे है. 


बुख़ारी १ ३ ९४ 
मुख़ालिफ़त बराय मुख़ालिफ़त 
मुहम्मद कहते हैं कि यहूदी और ईसाई अपने बाल को रंगीन नहीं करते , तुम लोग इनकी मुख़ालिफ़त में अपनी दाढ़ियों को रंगीन किया करो .
* यह मुमकिन होता तो मुहम्मद मुसलामानों को मुख़ालिफ़त के बिना पर पैर के बजाए हाथों से चलने की राय देते. मुसलमान अकसर भडुओं की तरह अपने बालों और दाढ़ियों को सुनहरे खिजाब में रंगे रहते है
मुस्लिम - - - किताबुल अक़्फ़िया 
मरदूद अवाम 
आयशा कहती है की उसके पैग़म्बर शौहर ने कहा ,
"जो शख्स ऐसा काम करे जिसके लिए मेरा हुक्म न हो , वह मरदूद है ."
किस कद्र हौसले बढ़ गए थे उस शख्स के कि आलम ए इंसान को अपनी ज़ेहनी गुलामी में कर लेना चाहता था . वह भी अपनी जिहालत और जारहय्यत के ज़ेर ए असर लाकर . इंसानी गैरत को कुचल डालने वाले नाक़्बत अंदेश को तारीख़ जितनी भी बड़ी सज़ा दे कम है. 
मुहम्मद को तो ज़िन्दगी में जज़ा ही जज़ा मिली , सज़ा तो उनको मिली जो इनके झांसे में आए . पहले भी मार खा खा कर मुसलमान हुए और अब मुसलमान होने के नाते सारे ज़माने की मार खा रहे हैं . 



बांग-ए-दरा 149



बांग ए दरा 

रुस्वाए ज़माना (सूरह ताहा)

बहुत से लक़बों (उपाधियों) के साथ साथ तथा-कथित पैगम्बर मुहम्मद का एक लक़ब उम्मी भी है जिसके के लफ़्ज़ी मानी होते हैं अनपढ़ और जाहिल. ये लफ्ज़ किसी फर्द को नफ़ी (न्यूनता की परिधि)में ले जाता है मगर बात मुहम्मद की है तो बात कुछ और ही हो जाती है. इस तरह उनके तुफैल में उम्मी शब्द पवित्र और मुक़द्दस हो जाता है. ये इस्लाम का खास्सा है. इस्लामी इस्तेलाह (परिभाषा) में कई लफ्जों आलिमों के साजिशो से अस्ल मानी कुछ के कुछ हो गए हैं जिसे आगे आप देखेंगे. मुहम्मद निरे उम्मी थे, मुतलक जाहिल. क़ुरआन उम्मी, अनपढ़ और अकली तौर पर उजड, मुहम्मद का ही कलाम (वचन) है जिसे उनके गढे हुए अल्लाह का कलाम कहा जाता है. इसको कुराने-हकीम कहा जाता है यानी हिकमत से भरी हुई बातें.
क़ुरआन के बड़े बड़े हयूले बनाए गए, बड़ी बड़ी मर्यादाएं रची गईं, ऊंची ऊंची मीनारें कायम की गईं, इसे विज्ञान का का जामा पहनाया गया, तो कहीं पर रहस्यों का दफीना साबित किया गया है. यह कहीं पर अजमतों का निशान बतलाया गया है तो कहीं पर जन्नत की कुंजी है और हर सूरत में नजात (मुक्ति) का रास्ता, निजामे हयात (जीवन विद्या) तो हर अदना पदना मुसलमान इसे कह कर फूले नहीं समाता, गोकि दिनोरात मुस्लमान इन्हीं क़ुरानी आयतों की गुमराही में मुब्तितिला, पस्पाइयों में समाता चला जा रहा है. आम मुसलमान क़ुरआन को अज़ खुद कभी समझने की कोशिश नहीं करता, उसे हमेशा अपनी माँओं के खसम ओलिमा (धर्म गुरु) ही समझाते हैं.
इस्लाम क्या है? इसकी बरकत क्या है? छोटे से लेकर बड़े तक सारे मुसलमान ही दानिस्ता और गैर दानिस्ता तौर पर इस के झूठे और खोखले फायदे और बरकतों से जुड़े हुए हैं. सच पूछिए तो कुछ मुट्ठी भर अय्यार और बेज़मीर मुसलमानों का सब से बड़ा ज़रीया मुआश (भरण पोषण) इस्लाम है जो कि मेहनत कश इसी तबके के अवाम पर मुनहसर करता है यानी बाकी कौमों से बचने के बाद खुद मुसलमान मुसलमानों का इस्तेह्सल (शोषण) करते हैं. दर अस्ल यही मज़हब फरोशों का तबका, गरीब मुसलामानों का ख़ुद दोहन करता है और दूसरों से भी इस्तेह्साल कराता है. वह इनको इस्लामी जेहालत के दायरे से बहार ही निकलने नहीं देता.
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Tuesday 15 November 2016

बांग-ए-दरा 148


बांग ए दरा 

सदाक़त की चिंगारी 
आज क़ुरआनी बातों से क्या एक दस साल के लड़के को भी बहलाया जा सकता है?
मगर मुसलमानों का सानेहा है कि एक जवान से लेकर बूढ़े तक इसकी आयतों पर ईमान रखते हैं. वह झूट को झूट और सच को सच मान कर अपना ईमान कमज़ोर नहीं करना चाहते, 
वह कभी कभी माहौल और समाज को निभाने के लिए मुसलमान बने रहते है. 
वह इन्हीं हालत में ज़िन्दगी बसर कर देना चाहते है. 
ये समझौत इनकी खुद गरजी है , वह अपने नस्लों के साथ गुनाह कर रहे है, 
इतना भी नहीं समझ पाते. इनमें बस ज़रा सा सदाक़त की चिंगारी लगाने की ज़रुरत है. 
फिर झूट के बने इस फूस के महल में ऐसी आग लगेगी 
कि अल्लाह का जहन्नुम जल कर ख़ाक हो जाएगा.
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हुकूमत अल्लाह की
मुहम्मद अल्लाह की ज़बान से कहते हैं 
"उस दिन तमाम तर हुकूमत अल्लाह की होगी"
आज कायनात की तमाम तर हुकूमत किसकी है? 
क्या अल्लाह इसे शैतान के हवाले करके सो रहा है?
नमाज़ियो !
मुहम्मद की वज़अ करदा मन्दर्जा बाला इबारत बार बार ज़बान ए उर्दू में दोहराओ, 
फिर फ़ैसला करो कि क्या ये इबारत काबिले इबादत है? 
इसे सुन कर लोगों को उस वक़्त हंसी आना तो फितरी बात हुवा करती थी , जिसकी गवाही खुद सूरह दे रही है, 
आज भी ये बातें क्या तुम्हें मज़हक़ा खेज़ नहीं लगतीं ? 
बड़े शर्म की बात है इसे तुम अल्लाह का कलाम समझते हो और उस दीवाने की बड़ बड़ की तिलावत करते हो. 
इससे मुँह मोड़ो ताकि कौम को इस जेहालत से नजात की कोई सूरत नज़र आए. 
दुन्या की २०% नादानों को हम और तुम मिलकर जगा सकते हैं. 
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Monday 14 November 2016

बांग-ए-दरा -- 147




बांग ए दरा 

वक़ेआ
वक़ेआ का मतलब है जो बात वाक़े (घटित ) हुई हो और वाक़ई (वास्तविक) हुई हो. 
इस कसौटी पर अल्लाह की एक बात भी सहीह नहीं उतरती. 
यहाँ वक़ेआ से मुराद क़यामत से है जोकि कोरी कल्पना है. 
वैसे पूरा का पूरा क़ुरआन ही क़यामत पर तकिया किए हुए है. 
सूरह में क़यामत का एक स्टेज बनाया गया है जिसके तीन बाज़ू हैं 
पहला दाहिना बाज़ू 
और दूसरा बायाँ बाज़ू 
तीसरा आला दर्जा (?). 
दाएँ तरफ़ वाले माशा अल्लह, सब जन्नती होने वाले होते हैं 
और बाएँ जानिब वाले कम्बख्त दोज़खी.
मजमें की तादाद मक्का की आबादी का कोई जुजवी हिस्सा लगती है
 जब कि क़यामत के रोज़ जब तमाम दुन्या की आबादी उठ खड़ी होगी तो 
ज़मीन पर इंसान के लिए खड़े होने की जगह नहीं होगी..
बाएँ बाजू वाले की ख़ातिर अल्लाह खौलते हुए पानी से करता है. 
इसके पहले अल्लाह ने जिस क़यामती इजलास का नक्शा पेश किया था, 
उसमें नामाए आमाल दाएँ और बाएँ हाथों में बज़रीया फ़रिश्ता बटवाता है. 
ये क़यामत का बदला हुवा प्रोगराम है.
याद रहे कि अल्लाह किसी भी बाएँ पहलू को पसंद नहीं करता 
इसकी पैरवी में मुसलमान अपने ही जिस्म के बाएँ हिस्से को सौतेला समझते हैं 
अपने ही बाएँ हाथ को नज़र अन्दाज़ करते हैं यहाँ तक हाथ तो हाथ पैर को भी, 
मुल्ला जी कहते हैं मस्जिद में दाखिल हों तो पहला क़दम दाहिना हो.
अल्लाह को इस बात की खबर नहीं कि जिस्म की गाड़ी का इंजन दिल, बाएँ जानिब होता है. मुहम्मदी अल्लाह कानूने फितरत की कोई बारीकी नहीं जानता .
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Friday 11 November 2016

बांग-ए-दरा 146




बांग ए दरा 
मौकूफ (अमान्य) आयात 

अल्लाह की तरफ़ से भेजी गई कच्ची वातों पर जब लोग उंगली उठाते हैं और मुहम्मद को अपनी गलती का एहसास होता है तो उस आयत या पूरी की पूरी सूरह अल्लाह से मौकूफ (अमान्य) करा देते हैं। ये भी उनका एक हरबा होता. अल्लाह न हुवा एक आम आदमी हुवा जिस से गलती होती रहती है, उस पर ये कि उस को इस का हक है। 
बड़ी जोरदारी के साथ अल्लाह अपनी कुदरत की दावेदारी पेश करते हुए अपनी ताक़त का मजाहरा करता है कि वह कुरानी आयातों में हेरा-फेरी कर सकता है, 
इसकी वह कुदरत रखता है, 
कल वह ये भी कह सकता है कि वह झूट बोल सकता है, चोरी, चकारी, बे ईमानी जैसे काम भी करने की कुदरत रखता है। 
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Wednesday 9 November 2016

Hadeesi hadse 435


हदीसी हादसे 

बुख़ारी १ ३ ९ ० 
कुछ भी करो मगर अल्लाह से डरो 
मुहम्मद कहते हैं कि किसी शख्स ने मरने से पहले वसीयत की थी कि इसे मरने के बाद खाक कर दिया जाए और फिर खाक को बहती हुई हवा के हवाले कर दिया जाए. गोया इसके वरसा ने ऐसा ही किया .
अल्लाह ने इसके तमाम अज्ज़ा को जमा किया फिर इसमें जान डाल  दी ,
फिर इस से सवाल किया कि तूने ऐसा क्यों किया ? बन्दे ने जवाब दिया कि तेरे डर से .
और अल्लाह ने इसे बख्श दिया .
*इस किस्म की पुड़िया छोड़ना मुहम्मद का मरगूब शगल था . इनको आलिमी दस्तूर के दीगर रस्मों का इल्म नहीं था कि तहजीबें ज़मीनी मख्लूक़ की गिज़ा के लिए मुरदों को चील कव्वों और गिद्ध के हवाले कर दिया करते हैं और बहरी मख्लूक़ की गिज़ा के लिए लाशों को दरया के हवाले कर दिया करते हैं , वर्ना वह उस पर भी ज़बान खोले बिना न रह पाते .
बुख़ारी १ ३ ७ १ 
खिजिर का काम 
मुहम्मद पुड़िया छोड़ते हैं कि खिजिर अलैहिस्सलाम का नाम खिजिर इस लिए पड़ा कि वह एक साफ चटियल मैदान पर बैठ गए थे , इसी वक़्त वह ज़मीन फ़ौरन हरी भरी हो गई थी .
*इसी बात को अगर कोई दाढ़ी वाला मुसल्मान किसी मुस्लिम महफ़िल में बयान करे तो लोग उसे कठ मुल्ला कहकर उसका मज़ाक़ उडाएँगे  , मगर वह जब बतलाए की यह बात हुज़ूर सलल्लाह ने फरमाई है तो  उस मुस्लिम महफ़िल का सर अकीदत से झुक जायगा .यही है मुसलामानों की ज़ेहनी नामाकूलियत का मौजूदा सानेहा . 
 खिजिर , अरबी रवायत के मुताबिक़ एक फ़रिश्ता है जिसके तहत दुन्या के जंगल हुवा करते हैं और वह अमर है जैसा कि हर फ़रिश्ता अमर होता है . इस रवायत में मुहम्मद ने अपने झूट की आमेज़िश कर दी है और मुसलमान इसी को सच मान कर चल रहा है . 

बुखारी ९६२
मुहम्मद ने अपनी बीवी आयशा से कहा एक रोज़ कोई लश्कर आएगा कि काबा पर चढ़ाई करने की नियत रख्खेगा, मुकाम बैदा में ज़मीन में धंस जाएगा. आयशा ने पूछा क्या वह लोग भी धंस जाएँगे जिनकी नियत जंग की न होगी, तिजारत की होगी?
*मुहम्मद का जवाब गोल मॉल था, कहा कि क़यामत के दिन सबको उनकी नियत ए नेक या नियत ए बद के हिसाब से उठाया जाएगा



बांग-ए-दरा 145


बांग ए दरा 

बनी नुजैर

हिम्मत करके सच्चाई का सामना करो. तुमको तुम्हारे अल्लाह का रसूल वर्गाला रहा है. 
अल्लाह का मुखौटा पहने हुए, वह तुम्हें धमका रहा है कि उसको माल दो. 
वह ईमान लाए हुए मुसलामानों से, उनकी हैसियत के मुताबिक टेक्स वसूल किया करता था. इस बात की गवाही ये क़ुरआनी आयतें हैं. 
मुहम्मद ने कोई समाजी, फलाही,खैराती या तालीमी इदारा कायम नहीं कर रखा था कि 
वसूली हुई रक़म उसमे जा सके. 
मुहम्मद के चन्द बुरे दिनों का ही लेकर आलिमों ने इनकी ज़िन्दगी का नक्शा खींचा है
 और उसी का ढिंढोरा पीटा है. 
मुहम्मद के तमाम ऐब और खामियों की इन ज़मीर फरोशों ने पर्दा पोशी की है.
बनी नुज़ैर की लूटी हुई तमाम दौलत को मुहम्मद ने हड़प के अपने नौ बीवियों और
 उनके घरों के लिए वक्फ कर लिया था. 
 उनके बागों और खेतियों की मालगुजारी उनके हक में कर दिया था. 
जंग में शरीक होने वाले अंसारी हाथ मल कर राह गए थे. 
हर जंगी लूट मेल गनीमत में २०% मुहम्मद का हु वा करता था.
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Tuesday 8 November 2016

बांग-ए-दरा 144





बांग ए दरा 

झूट औए शर 

झूट और शर की अलामत ओसामा बिन लादेन मारा गया,
 दुन्या भर में खुशियाँ मनाई जा रही हैं. 
याद रखें ये अलामत को सजा मिली है, झूट और शर को नहीं. 
सारी दुन्या मुत्तहद हो कर कह रही है कि झूट औए शर से इस ज़मीन को पाक किया जाए. 
ऐसे मौके पर ओबामा ने एक सियासी एलान किया कि हम इस्लाम के खिलाफ नहीं है
 बल्कि दहशत गरजी के खिलाफ हैं, 
ये उनकी मजबूरी होगी या मसलेहत.
ये झूट और शर कुरान है जिसकी तालीम जुनूनियों को तालिबान , 
जैश ए मुहम्मदी वगैरा बनाए हुए है. 
इसकी तबलीग और तहरीर दर पर्दा इंसानी जेहन को ज़हरीला किए हुए है. 
अगर तुम मुसलमान हो तो यकीनी तौर पर कुरान के शिकार हो. 
अब मुसलमान होते हुए मुँह नहीं छिपाया जा सकता और 
न ओलिमा का ज़हरीला कैप्शूल निगला जा सकता है, 
वह चाहे उस पर कितनी शकर लपेटें. तुम्हारा भरम दुन्या के साथ टूट चुका है.
मुसलमानों!
तुम यकीनन " (किं कर्तव्य विमूढ़" (क्या करें, क्या न करें, के शिकार हो रहे हो. 
तुम्हारा इस वक़्त कोई रहनुमा नहीं है, 
लावारिस हो रहे हो, 
ओलिमा ठेल ढ़केल कर तुम्हें कुरआन के झूट और शर भरी आयतों की तरफ ले जा रहे है 
जिनके शिकार तुमहारे आबा ओ अजदा हुए हैं. 
एक वक़्त आएगा कि तुम्हारा वजूद ख़त्म हो रहा होगा और ये ओलिमा 
क्रिश्चिनिटी और हिदुत्व के गोद में बैठ रहे होंगे.
अभी सवेरा है कि इल्हाद को समझो और ईमान दार मोमिन बन जाओ। 
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Monday 7 November 2016

बांग-ए-दरा 143





बांग ए दरा 

परेशानी ए  ख़याल 

मुझे हैरत होती है कि मुहम्मद के ज़माने में वह लोग थे जोकि कुरानी बकवासों को मुहम्मद का परेशान ख़याल कह कर दीवाने को फ़रामोश कर दिया करते थे. 
वह इस लग्वियात को मुहम्मद का जेहनी खलल मानते थे, ये बातें खुद कुरआन में मौजूद है, इस लिए कि मुहम्मद लोगों की तनक़ीद को भी क़ुरआनी फरमान का हिस्सा बनाए हुए हैं. 
वह लोग क़ुरआनी फ़रमूदात पर ऐसे ऐसे जुमले कसते कि 
अल्लाह की बोलती बंद हो जाया करती थी.
आज का इंसान उस ज़माने से कई गुना तालीम याफ्ता है,
जेहनी बलूगत भी लोगों की काफी बढ़ गई है,
तहकीकात और इन्केशाफत के कई बाब खुल चुके हैं,
फिर भी इन कुरानी लग्वियात को लोग अल्लाह का कलाम माने हुए हैं. 
और इस बात पर यकीन रक्खे हुए हैं.
जाहिल अवाम को मुआफ़ किया जा सकता है, मगर
कालेज के प्रोफ़ेसर, वोकला, जज और बुद्धि जीवी भी यक़ीन रखते हैं कि 
अल्लाह ने ही कुरआन को अपनी दानिश मंदी की शक्ल बख्शी .
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Sunday 6 November 2016

बांग-ए-दरा 142


बांग-ए-दरा

अल्लाह की कहानी 

आज मैं आप के सामने मुहम्मद द्वारा गढ़ी एक कहानी को पेश कर रहा हूँ जिस में मुहम्मद की हकीकत है कि वह और उनका अल्लाह कितने अधकचरे थे। इसमें देखने क़ि बात ये है क़ि इसके तर्जुमान ने अल्लाह और मुहम्मद क़ि कितनी मदद की है, कहानी को एक बार ब्रेकट में दिए गए लाल रंग को छोड़ कर पढ़िए, दूसरी बार इस के साथ पढ़िए।आप को अंदाज़ा हो जायगा कि इन ओलिमा ने झूट को सच का रूप देने में इस्लाम की कितनी सहायता क़ि है।

''और(वह वक़्त याद करो) जब मूसा ने अपने नौकर से फ़रमाया कि मैं(इस सफ़र में) बराबर चला जाऊँगा, यहाँ तक कि इस मौके पर पहुँच जाऊँ जहाँ दो दरया आपस में मिले हैं, या(यूं ही) ज़माना-ए दराज़ तक चलता रहूँगा. पास जब (चलते चलते) दोनों के जमा होने के मौके पर पहुँचे, अपनी मछली को दोनों भूल गए और उस (मछली) ने अपनी राह ली और चल दी। फिर जब दोनों (वहां से) आगे बढ़ गए (तो मूसा ने), अपने नौकर से फ़रमाया कि हमारा नाश्ता लाओ हमको तो इस सफ़र में( यानी आज की मंज़िल में) बड़ी तकलीफ पहुंची. (नौकर ने) कहा कि (लीजिए) देखिए (अजीब बात हुई ) जब हम उस पत्थर के करीब ठहरे थे सो मैं (उस) मछली (के तज़करे) को भूल गया और मुझको शैतान ही ने भुला दिया, कि मैं इसका ज़िक्र करता और (वह किस्सा ये हुवा कि) उस (मछली) ने (ज़िदा होने के बाद) दरया में अजीब तौर पर अपनी राह ली. (मूसा ने हिकायत सुन कर) फ़रमाया यही वह मौक़ा है जिसकी हम को तलाश थी. सो दोनों अपने क़दमों के निशान देखते हुए उलटे लौटे. सो (वहां पहुँच कर) उन्हों ने हमारे बन्दों में से एक बन्दे (यानी खिज़िर) को पाया जिनको हमने अपनी (ख़ास) रहमत (यानी मक़बूलियत) दी थी और उनको हमने अपने पास से (एक ख़ास तौर का) इल्म सिखलाया था. मूसा ने (उनको सलाम किया और) उन से फ़रमाया कि क्या मैं आप के साथ रह सकता हूँ? इस शर्त से कि जो इल्मे-मुफ़ीद को (मिन जानिब अल्लाह) आप को सिखलाया गया है, इस में से आप मुझको भी सिखला दें. (इन बुज़ुर्ग ने) जवाब दिया आप को मेरे साथ (रह कर मेरे अफाल पर) सब्र न होगा. और (भला) ऐसे उमूर पर कैसे सब्र करेगे जो आप के अहाते-वाकिफ़यत से बाहर हो. (मूसा ने) फ़रमाया आप इंशा अल्लाह हम को साबिर (यानी ज़ाबित) पाएँगे. और मैं किसी बात में आप के खिलाफ हुक्म नहीं करूँगा, (इन बुज़ुर्ग ने) फ़रमाया (कि अच्छा) अगर आप मेरे साथ रहना चाहते हैं तो (इतना ख़याल रहे कि) फिर मुझ से किसी बात के निसबत कुछ पूछना नहीं, जब तक कि उसके मुतालिक मैं खुद ही इब्तेदाए ज़िक्र न कर दूं . फिर दोनों (किसी तरह) चले, यहाँ तक कि जब कश्ती में सवार हुए तो (इन बुज़ुर्ग ने) इस कश्ती में छेद कर दिया. (मूसा ने) फ़रमाया कि क्या आप ने इस कश्ती में इस लिए छेद किया (होगा) है कि इसके बैठने वालों को गर्क़ करदें? आप ने बड़ी भारी (यानी खतरा की) बात की. (इन बुज़ुर्ग ने) कहा क्या मैं ने कहा नहीं था कि आप को मेरे साथ सब्र न हो सकेगा. (मूसा ने) फ़रमाया (मुझको याद न रहा था सो) आप मेरी भूल (चूक) पर गिरफ़्त न कीजिए और मेरे इस मुआमले में कुछ ज़्यादा तंगी न डालिए.
फिर दोनों (कश्ती से उतर कर आगे) चले, यहाँ तक कि जब एक (कमसिन) लड़के से मिले तो (इन बुज़ुर्ग ने) उसको मर डाला . मूसा (घबरा कर) कहने लगे कि आपने एक बेगुनाह को जान कर मार डाला (और वह भी) बे बदले किसी जान के, बे शक आप ने (ये तो) बड़ी बेजा हरकत की. (उन बुज़ुर्ग ने) फ़रमाया क्या मैं ने कहा नहीं था कि आप को मेरे साथ से सब्र न हो सकेगा. (मूसा ने) फ़रमाया कि ( खैर अब के और जाने दीजिए) अगर इस (मर्तबा) आप से किसी अम्र के मुतालिक कुछ पूछूं तो आप मुझको अपने साथ न राखिए. बेशक आप मेरी तरफ से उज़र (की इन्तहा) को पहुँच चुके हैं. फिर दोनों (आगे) चले फिर जब एक गाँव वालों पर गुज़र हुवा तो वहां वालों से खाने को माँगा कि (हम मेहमान है) सो उन्हों ने उनकी मेहमानी से इंकार कर दिया. इतने में इनको वहाँ पर एक दीवार मिली जो गिरा ही चाहती थी कि फिर उन बुज़ुर्ग ने उसको (हाथ के इशारे से) सीधा कर दिया. (मूसा ने) फ़रमाया अगर आप चाहते तो इस (काम) पर कुछ उजरत ही ले लेते.(उन बुज़ुर्ग ने) फ़रमाय कि अब ये वक़्त हमारे और आप के अलहदगी का है ( जैसा कि आपने खुद शर्त की थी) मैं उन चीज़ों की हकीकत आप को बतलाए देता हूँ जिन पर आप से सब्र न हुवा. जो कश्ती थी वह चन्द आदमियों की थी जो (इसके ज़रीए) इस दरया में मेहनत (मजदूरी) करते थे सो मैं ने चाहा कि इसमें ऐब डाल दूं और (वजेह इसकी ये थी कि) इन लोगों के आगे की तरफ़ एक (ज़लिम) बादशाह था जो हर (अच्छी) कश्ती को ज़बरदस्ती पकड़ रहा है. और रहा वह लड़का तो उसके माँ बाप ईमान दार थे सो हमको अंदेशा (यानी तहकीक) हुवा कि ये इन दोनों पर सर कशी और कुफ्र का असर न डाल दे. पस हम को ये मंज़ूर हुवा कि बजाए इसके कि इनका परवर दिगार इनको ऐसी औलाद दे जो पाकीज़गी (यानी दीन) में इस से बेहतर हो और ( माँ बाप के साथ) मुहब्बत करने में इस से बेहतर हो. और रही दीवार, सो वह दो यतीम बच्चों की थी जो इस शहर में (रहते) हैं और उस (दीवार) के नीचे उन का कुछ माल मदफून था (जो उनके बाप से मीरास में पहूंचा है) और उनका बाप (जो मर गया) एक नेक आदमी था. सो आप के रब ने अपनी मेहरबानी से चाहा कि वह दोनों अपने जवानी (की उम्र) को पहुँचें और अपना दफीना निकल लें. आपके रब की रहमत से और (ये सारे काम मैं ने ब-अल्हाम इलाही किए हैं इन में से) कोई काम मैं ने अपनी राय से नहीं किया. लीजिए ये है हक़ीक़त इन (बातों) की जिन पर आप से सब्र न हो सका.



Saturday 5 November 2016

बांग-ए-दरा 141




बांग ए दरा 

गाभिन ऊंटनी छुट्टा फिरेगी

अपने कलाम में नुदरत बयानी समझने वाले मुहम्मद क्या क्या बक रहे हैं कि
"पहाड़ो में चलने के लिए अल्लाह पैर पैदा कर देगा,"
"वह फुद्केंगे, लोग अचम्भा और तमाशा ही देखेगे, "
मुहम्मद ऊंटों और खजूरों वाले रेगिस्तानी थे,
गोया इसे भी अलामते क़यामत तसुव्वर करते हैं कि
"जब दस महीना की गाभिन ऊंटनी छुट्टा फिरेगी"
छुट्टा घूमे या रस्सियों में गाभिन हो या अभागिन, ऊंटनी ही नहीं तमाम जानवर हमेशा आज़ाद ही घूमा फिरा करेंगे.
दरिया सालाना भड़कते ही रहते हैं.
ये कुरआन की फूहड़ आयतें जिनकी कसमें अल्लाह अपनी तख्लीक़ की नव अय्यत को पेशे नज़र रख कर खाता है
तो इसपर यकीन तो नहीं होता, हाँ, हँसी ज़रूर आती है.
मुसलामानों! क्या सुब्ह ओ शाम तुम ऐसी दीवानगी की इबादत करते हो?
कहाँ उसका कहना नहीं माना जाता? उसके हुक्म के बगैर तो पत्ता भी नहीं हिलता.
ये वही फ़रिश्ता है जिसे वह रोज़ ही देखते हैं जब वह अल्लाह की वहयी लेकर मुहम्मद के पास आता है, फिर उसकी एक झलक आसमान पर देखने की गवाही कैसी?
क़यामत के बाद जब ये दुन्या ही न बचेगी तो नसीहत का हासिल?
कुरआन पर हजारों एतराज़ ज़मीनी बाशिदों के है, जिसे ये ओलिमा मरदूद उभरने ही नहीं देते.
भोले भाले ऐ नमाज़ियो!
सबसे पहले गौर करने की बात ये है कि ऊपर जो कुछ कहा गया है, वह किसी इंसान के मुंह से अदा किया गया है
या कि किसी ग़ैबी अल्लाह के मुंह से?
ज़ाहिर है कि ये इंसान के मुंह से निकला हुवा कलाम है जो कि बद कलामी की हदों में जाता है.
क्या कोई खुदाई हस्ती इरशाद कर सकती है कि
".जब दस महीना की गाभिन ऊंटनी छुट्टा फिरेगी,"
अरबी लोग कसमें ज्यादा खाते हैं. शायद कसमें इनकी ही ईजाद हों. मुहम्मद अपनी हदीसों में भी कुरान की तरह ही कसमे खाते हैं. इस्लाम में झूटी कसमें खाना आम बात है, इनको अल्लाह मुआफ करता रहता है. अगर इरादतन क़सम खा लिया तो किसी यतीम या मोहताज को खाना खिला दो. बस. गौर करने की बात है कि जहाँ झूटी कसमें रवा हों वहां झूट बोलना किस क़दर आसन होगा? ये कुरान झूट ही तो है. क़यामत, दोज़ख, जन्नत, हिसाब-किताब, फ़रिश्ते, जिन और शैतान सब झूट ही तो हैं.
क्या तुम्हारे आईना ए हयात पर झूट की परतें नहीं जम गई हैं?
ये इस्लाम एक गर्द है तुमको मैला कर रहा है.
अपने गर्दन को एक जुंबिश दो, इस जमी हुई गर्द को अपनी हस्ती पर से हटाने के लिए.
अल्लाह कहता है "और तुम अल्लाह रब्बुल आलमीन के चाहे बिना कुछ नहीं चाह सकते."
तो फिर दुन्या में कहाँ कोई बन्दा गुनाहगार हो सकता है, सिवाए अल्लाह के.
*****


बांग-ए-दरा 141




बांग ए दरा 

गाभिन ऊंटनी छुट्टा फिरेगी

अपने कलाम में नुदरत बयानी समझने वाले मुहम्मद क्या क्या बक रहे हैं कि
"पहाड़ो में चलने के लिए अल्लाह पैर पैदा कर देगा,"
"वह फुद्केंगे, लोग अचम्भा और तमाशा ही देखेगे, "
मुहम्मद ऊंटों और खजूरों वाले रेगिस्तानी थे,
गोया इसे भी अलामते क़यामत तसुव्वर करते हैं कि
"जब दस महीना की गाभिन ऊंटनी छुट्टा फिरेगी"
छुट्टा घूमे या रस्सियों में गाभिन हो या अभागिन, ऊंटनी ही नहीं तमाम जानवर हमेशा आज़ाद ही घूमा फिरा करेंगे.
दरिया सालाना भड़कते ही रहते हैं.
ये कुरआन की फूहड़ आयतें जिनकी कसमें अल्लाह अपनी तख्लीक़ की नव अय्यत को पेशे नज़र रख कर खाता है
तो इसपर यकीन तो नहीं होता, हाँ, हँसी ज़रूर आती है.
मुसलामानों! क्या सुब्ह ओ शाम तुम ऐसी दीवानगी की इबादत करते हो?
कहाँ उसका कहना नहीं माना जाता? उसके हुक्म के बगैर तो पत्ता भी नहीं हिलता.
ये वही फ़रिश्ता है जिसे वह रोज़ ही देखते हैं जब वह अल्लाह की वहयी लेकर मुहम्मद के पास आता है, फिर उसकी एक झलक आसमान पर देखने की गवाही कैसी?
क़यामत के बाद जब ये दुन्या ही न बचेगी तो नसीहत का हासिल?
कुरआन पर हजारों एतराज़ ज़मीनी बाशिदों के है, जिसे ये ओलिमा मरदूद उभरने ही नहीं देते.
भोले भाले ऐ नमाज़ियो!
सबसे पहले गौर करने की बात ये है कि ऊपर जो कुछ कहा गया है, वह किसी इंसान के मुंह से अदा किया गया है
या कि किसी ग़ैबी अल्लाह के मुंह से?
ज़ाहिर है कि ये इंसान के मुंह से निकला हुवा कलाम है जो कि बद कलामी की हदों में जाता है.
क्या कोई खुदाई हस्ती इरशाद कर सकती है कि
".जब दस महीना की गाभिन ऊंटनी छुट्टा फिरेगी,"
अरबी लोग कसमें ज्यादा खाते हैं. शायद कसमें इनकी ही ईजाद हों. मुहम्मद अपनी हदीसों में भी कुरान की तरह ही कसमे खाते हैं. इस्लाम में झूटी कसमें खाना आम बात है, इनको अल्लाह मुआफ करता रहता है. अगर इरादतन क़सम खा लिया तो किसी यतीम या मोहताज को खाना खिला दो. बस. गौर करने की बात है कि जहाँ झूटी कसमें रवा हों वहां झूट बोलना किस क़दर आसन होगा? ये कुरान झूट ही तो है. क़यामत, दोज़ख, जन्नत, हिसाब-किताब, फ़रिश्ते, जिन और शैतान सब झूट ही तो हैं.
क्या तुम्हारे आईना ए हयात पर झूट की परतें नहीं जम गई हैं?
ये इस्लाम एक गर्द है तुमको मैला कर रहा है.
अपने गर्दन को एक जुंबिश दो, इस जमी हुई गर्द को अपनी हस्ती पर से हटाने के लिए.
अल्लाह कहता है "और तुम अल्लाह रब्बुल आलमीन के चाहे बिना कुछ नहीं चाह सकते."
तो फिर दुन्या में कहाँ कोई बन्दा गुनाहगार हो सकता है, सिवाए अल्लाह के.
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बांग-ए-दरा 141




बांग ए दरा 

गाभिन ऊंटनी छुट्टा फिरेगी

अपने कलाम में नुदरत बयानी समझने वाले मुहम्मद क्या क्या बक रहे हैं कि
"पहाड़ो में चलने के लिए अल्लाह पैर पैदा कर देगा,"
"वह फुद्केंगे, लोग अचम्भा और तमाशा ही देखेगे, "
मुहम्मद ऊंटों और खजूरों वाले रेगिस्तानी थे,
गोया इसे भी अलामते क़यामत तसुव्वर करते हैं कि
"जब दस महीना की गाभिन ऊंटनी छुट्टा फिरेगी"
छुट्टा घूमे या रस्सियों में गाभिन हो या अभागिन, ऊंटनी ही नहीं तमाम जानवर हमेशा आज़ाद ही घूमा फिरा करेंगे.
दरिया सालाना भड़कते ही रहते हैं.
ये कुरआन की फूहड़ आयतें जिनकी कसमें अल्लाह अपनी तख्लीक़ की नव अय्यत को पेशे नज़र रख कर खाता है
तो इसपर यकीन तो नहीं होता, हाँ, हँसी ज़रूर आती है.
मुसलामानों! क्या सुब्ह ओ शाम तुम ऐसी दीवानगी की इबादत करते हो?
कहाँ उसका कहना नहीं माना जाता? उसके हुक्म के बगैर तो पत्ता भी नहीं हिलता.
ये वही फ़रिश्ता है जिसे वह रोज़ ही देखते हैं जब वह अल्लाह की वहयी लेकर मुहम्मद के पास आता है, फिर उसकी एक झलक आसमान पर देखने की गवाही कैसी?
क़यामत के बाद जब ये दुन्या ही न बचेगी तो नसीहत का हासिल?
कुरआन पर हजारों एतराज़ ज़मीनी बाशिदों के है, जिसे ये ओलिमा मरदूद उभरने ही नहीं देते.
भोले भाले ऐ नमाज़ियो!
सबसे पहले गौर करने की बात ये है कि ऊपर जो कुछ कहा गया है, वह किसी इंसान के मुंह से अदा किया गया है
या कि किसी ग़ैबी अल्लाह के मुंह से?
ज़ाहिर है कि ये इंसान के मुंह से निकला हुवा कलाम है जो कि बद कलामी की हदों में जाता है.
क्या कोई खुदाई हस्ती इरशाद कर सकती है कि
".जब दस महीना की गाभिन ऊंटनी छुट्टा फिरेगी,"
अरबी लोग कसमें ज्यादा खाते हैं. शायद कसमें इनकी ही ईजाद हों. मुहम्मद अपनी हदीसों में भी कुरान की तरह ही कसमे खाते हैं. इस्लाम में झूटी कसमें खाना आम बात है, इनको अल्लाह मुआफ करता रहता है. अगर इरादतन क़सम खा लिया तो किसी यतीम या मोहताज को खाना खिला दो. बस. गौर करने की बात है कि जहाँ झूटी कसमें रवा हों वहां झूट बोलना किस क़दर आसन होगा? ये कुरान झूट ही तो है. क़यामत, दोज़ख, जन्नत, हिसाब-किताब, फ़रिश्ते, जिन और शैतान सब झूट ही तो हैं.
क्या तुम्हारे आईना ए हयात पर झूट की परतें नहीं जम गई हैं?
ये इस्लाम एक गर्द है तुमको मैला कर रहा है.
अपने गर्दन को एक जुंबिश दो, इस जमी हुई गर्द को अपनी हस्ती पर से हटाने के लिए.
अल्लाह कहता है "और तुम अल्लाह रब्बुल आलमीन के चाहे बिना कुछ नहीं चाह सकते."
तो फिर दुन्या में कहाँ कोई बन्दा गुनाहगार हो सकता है, सिवाए अल्लाह के.
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Friday 4 November 2016

बांग-ए-दरा 140




बांग ए दरा 

तेईस साल चार महीने

मुसलमानों को अँधेरे में रखने वाले इस्लामी विद्वान, मुस्लिम बुद्धि जीवी और कौमी रहनुमा, समय आ गया है कि अब जवाब दें- - - 
कि लाखों, करोरों, अरबों बल्कि उस से भी कहीं अधिक बरसों से इस ब्रह्मांड का रचना कार अल्लाह क्या चौदह सौ साल पहले केवल तेईस साल चार महीने (मोहम्मद का पैगम्बरी काल)
के लिए अरबी जुबान में बोला था? 
वह भी मुहम्मद से सीधे नहीं, किसी तथा कथित दूत के माध्यम से, 
वह भी बाआवाज़ बुलंद नहीं काना-फूसी कर के ? 
जनता कहती रही कि जिब्रील आते हैं तो सब को दिखाई क्यूँ नहीं पड़ते? 
जो कि उसकी उचित मांग थी और मोहम्मद बहाने बनाते रहे। 
क्या उसके बाद अल्लाह को साँप सूँघ गया कि स्वयम्भू अल्लाह के रसूल की मौत के बाद उसकी बोलती बंद हो गई और जिब्रील अलैहिस्सलाम मृत्यु लोक को सिधार गए ? 
उस महान रचना कार के सारे काम तो बदस्तूर चल रहे हैं, 
मगर झूठे अल्लाह और उसके स्वयम्भू रसूल के छल में आ जाने वाले लोगों के काम चौदह सौ सालों से रुके हुए हैं, मुस्लमान वहीँ है जहाँ सदियों पहले था, 
उसके हम रकाब यहूदी, ईसाई और दीगर कौमें आज हम मुसलमानों को सदियों पीछे अतीत के अंधेरों में छोड़ कर प्रकाश मय संसार में बढ़ गए हैं. 
हम मोहम्मद की गढ़ी हुई जन्नत के मिथ्य में ही नमाजों के लिए वजू, रुकू और सजदे में विपत्ति ग्रस्त है. मुहम्मदी अल्लाह उन के बाद क्यूँ मुसलमानों में किसी से वार्तालाप नहीं कर रहा है? 
जो वार्ता उसके नाम से की गई है उस में कितना दम है? 
ये सवाल तो आगे आएगा जिसका वाजिब उत्तर इन बदमआश आलिमो को देना होगा.... क़ुरआन का पोस्ट मार्टम खुली आँख से देखें 
आप जागें, मुस्लिम से मोमिन हो जाएँ और ईमान की बात करें। 
अगर ज़मीर रखते हैं तो सदाक़त अर्थात सत्य को ज़रूर समझेंगे. 
और अगर इसलाम की कूढ़ मग्ज़ी ही ज़ेह्न में समाई है 
तो जाने दीजिए अपनी नस्लों को तालिबानी जहन्नम में , 
जिन गलाज़तों में आप सने हुए हैं उसे ईमान के सच्चे साबुन से धोइए
 और पाक ज़ेहन के साथ ज़िंदगी का आगाज़ करिए. 
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Thursday 3 November 2016

बांग-ए-दरा 139


बांग ए दरा 

जिहालत का पैकर 
अल्लाह चाँद की क़सम खा रहा है, जबकि वह सूरज के पीछे हो. 
इसी तरह वह दिन की क़सम खा रहा है जब कि वह सूरज को खूब रौशन करदे?
गोया तुम्हारा अल्लाह ये भी नहीं जनता कि सूरज निकलने पर दिन रौशन हो जाता है. 
वह तो जानता है कि दिन जब निकलता है तो सूरज को रौशन करता है.
इसी तरह रात को अल्लाह एक पर्दा समझता है जिसके आड़ में सूरज जाकर छिप जाता है.
ठीक है हजारो साल पहले क़बीलों में इतनी समझ नहीं आई थी, 
मगर सवाल ये है कि क्या अल्लाह भी इंसानों की तरह ही इर्तेकाई मराहिल में था?
मगर नहीं! अल्लाह पहले भी यही था और आगे भी यही रहेगा. 
ईश या खुदा कभी जाहिल या बेवकूफ तो हो ही नहीं सकता.
इस लिए मानो कि कुरआन किसी अल्लाह का कलाम तो हो ही नहीं सकता. 
ये उम्मी मुहम्मद की जेहनी गाथा है.
कुरआन में बार बार एक आवारा ऊँटनी का ज़िक्र है. कहते हैं कि 
अल्लाह ने बन्दों का चैलेंज कुबूल करते हुए पत्थर के एह टुकड़े से एक ऊँटनी पैदा कर दिया. बादशाह ने इसे अल्लाह की ऊँटनी करार देकर आज़ाद कर दिया था 
जिसको लोगों ने मार डाला और अल्लाह के कहर के शिकार हुए.
ये किंवदंती उस वक्त की है जब इंसान भी ऊंटों के साथ जंगल में रहता था, 
इस तरह की कहानी के साथ साथ.
मुहम्मद उस ऊँटनी को पूरे कुरआन में जा बजा चराते फिरते हैं.