Tuesday 15 November 2011

Hadeesi Hadse (12)

(बुख़ारी २८)
सहाबा ए किराम
सहाबा ए किराम में ख़ासम ख़ास सहाबी अबू ज़र किसी के साथ ग़ाली गलौज कर रहे थे की मुहम्मद आ गए और कहा,
"अबू ज़र ! क्या तुमने माँ की ग़ाली दी? अल्लाह की क़सम तुम अभी तक जाहिल हो.''

मुहम्मद ने बज़ात खुद लोगों पर अमली ज़िन्दगी का कोई अखलाक़ी नमूना तो पेश नहीं किया था कि लोगों में इसका अखलाक़ी असर आ सके. इनके हर फेल में दिखावा था, बनावट थी और जोर ओ जबर का मुज़ाहिरा था. सिर्फ़ ग़ाली बकना जिहालत की निशानी नहीं है, बहुत से अमल और बातें ग़ाली से ज़्यादः चुभती हैं. वह भी हमारे समाज के लोगों की तरह ही आम लोग थे जिनको हम सहाबी ए किराम कहते हुए बेजा एहतराम करते हैं. हम ग़लत समझते हैं कि वह फ़रिश्ते सिफ़त रहे होंगे. उम्मी ने लोगों को उम्मियत ही सिखलाई है और हराम खिलाया है,कहाँ से कोई मुस्लमान सालेह बन सकता है और ईमान दार हो सकता है.


*************************************************


(बुखारी २९)

दोनों दोज़खी

मुहम्मद ने कहा

"जब मुसलमान आपस में हथियार के साथ मद्दे-मुकाबिल हों तो समझ लो दोनों दोज़खी हैं किसी ने सवाल किया कि मकतूल कैसे ? बोले क़त्ल का इरादा तो किया था."

सच ही कहा मुहम्मद ने गुज़िश्तः चौदह सौ सालों में मुसलमान जितना आपस में, हुक्मरानी के लिए लड़े मरे वह सब दोज़खी ही तो हुए. मुहम्मद के मौत के फ़ौरन बाद उनकी बीवी आयशा और उनके दामाद अली में जो जंगे-जमल हुई उसमें एक लाख मुस्लमान, वह भी ताज़े ताज़े, जो मारे गए सब दोज़खी हुए. उसके बाद यह सिसिला चल निकला. हिसाब लगाया जय तो अब तक मुसलमानों कि अरबों की आबादी जो फौजी थे, दोज़ख के नावाला हुए. आज लगभग एक अरब चालीस करोड़ मुसलमानों कि आबादी जीते जी दोज़ख में ज़िन्दगी को जी रही है, सारे ज़माने की लानत अपने सर पर ढो रही है. मुहम्मद की तहरीक इन्तेहाई नाकबत अंदेश और घटिया थी जिसने घटिया जेहन के पिछ लग्गू उम्मी पैदा किया. जो मुहम्मदी जाल से बहार निकलने के लिए आज़ाद ख्याली को पसंद ही नहीं करते. रोज़ इनका जत्था मारा जाता है फिर भी इनकी आँखें नहीं खुलती. इनके रहनुमा सभी इन्तेहाई ज़लील हैं.


******************************************


(बुखारी ३०)

ज़ुल्म अज़ीममुशशान

मुहम्मद अपने अल्लाह से यह आयत उतरवाते हैं

"इन्नशशिर्कुल ज़ुल्म ए अज़ीम" यानि "वह ज़ुल्म शिर्क है, जो अज़ीममुशशान है."

शिर्क, जैसे कि मूर्ति पूजा वह गुनाह है जो अजीमुश्शान है अर्थात महान है. किया पाप भी महान हो सकता है? गुनाहे-कबीरा या गुनाहे-सगीरा, ये बदतरीन गुनाह तो हो सकते हैं जिस पर सज़ाए-मौत भी हो सकती है, मगर गुनाह अज़ीममुशशान कैसे हो सकता है. यह जाहिल मुहम्मद की जेहनी पस्ती है कि हदीस और क़ुरान ऐसी ऐसी खामियों से भरा हुवा है.


************************************


(बुखारी ३३+३५)

शबे-क़द्र

मुहम्मद ने कहा,

"जो शख्स शबे-क़द्र और माहे-रमज़ान में ईमान और हुसूले-सवाब की ग़रज़ से इबादत करेगा इसके पिछले सभी गुनाह मुआफ कर दिए जाएँगे "

इस हदीस को पढ़ कर कोई साहिबे-ईमान-इस्लामी मुस्लमान इरतेकाब गुनाह से बचता हो, नामुमकिन. इस्लाम की ये नाक़िस दर्स गाहें बचपन से ही बच्चों के दिमागों को गुनाह के लिए इबादत और तौबा के रस्ते हमवार कर देते है कि वह बड़े होकर गुनाह गारी के आदी हो जाते हैं. जितने यह मदरसे के फ़ारिग मौलाना कल्बे-सियाह और ईमने-हकीकी के कमज़ोर होते हैं, उतना अंग्रेजी मीडियम से पढ़ ने वाले बच्चे मासूम और आला मेयर के होते हैं.
ये हैं शब कद्र रातों की बरकते. इस रात की इबादत से मुसलमान ३६५ दिनों के गुनाह से सुबुक दोश हो जाते हैं. अली का समधियाना और हुसैन की ससुराल और हारुन रशीद का ईरान एक बार फिर ज़िक्र में आ गया है जिसकी ज़र खेज़ी दुन्या को मरकज़ीयत बख्शने वाली थी कि इस्लाम के नरगे में आकर पामाल हो गया. वहां का इरतेकाई पैगम्बर ज़र्थुस्र्ट था, जिसने कहा था - - -

"ऐ खुदा !मेरी जिंदगी को तलिमे-बद देने वाले आलिम हमें बिगाड़ते हैं, जो बद ज़ातों को अज़ीम समझते हैं, जो मरदो-ज़न के असासे को लूटते हैं, और तेरे नेक बन्दों को राहे-रास्त से भटकाते हैं."

आज भी माजी का हीरो ईरान अपने ज़र्थुस्र्ट की राय को मान कर अगर तरके-इस्लाम करने की जिसारत करे तो तबाही से बच सकता है. इस्लाम ने इसका बेडा ग़र्क़ कर रक्खा है.