Tuesday 12 July 2016

बांग-ए-दरा -30


बांग-ए-दरा

कबीलाई जिंदगी की जेहनी गुलामी 

मैं एक मिटटी से वापस आ रहा था, साथ में मेरे एक खासे पढ़े लिखे रिश्तेदार भी थे. चलते चलते उन्हों ने एक झाड़ से कुछ पत्तियां नोच लीं, उसमें से कुछ खुद रख लीं और कुछ मुझे थमा दीं. मैं ने सवाल्या निशान से जब उनको देखा तो समझाने लगे कि मिटटी से लौटो तो हमेशा हरी पत्ती के साथ घर में दाखिल हुवा करो. मैंने सबब दरयाफ्त किया कि इस से क्या होता है? तो बोले इस से होता कुछ नहीं है, ये मैं भी जनता हूँ मगर ये एक समाजी दस्तूर है, इसको निभाने में हर्ज क्या है? घर में घुसो तो औरतें हाथ में हरी पत्ती देखकर मुतमईन हो जाती हैं, वर्ना बुरा मानती है. 
ये है कबीलाई जिंदगी की जेहनी गुलामी का एक नमूना. ये बीमारी नस्ल दर नस्ल हमारे समाज में चली आ रही है. ऐसे बहुतेरे रस्म ओ रिवाज को हमारा समाज सदियों से ढोता चला आ रहा है. तालीम के बाद भी इन मामूली अंध विशवास से लोग उबर नहीं प् रहे.
दूसरी मिसाल इसके बर अक्स मैं अपनी तहरीर कर में रहा हूँ कि मेरी शरीक-हयात दुल्हन के रूप में अपने घर से रुखसत होकर मेरे घर नकाब के अन्दर दाखिल हुईं, दूसरे दिन उनको समझा बुझा कर नकाब को अपने घर से रुखसत कर दिया, कि दोबारा उनपर उसकी साया तक नहीं पड़ी. मेरे इस फैसले से नई नवेली दुल्हन को भी फितरी राहत महसूस हुई, मगर वक्ती तौर पर उनको इसकी मुखालफत भी झेलनी पड़ी, 
बिल आखिर भावजों को इससे हौसला मिला, कि उन्हों ने भी नकाब तर्क कर दिया. इसका देर पा असर ये हुवा कि पैंतीस साल बाद हमारे बड़े खानदान ने नकाब को खैरबाद कर बिया.
इन दो मिसालों से मैं बतलाना चाहता हूँ कि अकेला चना भाड़ तो नहीं फोड़ सकता मगर आवाज़ बुलंद कर सकता है. बड़े से बड़े मिशन की कामयाबी के लिए पहला क़दम तो उठाना ही पड़ेगा. इंसान अपने अन्दर छिपी सलाहियतों से खुद पहचानने से बचता रहता है. 


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