Thursday 27 October 2011

Hadeesi hadse (11)

औरतें दोजखी और एहसान फरामोश हैं (बुखारी२७)
(मुस्लिम - - किताबुल ईमान)


औरतों की ज़िल्लत


"मुहम्मद कहते हैं एक बार मेरे सामने दोज़ख पेश की गई, मैं ने अहले दोज़ख में ज़्यादः हिस्सा औरतों को देखा, क्यूंकि यह नाशुक्री बहुत करती हैं, शौहर की नाशुक्री करती हैं और एहसान फ़रामोश होती हैं."
माबदौलत के सामने अल्लाह हमेशा हाथ जोड़े, सर झुकाए खड़ा रहता है और उसके हुक्म पर जन्नत और दोज़ख पेश किया करता है. मुहम्मद ने अल्लाह को भी अपना गुलाम बना रक्खा है.
मुहम्मद, कुरआन और हदीस में औरतों को हमेशा ज़लील करते हैं.
आज जब अख़बारों में मुस्लिम औरतों की पस्मान्दगी पर, मुस्लिम समाज पर सवाल उठता है तो ओलिमा नबी करीम की झूटी हदीसें गढ़ते हैं कि गलती इस्लाम की नहीं बल्कि मुसलमानों की गुमराही का है कि वह इस्लाम से बहुत दूर निकल गए हैं. लोग गुमराह हो गए हैं. वह जवाब में गैर मुस्लिमों को ज़ेर करते हैं. जब कभी भी मुस्लिम कांफ्रेंस होती है तो अव्वल तो उसमे औरतें होती ही नहीं, औरतों पर और भी पाबंदियां आयद हो जाती हैं.

खुद औरतों की तंज़ीमें जहाँ तहाँ हैं जो ओलिमा पर नाक भौं सिकोड़ती हैं, मगर अपने रसूल के खिलाफ ज़बान नहीं खोल पातीं जो इनको ज़लील करते हैं. मुस्लिम औरतों में ज़्यादः ही सुन्नत की पाबंदियां हैं, जब कि इनको बेदार होने की ज़रुरत है.

 
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(मुस्लिम - - - किताबुल इमारत)


मुहम्मद कहते हैं मन्दर्जा ज़ेल लोग मरने के बाद शहीद होते हैं - - -
१- जो अल्लाह के नाम पर शहीद हो जाए, मसलन हज के सफ़र में या जंग के सफ़र में या मैदाने-जंग में मरें.
२- ताऊन की बीमारी में मरने वाले .
३- जो लोग पानी में डूब कर मरते हैं.
जो दीवाने के मुंह से निकल जाए, वह अल्फज़े-अक्दास हुए, वह हदीस शरीफ़ और वह कुरआन शरीफ़ बन जाते हैं.
मैदाने-जंग में मरना =शहीद होना होता है, हुकूमतों का बनाया हुवा सरकारी नारा है, जो बिल आख़िर उनके काम ही आता है. ताजः मिसाल लीबिया की लेली जाय तो कर्नल गद्दाफ़ी के लिए मरने वाले जवान और उसके खिलाफ लड़ने वाले जवानों में दोनों ही शहीद कहे जाते हैं और दोनों ही ग़द्दार भी.
हज का सफ़र रूहानी अय्याशी के सिवा और क्या है?
दूसरी असल सूरत अरबियों की माली इमदाद करना है जो की मुहम्मद की नियत थी हज को कामयाब करने की .
ताऊन और पानी में डूब कर मने वाली मौत किस तरह शहादत हुई?
ऐसी ऐसी बीमारियाँ हैं कि जिसमे मुब्तिला होकर इंसान पल पल कर के बरसों मरता है. जब कि ताऊन में पडोसी को दफ़ना कर आए और खुद दफ़्न होने को तैयार पड़े हैं.
पानी में डूबना सिर्फ पाँच मिनट की अज़ीयत है.
ऐसी बेबुन्यद बातें मुस्लिम समाज की तकदीर बनी हुई हैं.


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Wednesday 19 October 2011

Hadeesi Hadse (10)

(मुस्लिम - - - किताबुल फितन व् अशरातुल साइतः)


काबे का हश्र


अबू हरीरा से हदीस है कि मुहम्मद ने कहा,
"काबा को ख़राब करेगा छोटी छोटी पिंडलियों वाला एक हब्शी और मुस्लमान दुन्या से उठ जाएँगे, जब वह मरदूद हब्शी यह कम करेगा."
दर असल मुहम्मद जिस जोर ओ जब्र से काबे पर फतह पाई थी, वह उनकी हिकमत ए अमली का जाहिराना तरीक़ा था. उनको अहसास था कि इसका अंजाम मुस्तकबिल में बुरा होगा. इस हदीस में उन्हों ने अपना अंदेशा ज़ाहिर किया है.
फतह मक्का में इस ज़ोर का यलग़ार था कि अहले मक्का ख़मोश बुत बन गए थे. इस्लामी ओलिमा इस वाकिए का ज़िक्र इस तरह करते हैं कि बगैर खून ओ क़त्ल के मक्का की फतह हुई थी जब कि असलियत यह है कि जुबान खोलने की सज़ा पल भर में क़त्ल का हुक्म हो गया था.
इब्न ए खतल काबे के गिलाफ को पकड़ कर ज़ार ओ क़तार रो रहा थ, यह बात मुहम्मद तक पहुँची कि इब्न ए खतल गिलाफ़ को छोड़ नहीं रहा, हुक्म मुहमदी हुवा कि उसको क़त्ल करदो. और इस मामूली सी जज़्बाती अम्र पर गरीब की जान चली गई.
काबे का हश्र कोई हब्शी क्या करेगा, वह तो ज़्यादः हिस्सा इस्लाम के शिकार हैं, मगर हाँ यहूदियों ने काबा ए अव्वल पर क़ब्ज़ा कर लिया है और उनका मिशन है कि वह अपने आबाई मरकज़ काबे पर एक रोज़ ज़रूर ग़ालिब हो जाएँगे. मुसलमान इसके लिए तैयार रहें. हर ज़ुल्म का अंजाम शर्मिंदगी होती है. 
(बुखारी २५)


बे सूद अमल


अमल-ए-अफ़ज़ल के लिए मुहम्मद कहते हैं कि
"पहला अमल है कि अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान रखना.
दूसरा अमल है अल्लाह की रह में जिहाद करना.
और तीसरा अमल है हज.
*पहला अमल तो कोई अमल ही नहीं है.
ऐ उम्मी मुहम्मद! अमल होता है हाथों और पैरों से कुछ करना जो ज्यादः तर पेट के लिए होते हैं.
अक़ीदा को अमल बतलाने वाले अल्लाह के झूठे रसूल को मानने वाले
ए बेवकूफों! कुछ शर्म करो कि इक्कीसवीं सदी में साँस ले रहे हो.
*दूसरा अम्ल जिहाद ? दर असल जो बद अमली है
अमन लोगों को बद अमन करना, उन्हें क़त्ल करना
फूँकना और उनको जज्या जज़या देने पर मजबूर करना.
यह बद आमालियाँ भी मुहम्मद के हिसाब से दूसरा अमले-मुक़द्दस है.
*हज एक का सफ़र का नाम है जिसमें रूहानी अय्याशी छिपी हुई है.
जब हम इस्लामी रूह से आज़ाद हो जाएँगे तो सफ़र-हकीकी शुरू होगा, दुन्या को देखने कि हसरत पूरी होगी अरब के रेगिस्तान से हट कार.
सफ़र हज सफ़रे-नाक़िस है.
कुरान में आए बार बार नेक अमलों को समझने के लिए यह हदीस खास है.
इन्सान और इंसानियत के हक में आने वाले भले काम, जैसे सच बोलना, हक़ हलाल की रोज़ी अपनाना, रोज़गार फ़राहम करना,
खिदमते ख़ल्क़ के काम, जैसे किसी काम की तलकीन कुरआन और हदीस में नहीं है.
बहाउल्लाह कहता है ---
" ए वजूद की औलादो ! आखिरी हिसाब होने से पहले, हर रोज़ तुम अपने आमाल की जाँच कार लिया करो क्यूँकि मौत की आमद अचानक होगी और तुम को अपने आमाल की तफ़सील पेश करने को कहा जाएगा."
बहा उल्लाह के आमाल वही हैं जो मैंने ऊपर दर्ज किए हैं. इन्ही आमल से हमारी दुन्या आज भरपूर ईजादों का समर पा रही है.
 
(मुस्लिम - - - किताबुल ईमान)


अल्लाह निपटेगा

अबू हरीरा कहते हैं कि
"मुहम्मद के मौत के बाद मक्का में लोग इस्लाम से मुँह मोड़ कर फिर अपने पुराने मअबूदो की इबादत करने लगे. ख़लीफ़ा अबू बकर ने इनके खिलाफ जंग का एलान इस पाबंदी के साथ किया कि वह
"लाइलाहा इल्लिलाह" पर क़ायम रहें और सदक़ा दें. बाक़ी अरकान (मुहम्मदुर रसूल लिल्लाह ) न माने तो इनसे अल्लाह निपटेगा. "
*मुहम्मद के तरीक़ा ए कार से लोग काँपने लगे थे क्यूँकि उनकी सज़ा इबरत नाक हुवा करती थी. उनकी मौत के बाद मक्का के लोगों ने चैन की साँस ली और उनके मुसल्लत किए हुए जब्र

"मुहम्मदुर रसूल लिल्लाह"

से आज़ाद हो गए.
अबू बकर ने सियासत से काम लिया कि उनको

"मुहम्मदुर रसूल लिल्लाह"

से आजाद कर दिया. लोग मान गए कि उनको राह-रास्त पर आमे कि छूट मिल गई , क्यूंकि "लाइलाहा इल्लिलाह"

से कोई पहले भी मुनकिर न था. साथ में उनको एक मज़बूत दिफाई सहारा भी मिला. अबू बकर के बाद शिद्दत पसंद हुक्मरानों ने फिर "मुहम्मदुर रसूल लिल्लाह " की शिद्दत को लागू कर दिया और इस्लामी निज़ामे-नामाकूल दुन्या पर लाद दिया. इस्लाम तलवार से ज्यादह अपने ओलिमा कि कज अदाइयों से मुक़द्दस बन गया है. आज भी यह लोग इस्लामी चरागाह में अच्छी खुराक पाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते.


Sunday 16 October 2011

Hdeesi Hadse (9)

(बुखारी - - - २१)


कैसे हुई दुन्या की बीस फी सद आबादी


इब्न उमर से हदीस है कि मुहम्मद ने कहा - - -
"हमें लोगों से उस वक़्त तक जिहाद करना चाहिए, जब तक कि वह 'ला इलाहा इल्लिल्लाह, मुहम्मदुर रसूल अल्लाह' न कह दें और नमाज़ ओ ज़कात अदा न करें, लेकिन जब वह इस उमूर को अदा कर लें तो, उन्होंने अपने जान और माल को मेरी जानिब से महफूज़ कर लिया."
*यह हदीस गवाह है कि मुहम्मद का मिशन क्या था? दीन या दौलत ? उस वक़्त 'ला इलाहा इल्लिल्लाह मुहम्मदुर रसूल अल्लाह' पर कायम हो जाना ही इंसानी बका की मजबूरी बन गई थी.
मुसलमानों!
यह तो ईमान की बात न हुई,
हाँ! इस्लाम की बात ज़रूर है जिसे तुम तस्लीम किए हुए हो.
अपने अजदाद तक जाओ जिन्हों ने इस्लाम को कुबूल किया होगा कि उनके आँखों के सामने मौत खड़ी रही होगी, जब वह मुसलमान हुए होंगे.


अपनी माओं के खसम; आलिमान दीन इन मज़्मूम हदीसों को तुम्हें पढ़ाते है कि उनकी हराम खोरी कायम रहे. हर ओलिमा में छोटे मुहम्मद बैठे हैं जो दर अस्ल क़ुरैश्यों के लिए इस्लाम की दूकान खोली थी. 'ला इलाहा इल्लिल्लाह मुहम्मदुर रसूल अल्लाह' कलमा ए तय्यबह नहीं बल्कि कालिमा ए कुफ्र है.
सूफी हसन बसरी और राबिया बसरी तबेईन में आला मुकाम हस्तियाँ हुई हैं इनकी मकबूलियत का यह आलम था कि इनके सामने इस्लाम को पसीने आ गए थे.


हसन बसरी को एक दिन लोगों ने देखा गया कि वह एक हाथ में पानी का लोटा लिए और दूसरे हाथ में जलती मशाल लिए भागे चले जा रहे थे.
लोगों ने उन्हें रोका और पूछा कहाँ?
हसन बोले जा रहा हूँ उस जन्नत को आग के हवाले करने जिसकी लालच से लोग नमाज़ें पढ़ते हैं और जा रहा हूँ उस दोज़ख में पानी डालने कि जिसके डर से लोग नमाज़ पढ़ते हैं .
अगर उस वक़्त सूफी को लोग समझ जाते तो इन गधो के सर पे इस्लामी सींगें न उगतीं, बल्कि इनके सर में भेजा होता.
ज़ालिम ओ जाबिर और माल ए गनीमत के आदी बन चुके हुक्मरानों ने बे बुन्याद इस्लाम की जड़ों की आब पाशी कर रहे थे. हसन उस वक़्त के हाकिम हज्जाज़ बिन यूसुफ़ के डर से अबू खलीफा के घर में छिपे हुए थे. देखिए कि उस वक़्त का बेदार हदीस मज्कूरह में क्या इजाफा करता है, जो सिर्फ 'ला इलाहा इल्लिल्लाह को मानता था और मुहम्मदुर रसूल अल्लाह को नहीं.


(मुस्लिम - - - किताक्बुल फितन ओ शरातु-स्साइता)


मअबद बिन हिलाल अज़ली से रिवायत है कि अनस बिन मालिक काफ़ी ज़ईफ़ हो चुके थे हम सकीब की सिफ़ारिश के साथ इन से मिलने पहुंचे कि कोई हदीस सुनाएँ. उन्हों ने सुनाया कि मुहम्मद ने कहा
"क़यामत का दिन होगा तो लोग घबरा कर एक दूसरे के पास भागेंगे.
पहले आदम के पास जाएँगे, लेकिन वह कहेंगे, मैं इस लायक नहीं, तुम लोग इब्राहीम के पास जाओ, वह अल्लाह के दोस्त हैं.
लोग इब्राहीम के पास जाएँगे, वह कहेंगे कि मैं इस काबिल नहीं तुम लोग मूसा के पास जाओ वह कलीमुल्लाह हैं,
वह कहेंगे मैं इस लायक नहीं, तुम लोग ईसा के पास जाओ वह रूहुल्लाह हैं,
ग़रज़ वह भी टाल देंगे और मुहम्मद के पास भेज देंगे.
लोग मेरे पास आएँगे और मैं कहूँगा, और उस के सामने खड़े होकर दुआ माँगूंगा. उसकी ऐसी तारीफ़ बयान करूंगा कि वह जवाब में इंकार नहीं कर सकता. मैं अपना सर सजदे में डाल दूँगा, अल्लाह कहेगा मुहम्मद उठ तेरी दुआ कुबूल हुई. माँग, क्या चाहता है?
मैं कहूँगा, मेरी उम्मत! मेरी उम्मत!!
हुक्म होगा जिसके दिल में गेहूं के या जौ के बराबर भी ईमान है, निकाल ले दोज़ख से,
मैं अपने तमाम लोगों को निकाल लूँगा दोज़ख से
फिर आ कर मालिक की वैसी ही तारीफें करुँगा और गिर पडूंगा सजदे में,
हुक्म होगा ऐ मुहम्मद! अपना सर उठा, कह जो कहना है, तेरी बात सुनी जाएगी, मांग जो मांगना है, सिफारिश कर तेरी सुनी जायगी.
मैं अर्ज़ करुँगा, मालिक! मेरी उम्मत! मेरी उम्मत !!
हुक्म होगा निकाल ले जिसके दिल में राइ बराबर भी ईमान हो,जहन्नम से. मैं ऐसा ही करूँगा
और फिर लौट कर आऊँगा और मेरी उम्मत! मेरी उम्मत!! का गुहार लगा दूँगा और
अल्लाह हस्ब ए आदत कहेगा जा निकल ले अपनी उम्मत को जिसके दिल में राइ के दाने से भी कम, बहुत कम, बहुत कम ईमान हो.


इसके बाद मअबद बिन हिलाल हसन बसरी के पास पहुँचे और बातों बातों में हदीस मज़्कूरह उन्हें सुनाया. हसन ने कहा ये हदीस बीस साल पहले उन्हों ने मुझे सुनाई थी, जब वह जवान थे, तुमको अधूरी सुनाई है, मुमकिन है भूल रहे हों. काफ़ी बूढ़े हो चुके हैं या को मसलेहत हो, मगर तुमको बाक़ी मैं सुनाता हूँ कि मुहम्मद चौथी बार अल्लाह के पास जाएँगे और
वह कहेगा ए मुहम्मद सर उठा मैं सुनूंगा, मांग मैं दूंगा, सिफारिश कर मैं कुबूल करूंगा.
उस वक़्त मैं कहूँगा ए मालिक मुझे इजाज़त दे उस शख्स को भी जहन्नम से निकलने की, कि जिसने ला इलाहा इल्लिलाह कहा हो.
अल्लाह तआला फरमेगा,
नहीं! मगर क़सम है मेरे इज्ज़त और बुज़ुर्गी की और जाह ओ जलाल की कि मैं निकालूँगा उस शख्स को जिसने ला इलाहा इल्लिलाह कहा हो.


इस लामतनाही कायनात का निज़ाम मुद्दत-गैर मुअय्यना से कोई ताक़त है जो चला रही है. इसी को लोग कहते हैं
"ला इलाहा इल्लिलाह"
न यह मुहम्मद का नअरा है न इस्लाम का बल्कि कबले-इस्लाम बहुत क़दीमी है. यह नअरा है, जो उस ताक़त को मुख़ातिब करता है. यह नअरा यहूदियों, ईसाइयों, काफिरों, मुल्हिदों बुत परस्तों और संत सूफियों सभी का रहा है. अनल हक़ के नअरे में भी इसकी गहरई छिपी है. जिनको इस्लाम सूली पर चढ़ाता रहा है. बुद्ध की शांति, कबीर की उलटवासी, नानक का तेरह तेरह, ग़ालिब का "डुबोया मुझको होने ने, न मैं होता तो क्या होता" में इसी "ला इलाहा इल्लिलाह" की आवाज़ छिपी हुई है, इस राज़ को लिए हुए कि कोई ताक़त है
"मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह " इस मुक़द्दस नअरे के साथ जोड़ कर मुहम्मद वह मुजरिम है जिन्हों ने कुफ्र की ईजाद की है.
*मज़्कूरह हदीस से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि मुहम्मद क्या थे. इनकी पैगम्बरी क्या बला थी, इनके अगराज़ओ मक़ासिद क्या थे,
इस्लाम की कौन सी खूबियाँ हैं जो इंसानी ज़िन्दगी के लिए सूद मंद हैं?
 

Saturday 8 October 2011

HADEESI HADSE (8)



मुस्लिम . . . किताबुल ईमान

अंसार और अली मौला


"अंसार और अली से मुहब्बत रखना ईमान में दाखिल है और इनसे बुग्ज़ रखना निफ़ाक़"
इस्लाम जेहनी गुलामी का इक़रार नामा है जिसको तस्लीम करके आप अपनी सोच ओ समझ का इस्तेमाल नहीं कर सकते. अली मौला मुहम्मद के दामाद थे इस लिए तमाम मुसलामानों के दामाद हुए. इनके अमले-बेजा को नज़र अंदाज़ करना चाहिए, चाहे वह पहाड़ जैसी गलती हो. कमज़ोर तबा अंसारी मुहम्मद को झेलते रहे. अली और अंसार को न खातिर में लाने से आप खरिजे-ईमान हो जाएँगे. और फिर ख़ारिज-इस्लाम.
अगर सच्चे ईमान दारी पर इन्सान आ जाए तो इस्लाम दारी की हकीकत वह खुद ही समझ जाएगा.


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(बुखारी 17)


अन्सरियों का एहसान

अनस कहते हैं मुहम्मद ने फ़रमाया
"अनसारियों से मुहब्बत ईमान है और उनसे बुग्ज़ निफ़ाक़ है."
मैं एक बार फिर दोहरा दूं कि इस्लाम में ईमान का मतलब ईमान दारी नहीं बल्कि मुहम्मद के फ़रमूदात पर यक़ीन और अक़ीदा है. चूँकि अनसारियों ने मुहम्मद पर, मदीने में पनाह देकर एहसान किया है, बदले में तमाम मुसलमानों का ईमान उनको हासिल हो गया.

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(मुस्लिम . . . किताबुल ईमान)


पहले मा बदौलत


 अनस से रवायत है कि मुहम्मद का फ़रमान है कि

''कोई शख्स मोमिन नहीं होता, जब तक कि इसको मेरी मुहब्बत माँ बाप औलाद और सब से ज्यादा न हो."

यह हदीसें उस ज़माने की हैं जब मुहम्मद को मुकम्मल तौर पर इक्तेदार मिल चुका था. गलिबयत का उनको गररा था कि इनकी बात न मानना अपनी मौत को दावत देना था. आगे हदीसों में देखेंगे कि अपनी बातों को न मानने वालों को वह क्या क्या सज़ा दिया करते थे.

हर मखलूक का मकसदे हयात होता है कि वह अपनी ज़ात को अपनी नस्ल (औलाद) कि शक्ल में इस ज़मीन को आबाद रहने दे. मुहम्मद का फ़रमान मान कर शायद मुसलमान इससे मुंह मोड़ सकते है.


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(मुस्लिम . . .किताबुल फितन व् अश्रात उल साएता)


क़सरा का खज़ाना
अबू हरीरा कहते हैं क़सरा (ईरान का बादशाह) मर गया, अब इसके बाद कोई कसरा न होगा. जब कैसर (रोम का बादशाह) को फतह कर लेंगे तो कोई कैसर न होगा. क़सम है उसकी जिसके हाथ में मेरी जान है, तुम इन दोनों खज़ानों को खुदा की राह में खर्च करोगे.
* ईरान पर बिल आखीर इस्लाम ने फ़तह पाई और वह हुसैन की ससुराल बना. शिअय्यत इस पर ग़ालिब हुई. जब से इस्लामी परचम के ज़ेर असर ईरान आया, बरसों पुरानी तहजीब व् तमद्दुन उससे रुखसत हुए. इस्लामी खून कुश्त के आगे ईरान दोबारा सुर्ख रू न हुवा. ज़र्थुर्थ जैसे हक़ीक़ी पैग़म्बर ईरान के माज़ी बन गए, जिसने कहा था कि उसके खुदा का फ़रमान है कि
"तू मेरी मखलूक पर वैसे ही मेहरबान हो जा, जैसे मैं तुझ पर हूँ."
ज़र्थुर्थ की आवाज़ ए खुदावन्दी की जगह पर ईरान में मौजूदा क़ुरआनी आयतें चौदह सौ सालों से ग़ालिब है.
क़ुरआनी आयतें जो रुस्वाए ज़माना हैं.
दुन्या कहाँ से कहाँ पहुँच गई है, ईरान में क़ुरआनी निजाम उसको भेदे जा रहा है. देखिए कि कितने आयत उल्लाह खुमैनी और पैदा हों, उसके बाद कब कोई कमाल पाशा पैदा होता है. या इससे पहले ही इस्लाम इसे दूसरे की खुराक बना दे.
इसलाम के सताए ईरानी पारसी कौम का वाहिद फ़र्द , टाटा ईरान की पूरी मुआशियत को तनहा टक्कर दे सकता है.
रोम का कैसर तो दो चार बरसों के लिए ईरानी चंगुल में आया और निकल गया और आज भी दुन्या में सुर्खरू है.  

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(बुखारी २२)


कुरता ज़मीन पर लुथ्ड़े मगर तहबन्द नहीं

मुहम्मद कहते हैं कि "एक रोज़ मैं सो रहा था कि मेरे सामने कुछ लोग पेश किए गए जिनमें से कुछ लोग तो सीने तक कुरता पहने हुए थे और बअज़े इससे भी कम. इन्हीं लोगों में मैंने उमर इब्न अल्खिताब को भी देखा जो अपना कुरता ज़मीन पर घसीटते हुए चल रहे थे. लोगों ने इसकी ताबीर मुहम्मद से पूछिए तो बतलाया यह कुरता ए दीन है "
यह है मुहम्मद की मजहबी बिदअत जो लोगों को पैरवी करने पर पाबंद किए हुए है, जिसकी कोई बुन्याद नहीं है. पैरवी में अलबत्ता लोग मज़हक़ा खेज़ लंबे लंबे कुरते पहेनना सुन्नत समझते है जिस पर घुटने तक उटंग पैजामा और भी नाज़ेबा लगता है.
कहते हैं कुछ कुरते सीने तक कुछ इससे भी कम ? क्या कुरते का कालर भर उनका लिबास था? या चोली भर? या बिकनी जैसा कुरता?
मुहम्मद की किसी बात की कोई माकूल दलील नहीं. आगे एक हदीस इसके ब़र अक्स आएगी कि तहबन्द लूथड़ी तो गए जहन्नुम में.

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Sunday 2 October 2011

हदीसी हादसे (७)

मुस्लिम . . .किताबुल ईमान


अली मौला की तक़रीर


अली मौला फरमाते हैं

"क़सम उसकी जिसने दाना चीरा और जान बनाई, रसूल अल्लाह ने मुझ से अहद किया था, नहीं रखते जो मुहब्बत मुझ से वह मोमिन नहीं. नहीं रक्खेगा जो दुश्मनी मुझ से वह मुनाफ़िक़ नहीं"
अली को मुसलमान बेहद ज़हीन और क़ाबिल मानते हैं, शियाओं ने तो उनके ज़र्रीन कोल गढ़ रक्खे हैं. अली के जुमले पर गौर हो कि उनके ससुर ने उनसे अहद कर रखा था, उन बातों की जो कि उनके बस में थी ही नहीं, मगर मुहम्मद और अली अपने ज़ेहनी मेयार के मुताबिक कुछ भी कह सकते हैं.
हदीस में अली की टुच्ची नियत अपने हैसियत की आइना दार है. खुद को मनवाने और पुजवाने के लिए ऐसे घटिया हरबे इस्तेमाल का रहे हैं.


एक और हदीस का टुकड़ा है कि अली बहुत खुश थे कि उनको दो ऊँट माले-गनीमत में मिले थे, सोचा था की इन ऊंटों पर घास खोद कर लाऊंगा और बाज़ार में फरोख्त करूंगा तो कुछ पैसे जुटेंगे फिर फातिमा का वलीमा करेगे मगर शराबी हम्जः ने उनके अरमानों का खून कर दिया, एक तवायफ के कहने पर कि वह चाहती थी कि अली को मिले दोनों ऊंटों के गोश्त का कबाब खाऊँ.
ऐसी ही अली मौला की हरकतें हदीसों और तारीखी सफ़हात पर मिलती हैं कि कभी वह किसी बस्ती को आग के हवाले करके जिंदा इंसानों को जला देते हैं तो कभी अबू जेहल की बेटी से शादी रचाने चले जाते हैं.
अली का बचपन से ही किताब और क़लम से दूर दूर तक का कोई वास्ता न था. ज़हानत तो इन में छू तक नहीं गई थी. हैरत होती है कि आज इनके फ़रमूदात के किताबों के अम्बार हैं, यह सब उनके खानदान शियों के कारनामें है. एक घस खुद्दे को इन आलिमों ने क्या से क्या बना दिया है.


(बुखारी १९)


हलीमा दाई की बकरियों को चराने वाले


मुहम्मद कहते हैं

"ऐसा ज़माना आने वाला है कि आदमियों का बेहतर माल बकरियां होंगी. अपना दीन बचाने की ग़रज़ से वह इनको सब्ज़ा जारों और पहाड़ों पर लिए फिरेगा ताकि फ़ितनों से महफूज़ रहे"
मुहम्मद गालिबन अपनी फ़ितना साज़ी के अंजाम की इबरत अख्ज़ कर रहे है. वैसे बकरियाँ मुहम्मद को बहुत पसंद थीं. वह अक्सर उनकी आराम गाहों (बाड़ों) में नमाज़ें अदा करते, नतीजतन उनके कपडे हमेशा मैले और बुक्राहिंद बदबू दार हुवा करते.

पकिस्तान में किसी ईसाई के मुँह से यह बात निकल गई थी, वहां के आयत उल्लाओं ने उसे फांसी की सज़ा दे दी थी.
योरोप और अमरीका के बदौलत तेल के खज़ाने अगर अरबों को न मिलते तो आज भी वह बकारियाँ चराते फिरते. अफ़गानिस्तान जैसे कई मुस्लिम देश ऐसे हैं जहाँ लोग जानवरों के रह्म ओ करम पर अपना पेट पालते हैं. तमाम इंसानी चरागाहें, इस्लामी चरागाहें बनी हुई हैं