Friday 30 September 2011

Hadeesi hadse (6)

(मुस्लिम . . . किताबुल ईमान)


ईमान का मज़ा चख्खा


अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब कहते हैं कि मुहम्मद ने कहा

" ईमान का मज़ा चक्खा उसने जो राज़ी हो गया खुदा की खुदाई पर, इस्लाम के दीन होने पर और मुहम्मद की पैगम्बरी पर"
वाकई!

कुछ सदियाँ ज़ुल्म ढाने में मज़ा आया,

उसके बाद झूट को जीने में

और अब झूट की फसल काटने मुसलामानों को मज़ा आ रहा है.

हर मुसलमान छटपटा रहा है कि वह क्या करे, और कहाँ जाए.

अल्लाह उनको बुला रहा है इधर आओ; अभी मेरी दोज़ख का पेट नहीं भरा है.

दुन्या उन्हें बुला रही है कि अभी तुम्हारे आमाल की सजा` तुमलो नहीं मिली है; हिसाब अभी बाकी है.

आलिम ए बातिल मुसलमानों को खींच रहे हैं कि हम मुहम्मदी शैतान हैं, तुम को गुमराह करता रहूँगा, आओ मेरी तरफ़ आओ; नमाज़ों के लिए अपने सर पेश करो,

तुम्हारे वजूद से ही हम शैतानो का वजूद है. जब तक तुम में एक सफ़ भी नमाज़ के लिए बची रहेगी, मैं बचा रहूँगा.
ईसा की बात याद आती है, कहा - - -
" कोई अच्छा पेड़ नहीं जो निकम्मा फल लाए, और न ही कोई निकम्मा पेड़ है जो अच्छा फल लाए" इस्लाम का निकम्मा पेड़ मुसलामानों को बे कीमत किए हुए है.


(बुखारी २०)


आप की क्या बात है


एक रोज़ मुहम्मद के हम असरों ने एह्तेजाजन मुहम्मद की चुटकी ली कि

" हम आप की तरह तो हैं नहीं कि थोड़ी इबादत करें या ज़्यादः , बख्श दिए जाएँगे. क्यूंकि आप के तो अगले पिछले सब गुनाह मुआफ़ हैं. यह सुनकर हज़रत गुस्से से तमतमा उट्ठे और कहा मैं तुम से ज़्यादः अल्लाह से डरने वाला हूँ."
* कुरान में कई बार जानिब दार अल्लाह मुहम्मद को यक़ीन दिलाता है कि
" आप के अगले और पिछले तमाम गुनाह मुआफ़ किए "
इस छूट को लेकर मुहम्मद ने मनमाने गुनाह किए. उनका ज़मीर जब उन्हें कचोक्ता था तो वह अपने आप को गुनाहगार होने का एतराफ़ करते थे मगर ज़मीर कि आवाज़ को उनकी बे ज़मीरी दबा देती है. उन के फितरत का निगहबान उनका तखलीक करदा अल्लाह बन जाता हैथा. मुसलमान मजबूरन और मसलहतन उनको बर्दाश्त करते थे, इस लिए कि माले-गनीमत से वह भी फ़ायदा उठाते थे. उस वक़्त अरब में रोज़ी एक बड़ा मसअला था. लोगों के तअनों पर मुहम्मद आएं बाएँ शाएँ बकने लगते थे.


(मुस्लिम किताबुल ईमान)


जिब्रील के बल ओ पर . . .


"जिब्रील अलैस्सलम के छ सौ बाजू हैं" मार्फ़त मारूफ अब्दुल्ला बिन मसूद .
दूसरी हदीस सुलेमान शैताबी से है कि मुहम्मद ने कहा
" जिब्रील के छ सौ पंख हैं."
* इस्लामी खेल में जिब्रील का किरदार मुहम्मद ने जोकर के पत्ते की तरह इस्तेमल किया है. फ़रिश्ते जैसे मुक़द्दस किरदार को रुसवा किया है. मुहम्मद की हर मुश्किल में जिब्रील खड़े रहते हैं.चाहे जैनब के साथ इनका आसमान पर निकाह हुवा हो चाहे वह्यों की आमद रफत, जिब्रील इनके मदद गार हुवा करते हैं.

Saturday 24 September 2011

हदीसी हादसे (५)


दूसरी मश्क़



(बुखारी ४)


जाबिर कहते हैं कि मुहम्मद ने फ़रमाया - - -


"मैं रह गुज़र में था कि आसमान से आवाज़ आई, सर उठा कर देखता हूँ तो वही फ़रिश्ता घर वाला वाला कुर्सी पर बैठा नाज़िल है. घर आया चादर उढ़वाई. मैं डरा, दूसरी आयत उसने याद कराई. उसके बाद क़ुरआनी आयतें उतरने लगीं "


मुलाहिजा हो ग़ार वाला फ़रिश्ता आसमान पर राह चलते नज़र आता है वह भी कुर्सी पर बैठा हुवा. खैर यहाँ तक तो तसव्वुर किया जा सकता है, मगर यह कैसे हो सकता है कि हज़रात चलते रहे और फ़रिश्ता उनके सर पर उड़ता हुवा उनको आयतें याद कराता रहा?


क्या उसे ग़ार जैसी कोई दूसरी जगह नहीं मिल सकी कि जहाँ इस बार अपने नबी को बिना दबोचे पाठ पढाता.
अहमक अहले-हदीस कभी इन बातों पर गौर नहीं करते?


मुहम्मद के वहियों का खेल उनके घर से ही शुरू हुवा, जहाँ वह अपनी बीवी पर ही अपने झूट को आज़माते.मुहम्मद के जाहिल और लाखैरे जाँ निसारों ने इन बातों का यक़ीन कर लिया और बा शऊर अहल मक्का ने इसे नज़र अंदाज़ किया कि किसी का दिमाग़ी ख़लल है, हुवा करे. हमें इससे क्या लेना देना, इस बात से बे ख़बर कि यही जिहालत उन पर एक दिन ग़ालिब होने वाली है.


(मुस्लिम किताबुल - - - जिहाद +बुखारी ७)



दावत ए इस्लाम शाह रोम को



मुज़बज़ब और गैर वाज़ेह हदीस जोकि इमाम बुखारी ने लिखा, पढ़ कर हैरत होती है कि एक बादशाह की कहानी ऐसी भी हो सकती है. मुख़्तसर यह है कि मुहम्मद ने अबू सुफ़यान के ज़रीए शाह रोम हर्कुल को दावत ए इस्लाम भेजा, बड़े बे तुके हर्कुल के सवाल और सुफ़यान के जवाब के बाद, अबु सुफ़यान ने मुहम्मद की तहरीर शाह रोम को दी जिसे पढ़ कर वह और उसके दरबारी आग पा हो गए.


तहरीर कुछ ऐसी थी ही, इतनी आम्याना, कुछ इस तरह - - -



"शुरू करता हूँ मैं अल्लाह तअला के नाम से जो बड़ा मेहरबान और रह्म वाला है. मुहम्मद अल्लाह तअला के रसूल की तरफ़ से हर्कुल को मालूम हो, जो कि रईस है रोम का. सलाम शख्स को, जो पैरवी करे हिदायत की. बाद इसके मैं तुझको हिदायत देता हूँ इस्लाम की दावत; कि तू मुसलमान हो जा तो सलामत रहेगा( यानी तेरी हुकूमत, जान और इज्ज़त सलामत और महफूज़ रहेगी) मुसलमान हो जा अल्लाह तुझे दोहरा सवाब देगा. अगर तू न मानेगा तो तुझ पर वबाल होगा अरीसियीन का.

ऐ किताब वालो! मान लो एक बात जो सीधी और साफ़ है हमारे तुम्हारे दरमियान की, कि बंदगी न करें किसी और की, सिवा अल्लाह तअला के. किसी और को शरीक भी न ठहराव आखिरी आयत तक"



ख़त का मज़मून और अंदाज़ ए खिताबत से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि मुहहम्मद और उनके खलीफे कितने मुहज्ज़ब रहे होंगे. यह दावत ए इस्लाम है या अदावत ए इस्लाम?
एक देहाती कहावत है
"काने दादा ऊख दो, तुम्हारे मीठे बोलन"
इस्लामी ओलिमा इस ख़त की तारीफों के पुल बाँधते हैं. यह इस्लामी ओलिमा ही मुसलमानों का बेडा गर्क किए हुवे है.
इस पैगाम के एलान के बाद दरबार में मुहम्मद के खिलाफ़ हंगामा खड़ा हो गया. अबू सुफ्यान को सर पर पैर रख कर भागना पड़ा.

Friday 23 September 2011

हदीसी हादसे (४)


(बुखारी ३ _ मुस्लिम . . . किताब उल ईमान)



गार ए हिरा से इब्तेदा


मुहम्म्द गार ए हिरा में दिन भर का खाना लेकर चले जाते और पैगम्बरी की मंसूबा बंदी किया करते. आखिर एक दिन अपनी पैगम्बरी के एलान का फैसला कर ही लिया. सब से पहले इसकी आज़माइश अपनी बीवी खदीजा से किया. कहानी यूं गढ़ी कि मैं गार था कि एक फ़रिश्ता नाजिल हुवा और उसने कहा- - -
पढो!
मैंने कहा मैं पढ़ा नहीं हूँ
फ़रिश्ते ने मुझे पकड़ा और दबोचा, इतना कि मैं थक गया और उसने मुझे छोड़ दिया..
इसी तरह तीन बार फ़रिश्ते ने मेरे साथ (न शाइस्ता) हरकत किया और तीनो बार मैंने खुद को अनपढ़ होने का वास्ता दिया, तब इस (गैर फितरी मखलूक) की समझ में आया (कि वह जो कुछ पढ़ा रहा है वह बगैर किताब, कापी या स्लेट या अल्फाज़ का है)
चौथी बार मुहम्म्द को या फ़रिश्ते को अपनी गलती का एहसास हुवा कि बोला पढ़ - - -
इकरा बिस्म रब्बेकल आल़ल लज़ी . . . यानी पढ़ अपने मालिक का नाम लेकर
जिसने पैदा किया आदमी को खून की फुटकी से और पढ़
कि तेरा मालिक बड़ी इज्ज़त वाला है
जिसने सिखलाया क़लम से,
सिखलाया आदमी को जो वह जनता नहीं था"



यह होशियार मुहम्म्द की पहली वहयी की पुडया है जिसको गार ए हिरा से बांध कर अपनी बीवी खदीजा के लिए वह लेकर आए थे. सीधी सादी खदीजा मुहम्म्द के फरेब में आ गई. आज की औरत होती तो दस सवाल दाग कर शौहर को रंगे हाथो पकड़ लेती. और कहती खबर दार अब गार में मत जाना, जहां तुम्हारा शैतान तुमको इतनी बे वज़न बातें सिखलाता है और तुमको दबोचता है.
कलम से तो आदमी आदनी को सिखलाता है, या वह इज्ज़त वाला अल्लाह ?
झूठे कहीं के,
मक्कारी की बातें करते हो
डर और खौफ का आलम बना कर घर में मुहम्म्द घुसे और बीवी से कहा खदीजा मुझे ढांप दो कपड़ों से
मुआमला मंसूबा बंद बयान किया और कहा मझे डर है अपनी जान का .
खदीजा घबराईं और मुहम्म्द को लेकर गईं 'वर्का बिन नोफिल' के पास, जो रिश्ते में इनके चचा होते थे. जो नसरानी थे

बोलीं ऐ चाचा! अपने भतीजे की सुनो.
मुहम्म्द की गढ़ंत सुनने के बाद विर्का ने कहा "यह तो वह नामूस है जो मूसा पर उतरी थी. काश मैं उस वक़्त तक ज़िन्दा रह पाता जब तुमको तुम्हारी कौम निकाल देगी, क्यूंकि जब कोई शरीअत या दीन लेकर आया है तो उसकी कौम ने उसके साथ ऐसा ही किया है

Thursday 22 September 2011

हदीसी हादसे ३


हदीसें

बुखारी १
उमर बिन अल्खिताब कहते हैं "मुहम्मद का फ़रमान है नियत के इरादे से हिजरत का सिलह मिलता है, दुन्या हासिल करने की या औरत."
(बुखारी १)


औरत या दुन्या


बाबा इब्राहीम के वालिद आज़र (तौरेत में-तेराह) को उनके खुदा ने ख्वाब में कई बार कहा कि तू हिजरत कर, तुझको इस उजाड़ खंड के बदले दूध और शहद की नदियाँ दूंगा. बूढ़ा आज़र तो हिजरत कर न सका मगर अपने बेटे इब्राहीम को हिजरत के लिए आमादा कर लिया, साथ में उनके भतीजी सारा थी जिसे इब्राहीम से मंसूब किया था और दूसरे भाई का बेटा लूत भी साथ हुवा. यह तारीख इंसानी की पहली मुस्तनद हिजरत थी.
आज़र का ख्वाब हर यहूदी को विरासत में मिला. यहूदियों का हजारो साल से कोई मुल्क, कोई कयाम, कोई ठौर ठिकाना न हुवा. दूध और शहद का देश पा जाने के बाद भी नबियों के दिखाए हुए ख्वाब को पूरा नहीं समझते, क्यूं कि साथ में नबियों ने यह भी उनके कान में कह दिया था कि तुम दुन्या की बरतर कौम हो, बाकी सब तुम्हारे खादिम. दूध और शाहेद का देश तो मिल गया कोमों पर हुक्मरानी का ख्वाब शर्मिदा ए ताबीर न हुवा.
आज़र का ख्वाब ए हिजरत दर अस्ल मजबूरी में एक नाजायज़ क़दम था. हिजरत ने बड़े बड़े मज़ालिम ढाए हैं. अपने जुग्रफियाई हालत में बसी कौमों को हिजरत ने तबाह कर दिया है. अमरीका के रेड इन्डियन हों या भारत की कौम भर, आज ढूंढें नहीं मिलते. आज हिजरत के खिलाफ नए सिरे से दुन्या जाग रही है. हिजरत मुकामी लोगों का शोषण करने का नाम है.
मुहम्मद ने जान बचा कर अपने साथी अबुबकर के साथ मक्का से मदीना भाग जाने को हिजरत का नाम दिया है.
पैगम्बर का नजरिया मुलाहिज़ा हो कि मुहाजरीन की नियत कैसी होती है? दुनया हासिल करने की या औरत.
मुहम्मद ने हिजरत की मिटटी पिलीद कर दिया. इसमें आकबत और दीन दोनों गायब हैं. दीवाने मुसलमान हिजरत बमानी हिज्र, विसाल ए सनम , जो हो, या फिर दुन्या ?
क्या प़ा रहे है? या क्या चाहेंगे हिजरत करके.

बुखारी -२


वह्यी की आमद


आयशा मुहम्मद की बीवी कहती हैं कि उन्हों ने अपने शौहर से पूछा "
आप पर वह्यी कैसे आती है?
बोले
कभी अन्दर घंटी जैसी बजती है, इस सूरत में बड़ी गरानी होती है और कभी फ़रिश्ता बशक्ल इन्सान नाज़िल होकर हम कलाम होता है. मैं फ़रमान याद कर लेता हूँ. कहती हैं सर्दी के ज़माने में जब वह्यी आती है तो मुहम्मद के माथे पर पसीने की बूँदें निकल आती थीं."
(बुखारी -२)
आयशा सिन ए बलूगत में आते आते १८ साल की बेवा हो गईं. बहुत सी हदीसें इसके तवास्सुत से हैं. मासूम कमसिन क्या समझ सकती थी मुहम्म्द की वह्यों का गैर फितरी खेल?
जब मुहम्मद ने इस के ऊपर 'इब्न अब्दुल्ला इब्न सुलूल' की इलज़ाम तराशी के असर में आकर शक किया था और एक महीने आयशा से तर्क तअक्कुक रहे, तब भी शौहर मुहम्मद ने इसे मुआफ करने में इन्हीं वह्यों का सहारा लिया था और आयशा ने इनकी वह्यी को इनके मुंह पर मार दिया था. कहा था
मेरा खुदा बेहतर जनता है कि मैं क्या हूँ.
वह्यिओं का कारोबार मुहम्मद ने ऐसा ईजाद किया था कि मुसलमानों के दिलो दिमाग को वहियाँ, ज़ंग आलूदह कर गईं. मुहम्मद के पहले किसी पर वह्यी न आई मगर उनके बाद तो इसका सिलसिला बन गया.
हाँ! शैतान, भूत, परेत और जिन्न वगैरा मक्कार मर्द और मक्कार औरतों पर ज़रूर आते हैं जिनका इलाज पुरोहितों के झाड़ू से होता है.
मुसलमानों! जागो, कब तक इन वहियों पर यकीन करते हुए खुद को पामाल करोगे.


*****

Monday 19 September 2011

हदीसी हादसे (२)


हदीस


वैसे तो हदीस के लफज़ी मअनी हैं बात चीत, ज़िक्र और क़िस्सा गोई वगैरा मगर इसे इस्लाम ने जब इसका इस्लामी करन कर लिया तो इसके इस्लामी इस्तेलाह में मअनी बदल गए, जैसा कि और लफ़्ज़ों के साथ हुवा है. अब हदीस का अवामी मअनी हो गया है मुहम्मद की कही हुई बात या उनके मुतालिक कोई वाक़ेया. फ़तह मक्का के बाद हदीसों का सिलसिला रायज हुवा जो आज तक मुसलसल जारी है. मज़े की बात ये है कि मुहम्मद की या मिलावट की हदीसों में कोई फर्क महसूस नहीं होता.
हदीस के सैकड़ों आयमा और दर्जनों किताबें हैं मगर इन में सब से बड़े इमाम
"शरीफ़ मुहम्मद इब्ने इब्राहीम इब्ने मुगीरा जअफ़ी बुखारी" हैं, जिनको उर्फ़ आम में इमाम बुखारी कहा जाता है. यह बज़ात ए खुद और इनके अजदा आतिश परस्त और किसान थे. इमाम बुखारी बादशाह ए वक़्त यमान बुखारी के हाथों पर बैत करके इस्लाम पर ईमान लाए. इमाम बुखारी के बारे में अहले कालम ने बड़ी मुबल्गा आरियाँ कीं हैं. कुंद ज़ेहन ओलिमा लिखते हैं कि

उन्हों ने छै लाख हदीसों का मुआलिआ किया और उसकी तहकीक़ भी की. इनमे से तीन लाख हदीसें इनको हिफ्ज़ थीं. इबादत का यह आलम था कि तहज्जुद की तीन रातों में एक कुरान ख़त्म कर लेते और दिन में इफ्तार से पहले एक कुरान ख़त्म कर लिया करते. कोई हदीस लिखने से पहले दो रिकअत नमाज़ अदा करते.

ऐसी मुबालगा आराई को मुसलमान आलिम ही कर सकता है जिसके लिए इमाम बुखारी को दरकार होती कम से कम १००० साल की उम्र, जब कि पाई सिफ ६६ साल की उम्र.
इमाम बुखारी मुहम्मद के मौत के २०० साल बाद हुए, सिर्फ़ सोलह साल हदीसों पर रिसर्च किया,
ओलिमा लिखते हैं उन्हों ने छह लाख हदीसों का जाँचा परखा, इनमें से तीन लाख जईफ हदीसों को रद्द किया बाकी तीन लाख हदीसों को हिफ्ज़ किया, साथ साथ दिन में एक कुरआन ख़त्म करते और रात में एक तिहाई? इसके साथ रोज़ मर्रा के शगल ए खास - - - फरागत गुस्ल, खाना पीना फिर ज़रीया मुआश ? मुआशरती तक़ाज़े और दीगर मसरूफीयात वगैरा. लाखों हदीसों के मुहक्किक और लिखने पर आए तो सिर्फ़ २१५५ हदीसें ही दे पाए?
मुझे इमाम साहब से कोई गिला नहीं अफ़्सोस है तो इन अल्लाह के फ़सिक मुसंनफीन पर है कि वह मखलूक ए इंसानी को किस क़दर गुमराह करते है. ज़रा सा फायदा हासिल करने के लिए यह आलमीन अपना ईमान दाँव पर लगा देते हैं.

इनकी एक तहरीर देखें - - -
"अबू ज़ैद मूरूज़ी बयान करते हैं कि एक दिन मैं हरम मक्का में सो रहा था कि ख्वाब में मुहम्मद को देखा कि कहा, तू इमाम शाफई की किताब को कब तक पढेगा ? हमारी किताब को क्यूं नहीं पढता ?
मैंने पूछा या रसूलिल्लाह !आप की किताब कौन सी है?
हुज़ूर ने फ़रमाया, जो मुहम्मद बिन इस्माईल ने तालीफ़ की है ''
इस झूठे ने एक तीर से दो शिकार किए. सहीह बुख़ारी की अज़मत और इमाम शाफई की अहनत.

हदीसों के बारे में थोडा सा और जन लें कि हदीसें मुहम्मद के ज़माने में ही मुतनाज़िआ हो गई थीं. हल्काए खिलाफत के उम्मीद वारों ने हदीसी हवाले पर एतराज़ किया कि हर कोई इस के हवाले से अपनी बात कहता है लिहाज़ा यह सिसिला बंद किया है, इस पर मुहम्मद राज़ी हो गए थे. मुहम्मद के ससुर अबुबकर ने अपनी बेटी आयशा के सामने ५०० हदीसें नज़र ए आतिश किया जो उनको रास नहीं आती थीं. यहूदियों ने बर बिनाए मुखालिफत हदीसों का मज्हकः खेज़ अंबर गढ़ लिया था. एक ऐसा वक़्त आया कि खलीफाओं ने हदीसों पर पाबन्दी लगा दी थी.
मुहम्मद ख़त्म हुए, दौर ए ख़िलाफ़त ख़त्म हुवा, ताबेईन चल बसे, तबा ताबेईन भी क़ब्रों में दफ़न हुए, दो सौ साल बाद फिर हदीसों की वबा फैली. सैकड़ों मुहक़ककीन अज़ सरे नव पैदा हुए, उन्हें लगी हुई इस्लामी बंदिश की परवाह न रही, नतीजतन दर्जनों हदीसी तालीफ़ की क़ुतुब बजूद में आईं. इनमे बजी मारी इमाम बुखारी और दूसरे नंबर पर रहे इमाम मुस्लिम. बाक़ियों की गलीज़ तलीफें भी अहले हदीस चाट रहे हैं.
मुझे इमाम बुखारी से कोई शिकायत नहीं, बल्कि वह यकीनी तौर पर एक काबिले क़द्र हस्ती हुई. इनकी तालीफ़
" सहीह बुखारी" पर से सौ फी सद मुझे इत्तेफ़ाक़ है कि उन्हों ने हदीस में एक मुअल्लिफ़ का पूरी ईमान दारी के साथ मुज़ाहिरा किया है. न ही मुहम्मद की जानिब दारी की है, न आल ए रसूल का कोई लिहाज़ बरता है. मुताला ए हदीस बुखारी से हर एक की हैसियत और उसकी हकीकत का बखूबी अंदाज़ा लगाया जा सकता है, जिसको साहिब ए ईमान यह गाऊदी मुसलमान नहीं समझ सकते.
मुहम्मद की जालिमाना तबीयत, उनकी बे बुनियाद सियासत, उनकी बद खसलती और झूटी नबूवत का पता हमें इमाम साहब आईने की तरह दिखलाते हैं. साथ साथ सहाबियों और आल ए रसूल का बद नुमा चेहरा भी हमें साफ साफ नज़र आता है. बुखारी को पढ़ कर मुझे तौरेती तहरीर का गुमान होता है जिस में ममदूह के नापाक चेहरे भी हमें साफ नज़र आते हैं. इमाम बुखारी और इमाम मुस्लिम जाने माने हदीसी इमाम हैं. दोनों हम असर थे और एक ही मदरसे के तालिब ए इल्म थे. इनके उस्ताद मुहम्मद बिन याह्या ज़ेहली हुवा करते थे.
इमाम मुस्लिम का अपने उस्ताद से लफ्ज़ "ख़ल्क़" पर इख्तेलाफ़ हो गयाथा, अनबन हो जाने के बाईस उस्ताद से पाई हुई सारी हदीसें उनको वापस कर दिया, इसके बाद मुमालिक इसलामया का तवील दौरा किया और नए सिरे से हदीसों पर काम करना शुरू किया. इस्लामी कलम कार लिखते हैं कि उन्हों ने चार लाख हदीसें जमा की(अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि यह कितने अक्ल से पैदल होते हैं) इनका मुतालिआ किया और जांचा परखा, फिर इनको किताबी शक्ल दिया. इमाम साहब ने उम्र पाई थी फिरफ ५५ साल की जब कि इस काम के लिए १००० साल की उम्र दरकार है. इस्लामी अलिमो की कज अदाई हमेशा मुसलमानों के साथ रही है.
दुन्या के मुसलमानों के नजात का हल यही है कि इन फ़ासिक़ ओलिमा को चुन चुन कर इनसे वीराने में खेती कराई जाए या फिर इनको समंदर में डुबो दिया जाए.
इनकी तसानीफ़ को नज्र आतिश करना इंसानियत की रू से फ़र्ज़ अव्वलीन है. एक वक़्त आएगा जब इनके साए से लोग भागेगे जैसे खारिश ज़दा कुत्ते को देख कर भागते हैं.
एक मुहक्किक इस हदीसी दुन्या का , दूसरे मुहद्दिस हदीस दान के बारे में लिखता है,
"अब्दुल्ला बिन मुबारक से रिवायत है कि वह कहा करते थे कि अगर मुझे अख्तियार दिया जाता कि जन्नत में जाऊं या पहले अब्दुल्ला बिन मुहर्रिर से मिलूँ, तो मैं जन्नत बाद में जाता, पहले उन से मिलता. उनकी बड़ी तारीफ़ सुन रक्खी थी और उनसे मिलने का इतना इश्तियाक इस तौर पर बढ़ गया था, पर जब मैं उनसे मिला तो एक ऊँट की मेंगनी मुझे उनसे बेहतर मालूम हुई"
(मुक़दमा सही मुस्लिम)
तो यह हैं भरोसे मंद माज़ी के लोग जिनकी हदीसें हम बावज़ू होकर पढ़ते हैं. आज भी ऐसे लोग हमारे समाज में बकस्रत मिलते हैं जो ऊँट की मेंगनी से भी बदतर हैं या वह जो किसी इंसान की जगह ऊँट की मेंगनी लज़ीज़ पाते हैं.
जोहरी कहते हैं ,
"इस्लाम ज़बान से इकरार करना है और ईमान आमाल ए सालेह को कहते हैं. सहीह यह है कि इस्लाम आम है और ईमान खास. तो हर मोमिन मुस्लिम है मगर हर मुस्लिम मोमिन होना ज़रूरी नहीं. ईमान का अस्ल तसदीक़ है दिल से यक़ीन करना और इस्लाम का अस्ल फरमा बरदारी है.यानी इताअत "
(सहीह मुस्लिम - - - किताबुल ईमान)
ये है ईमान की वज़ाहत, ऐसे ही हर इन्सान को होना चाहिए.
मुहम्मद की एक हदीस ने मेरे वजूद को हिला कर रख दिया. इस को पढ़ कर गैरत को बहुत ठेस पहुंची. उनकी रही सही इज्ज़त मेरी नज़रों से जाती रही. किसी ने उनसे आकर दरयाफ्त किया - - -
" या रसूललिल्लाह मेरा बाप क़ब्ल नबूवत मर गया था, वह कहाँ होगा ? जन्नत में या दोज़ख में?
मुहम्मद का जवाब था कि दोज़ख में .
वह मायूस होकर ख़ामोशी से मुंह मोड़ कर जाने लगा कि मुहम्मद ने आवाज़ दी - - -
तेरा बाप और मेरा बाप दोनों दोज़ख में होगा.
मुहम्मद का दबदबा ऐसा था कि उनके जवाब पर सवाल करना गुस्ताखी मानी जाती थी. वह दिल मसोस कर चला गया
मुहम्मद जब अपनी माँ के पेट में थे तो उनके बाप की मौत हो गई थी. चालीस साल बाद उनको खुद सख्ता नबूवत की जल साज़ी मिली जिसके जाल में उन्हों ने अपने बाप को भी फंसाने में कोई रिआयत न की. जिस गरीब को इस्लाम की हवा भी न लगी थी .
ऐसी ही नमक हरामी उन्हों ने अपने चचा अबी तालिब के साथ भी की.कहा - - -
दोज़ख में उनके पैरों में आतिशी जूते होंगे जिसमें इनका भेजा पक़ रहा होगा.
मुहम्मद एक खुद परस्त इंसान थे, देखें कि क्या क्या इंसानियत सोज़ बातें की हैं. अकीदत की टोपी उतार कर और ईमान की ऐनक लगा कर उनके फ़रमूदात को पढ़िए, जांचिए और परखिए फिर सदाक़त पर ईमान लाइए.
आप बहुत ही बोझल तबई को ढो रहे हैं. हर मुसलमान लाशूरी तौर पर बोझिल है, वजह यह है कि वह झूट के जाल में फँसा हुवा है. सदाक़त को पाते ही आप के दिल का बोझ उतर जाएगा और आप महसूस करेंगे की आप बहुत ताक़त के मालिक है..

Friday 16 September 2011

हदीसी हादसे (1)


हदीसी हादसे


 मैं एक मोमिन हूँ और मेरा दीन है 'ईमान दारी.' दीन एक मुक़द्दस दरख्त है, ईमान इसका फूल है और मोमिन इसका फल.. इसी फल के बीज से फिर दरख़्त का वजूद फूटता है. दरख़्त में फूल अपने महक के साथ फिर खिलते हैं और फिर वह फल का दर्जा पाते हैं दीन के, दरख़्त, फूल और फल का सिलसिला यूं ही चलता रहता है.
इस ज़मीन पर ईमान का नक्श मौजूद, पैकर ए इंसानी है और इंसानी क़दरों का निचोड़ है ईमान. 'ईमान फ़र्द के अज़मत का निशान है.' दीन जो इंसानियत के वजूद से ताज़ा होकर इंसानों के लिए मक्नातीशी होता रहता है. लोग कहते हैं कि फलां शख्स बड़ा ईमान दार है यानी वह इंसानी क़दरों के क़रीब तर है. इस लिए लोग इसकी तरफ खिंचते है. इसकी बातों का यकीन करते है. इसके बर अक्स कहा जाता है . . . वह बे दीन है कमबख्त, यानी इंसानी क़दरों से दूर , हैवान नुमा.
दीन इंसान की दियानत दारी होती है और मोमिन का सिफत है ईमान.
अमन, अमीन, इन्सान , मोसिन और इंसानियत सब एक ही शजर क़ुदरती अल्फाज़ हैं, इन पर गौर करने की ज़रुरत है.
अफ़सोस कि दीन की जगह मज़हबी नुमाइश और धर्म के पाखंड ने ले लिए है. इनका दीन से दूर दूर तक कोई रिश्ता नहीं. नमाज़, रोज़ा, हज, ज़कात - - - वजू, रुकू, सजदा - - तहारत, नजासत, इबादत - - -तबलीग, तफ़सीर और जिहाद वगैरह मज़हबी कारसतानियाँ हैं, दीन नहीं. दीन दिल की गहराइयों से फूटा हुई एक पाकीज़ा वलवला है. धर्म कांटे पर तुला हुवा सच्चा वज़न है, मान लिया गया लचर अकीदा नहीं.
आदमी मफ़रूज़ः आदम से पहले ज़हीन तरीन जानवर का बच्चा हुवा करता था, फिर मफ़रूज़ः आदम की औलाद हुवा. जब वह मुहज्ज़ब होकर इंसानी क़दरों में ढला तो वह इन्सान कहलाया.
ग़ालिब का यह शेर मेरी बातों का अच्छा खुलासा करता है - - -


बस कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना,
आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्सां होना.


इंसानी तहजीब भी हर शै की तरह इर्तेकाई मराहिल से गुज़र रही है. कई ज़मीनी खित्ते ऐसे हैं, जहाँ आज भी आदमी जानवर के बच्चे की तरह है. कहीं कहीं अभी भी इन्सान आदमी के इर्तेकई मराहिल में पड़ा हुवा है और बहुत से दुन्या के खुश नसीब ज़मीनी टुकड़े हैं जहाँ के लिए कहा जा सकता है कि आदमी इंसान के मुकाम तक पहुँच चुका है. इंसानों को वहां पर हर इंसानी हुक़ूक़ हासिल हो चुके हैं.
अब हम आते हैं इस्लाम पर कि इस्लाम वह शर्त है जो तस्लीम हो. इस्लाम जिसे सब से पहले आँख मूँद कर बे चूँ चरा तस्लीम कर लिया जाए. इस्लाम को तस्लीम करने के बाद फ़र्द राह ए इंसानियत से हट कर सिर्फ़ मुस्लिम रह जाता है, मोमिन होना तो दूर की बात है.
इंसानी और ईमानी शजरे की मअनवी खूबयों का इस्लाम कोई वास्ता नहीं. यह इंसानी अलामतें इस्लाम से हजारों साल पहले से वजूद में आ चुकी हैं. सच्चाई तो ये है कि इस्लाम ने हमारी आँखों में धूल झोंक कर उन क़दरों को इस्लामी पैकर में बदल दिया है. सदियों बाद हमें लगता है कि दीन और ईमान इस्लाम की दी हुई बरकतें हैं. इसमें इस्लामी ओलिमा के प्रोपेगंडा का बड़ा हाथ है.
ईमान इस्लाम से हजारों साल पहले वजूद में आ चुका है, जब कि इस्लाम ने ईमान की मिटटी पलीद कर रखी है.
ईमान की बात यह है कि बे ईमानी और हठ धर्मी का नाम है इस्लाम.
एक अज़ीम हस्ती का कौल देखिए - - -
"ईमान दारी दर अस्ल यकीनी तौर पर अम्न के कयाम का दरवाज़ा है और खुदाए मेहरबान के सामने अक़ीदत का निशान है.जो इसे पा लेता है वह धन दौलत के अंबर प़ा लेता है. ईमान दारी इंसान के तहफ्फुज़ और इसके लिए चैन का सब से बड़ा बाब है. हर काम की पुख्तगी ईमान दारी पर मुनहसर करती है.आलमी इज्ज़त, शोहरत और खुश हाली इसी की रौशनी से चमकते हैं."
(बहाउल्लाह , बहाई पैगाम)