Wednesday 25 April 2012

Hadeesi Hadse 31


मुहम्मद ने जब पैगम्बरी का एलान किया था तो मक्का वासियों ने इनमें दिमागी ख़लल समझा. इसी रिआयत से इनका मज़ाक़ बना, मगर जब यह हदें पार करने लगे और लोगों  के माबूद (पूज्य) का अपमान करने लगे तो इन्हें हदों में रहने की चेतावनी मिलने लगी. इनके चचा और दादा समाज के बा-असर लोग हुवा करते थे इस लिए ये बचते रहे वर्ना मुहम्मद का काम तमाम कर दिया जाता. 
एक वाकिया इसी दौर का है कि मुहम्मद एक गली से गुज़रते तो एक यहूदी औरत इनसे नफ़रत के सबब इन पर घर का कूड़ा फेक दिया करती. एक रोज़ कूड़ा उन पर नहीं आया तो उसका दरवाज़ा खटखटाया कि आज कूड़ा क्यूं  नहीं आया? मालूम हुवा की उसकी तबयत ख़राब हो गई है, गोया इसे लोगों ने मुहम्मद का पुरसा बना दिया और फ़तह मक्का के बाद इस वाकिए को तूल देते देते इतना बढ़ा दिया कि उन्हें "मोह्सिने-इंसानियत" बना दिया गया. मुहम्मद की इस इकलौती नेकी के बाद उनकी इंसानियत के हक़ में की गई बदियों का सिलसिला फ़तह मक्का के बाद जब शुरू हुवा तो मुहम्मद दुश्मने-इंसानियत का निशान बन गए. 

इसी सिलसिले को हम आगे मुसलमानों के लिए पेश कर रहे हैं ताकि मुसलमान हकीकत को जानें और मानें . . . .    

फतह मक्का के बाद मुहम्मद का गलबा इतना बढ़ गया था कि उनके मुंह की निकली हुई बात कुरान और हदीस बनने लगीं. नव मुस्लिम लश्कर चारों तरफ़ जुल्म, बरबरियत और गनीमत का खेल खेलती थीं और मुहम्मद अपने चारों खलीफाओं के साथ मदीने में इस्लामी केंद्र बना कर लोगों क़ी आज़ादी के साथ खिलवाड़ करते रहे.
दुश्मने-इंसानियत का सिलसिला पेश है . इससे मुसलमानों की आँखें शायद खोल सकें - - - -  

दुश्मने-इंसानियत 
बुखारी नम्बर -१
मुहम्मद कहते है "आमाल का दारो-मदार नियत पर है जो शख्स जैसी नियत करेगा , वैसी जज़ा पाएगा . जिस शख्स की हिजरत दुन्या हासिल करने या किसी औरत से निकाह करने की नियत से होगी तो इसको यही चीज़ें हासिल होंगी (और बस)'
"जैसी नियत वैसी बरकत" कहावत की भद्द पीटते हुए  इसे मुहम्मद अपना रंग दे रहे हैं. जाहिर है तरके-वतन फर्द  दुन्या हासिल करने की नियत से ही करता है ताकि उसकी बदहाली दूर हो, यहाँ पर औरत हासिल  करने की नियत बे मौक़ा और बेमहल है. मुहम्मद की नियत हमेशा औरत पर रही है इस लिए उसको भी मंजिले-मक़सूद बना लिया है. मुहम्मद ने कभी औरत को इंसान का दर्जा दिया ही नहीं.
 क्या औरत हिजरत की नियत  नहीं कर सकती? तब इसके लिए मर्द हासिल करना मुहम्मद कहेंगे ?

बुखारी नम्बर -२ 
मुहम्मद से हारिश इब्न हुशशाम (जिनका नाम मुहम्मद ने अबू-जहल कर दिया था)  ने पूछा की उन पर वह्यी किस तरह नाज़िल हुवा करती है? 
बोले . . . कभी इस तरह आती है कि घंटी की तरह आवाज़ सुनाई देती है, लेकिन ऐसी वह्यी मुझ पर गराँ गुज़रती है. जब वह हालत दूर हो जाती है तो खुदाए- तअला  का फरमान होता है, मैं इसे महफूज़ कर लेता हूँ . कभी ऐसा होता है कि फ़रिश्ता मुझ पर बशक्ल इन्सान नाज़िल होता है और मैं उससे हमकलाम होकर अल्लाह तअला के फरमान याद कर लेता हूँ. 
मुहम्मद की पोती-नुमा बीवी आयशा कहती हैं कि उनके शौहर पर जब वह्यी नाज़िल होती तो बावजूद सर्दी के पेशानी पर पसीना की बूँदें ज़ाहिर हो जातीं.   
(मुहम्मद पर उनके अनुसार वह्यी यानी ईश-वाणी नाजिल (प्रगट) हुवा करती थी जोकि इनके ऊल-जुलूल और फुज़ूल बयान से ही रुसवाय-ज़माना क़ुरआन तय्यार हुवा है.) 
अरबी भाषा में कुदरत अथवा अल्लाह की बातचीत ग़ैर फ़ितरी  (अप्रकृतिक} है. इस तरह पूरा क़ुरआन ही मुहम्मद की बकवास है जिसमें मअनी व् मतलब भरने के लिए ओलिमा ने एडी-चोटी का ज़ोर लगा दिया है फिर भी नाकाम रहे. 

बुखारी नम्बर -३ 
मुहम्मद की पोती नुमा बीवी आयशा कहती हैं कि मुहम्मद पर वह्यी की शुरुआत इस तरह हुई कि मुहम्मद को ख़्वाब नज़र आते शब् को, जो कि सुब्ह रोज़ -रौशन की तरह  नमूदार हो जाते . . . .
पिछली वह्यी देखें कि मियाँ बीवी के बयान में इख्तेलाफ़ है जो आपस में दोनों को झूठा साबित करते हैं.
आगे कहती हैं इसके बाद मुहम्मद तन्हाई पसंद हो गए और गारे-हिरा में यकसूई और तन्हाई पसंद फ़रमाई और पूरी पूरी रात इबादत करने लगे. वह जितने दिनों के लिए ग़ार  में जाते उतने दिनों का खाना साथ ले जाते, जब खाना ख़त्म हो जाता ,फिर आकर ले जाते .
जो अल्लाह मुहम्मद के कान वह्यियों से भरता था, क्या उनका पेट खाने से नहीं भर सकता था? अल्लाह के लिए क्या मुश्किल था. कुन-फयाकूं भर की देर थी.
आगे कहती हैं कि इसी सूरत में वह्यिँ  आत्ती रहतीं कि एक दिन फ़रिश्ता मुहम्मद पर ग़ालिब होते हुए कहने लगा " पढ़!" मुहम्मद ने कहा इससे मैं पढ़ा लिखा नहीं हूँ, फिर उसने उनको दबोच कर कहा कि पढ़! मुहम्मद का उज्र वही था. तीसरी बार कहा किमैं नाख्वान्दः (निरक्षर) हूँ
 फिर फ़रिश्ता उनको चिम्टाते हुए कहा कि "पढ़, इक्रा बिस्म रब्बेकल लज़ी खलकः खलकः मिन अलकिंन्सान मिन अलक  . . . .
गौर तलब है कि घामड़  फ़रिश्ता मुहम्मद को बिना किसी किताब को सामने रख्खे हुए, ज़ोर डाल रहा था कि पढ़! बेचारे पूछ न पाए कि बिना सामने कोई तहरीर रख्खे हुए मुझ से क्या पढवाने को कह रहा है? बस कहते रहे कि मैं अनपढ़ हूँ. 
मुहम्मद ने इस वाकिए को गढ़ने में भी जिहालत की कि , फ़रिश्ते को कहना चाहिए , कह " इकरा बिस्म रब्बेकल लज़ी खलकः खलकः मिन अलकिंन्सान मिन अलक  . . . .  तब कहीं बात बनती.
आगे कहती हैं कि मुहम्मद हौले कांपते हुए घर आए और जोरू माता खदीजा से कहा मुझको जल्दी से चादर उढाओ, उनसे तमाम वक़ेआ बयान किया. खदीजा अपने अंधे ईसाई भाई विरका इब्न नोफिल के पास मुहम्मद को ले गई, जिसने इन्हें सुन कर मूसा जैसी अलामत बतलाई कि वह फ़रिश्ता जिब्रील है, हज़रत को देश निकला मिलेगा इसके बाद पैगम्बरी.
तहरीर बनावटी  है जिसमे साबित होता है कि मुहम्मद की चापलूसी में लिखी गई है 

जीम. मोमिन 

Wednesday 18 April 2012

hadeesi Hadse 30


सात बातों की लिस्ट है मगर छः बातें ही गिना पाए, सातवीं कोई बात मुहम्मद सोच भी नहीं पाए. इन छः कबीले -कद्र बात में ऐसी कोई नहीं जो इंसानी क़दरों में बरतर हों. बल्कि कई हैं जो नाक़द्री हैं. क्या सिर्फ़ मोमिना खातून पर ही इलज़ाम लगाना जायज़ नहीं? मुहम्मद को कोई इस्लामी रुसवाई याद है जिसका तअल्लुक़ आयशा से है.
ऊपर की ख़याली जन्नत की लालच में मुसलमानों की दुन्या पामाल है. 
रुवाए ज़माना जिहाद की कितनी कद्र व् मंज़िलत है, इसकी चर्चा हदीस और कुरान में जगह मिलता है . पूरी दुन्या में जिहाद के शैतान हाथ पाँव फैलाए हुए है जिसकी बदनामी मुसलमानों के सर है. क्या कभी मुसलमान इस पर गौर करते हैं.
रसूल की मरगूब गिज़ा जिहाद थी, उसके बाद ही दीगर काम. 
इस हदीस में दो बातें छिपी हुई हैं, पहली गवाह है कि मुसलमान माली लालच में ही जिहाद करते थे,कि ईमान उनमें था ही नहीं.दूसरे कि मुहम्मद जंगी मुजरिम साबित होते हैं.अबू सुफियन फ़तेह के एलान पर भी खामोश मुंह छिपाए खड़े रहे.

जीम. मोमिन 

Tuesday 10 April 2012

Hadeesi Hadse 34


इस्लाम कोई धर्म नहीं, न ही रूहानियत की कोई अलामत. यह निरा सियासत कल भी था और आज भी है. आप किसी न किसी ओलिमाके सियासत का शिकार हैं.अब्बास और अली दोनों मुहम्मद के चाचा ज़ाद भाई हैं. इन्हीं लोगों की नस्लों का बोल बाला हम हिंदियों पर हमेशा रहा है. दर असल हम इनके जेहनी गुलाम हैं.

रोज़े मुसलमानों पर अज़ाब की तरह मुसल्लत हैं. हजारो रोजदार रमजान महीने में मौत के शिकार हो जाते हैं.रोजदार के मुंह से ऐसी बदबू निकलती है कि आप उसका सामना नहीं कर सकते, उनसे मुंह फेर के बात करनी पड़ती है. बद ज़ौक मुहम्मद कहते हैं कि उनके अल्लाह को ये बदबू मुश्क क़ी सी लगती है. 
मुसलमानों के हर कम में शिद्दत है, यह सोकर उठने के बाद दिन भर दाँत नहीं माजते, रोज़ा टूट जाने का डर  लगा रहता है.
मुहम्मद अपने चाचा काफ़िर अबू तालिब क़ी मग्फ़िरत (मोक्ष) क़ी दुआ करने क़ी बात करते हैं जब कि उम्मत को ऐसा करने को हराम बतलाते हैं.कुरान में है की काफिरों के लिए इनकी मग्फ़िरत किई दुआ मत मांगो. मरने के बाद भी इस्लाम फ़र्द से नफ़रत सिखलाता है.
सवाल तब भी बरहक़ था और आज भी बरहक है कि हर शय का बनाने वाला अगर अल्लाह है तो उसको बनाने वाला कौन? वह अगर खुद बखुद है तो हर चीजें खुद बख़ुद हैं.
मुहम्मद को अच्छी तरह मालूम था कि कुरान की हर आयत खुद उन्हों ने गढ़ी है जिसमें कहीं कोई असर नहीं है, इसी लिए उन्हों ने उनसे दरयाफ्त किया की सूरह अल्हम्द में मंतर का असर कैसे जाना. माले-मुफ़्त के लिए हाज़िर हो गए, ये उनकी तबियत है,
यह बात डाकुओं के सरदार की जैसी लगती है. माले-गनीमत वहीँ होगा जहाँ माल होगा .मुहम्मद एक लुटेरे थे , अफ़सोस कि आज वह मुह्सने इंसानियत कहे जाते हैं.
जीम. मोमिन 

Wednesday 4 April 2012

Hadeesi Hadse 29




ख़िज्र का ख़िज्र से पहले नाम क्या था ? इसकी जानकारी देना लाज़मी
 था . वैसे ख़िज्र बमानी हरियाली और वनस्पति तो है ही. इस
 रिआयत से हदीस गढ़ना  कहाँ की दानिशमंदी है.यह मुहम्मदी गढ़ंत है


मोसिने इंसानियत के सैकड़ों जुर्म में से यह एक भी एक जुर्म है 
मुहम्मद जिसको चाहते थे मरवा दिया करते थे .

.मुसलमानों यह है आपका अल्लाह . छीकने पर नाक कटता है. इससे जिस कद्र जल्दी हो सके नजात हासिल करें.

इन्हीं हदीसों का असर है कि मुसलमान जहाँ भी है या तो हुकूमतों के बागी है या गद्दार, यहं तक कि मुस्लिम मुमालिक में भी उसका तालमेल हुकूमतों दे नहीं बैठता. 
इस्लाम सिखलाता है कि मुस्लमान गैर मुस्लिमों की कब्रें खोदते रहें, नहीं समझते कि इससे खुद उनकी कब्र भी खुदती रहती है.
हदीस में आयशा का बयान मुहम्मद क़ी फितरत की  तर्जुमानी करता है.
यह हदीस शियों के अली नवाज़ तबके क़ी दिल आजारी करती है, इसी लिए शिया हदीसों को गलाज़त का ढेर कहते है. 

इस दिन मेरा और रसूल का लुआब भी मख्लूत हुवा था ? ? ?
क्या कुरआन में मंतर तक क़ी भी सलाहियत नहीं है? 
मंतर तो काफिरों क़ी ईजाद है, क्या मुहम्मद कुफ्र पर ईमान रखते थे?
मुहम्मद इन्तेहाई दर्जा कमज़ोर इन्सान थे कि कुफ्र को कई जगह सजदा करते देखे जा सकते हैं. संग अस्वाद को चूमते थे जो सरासर बुत परस्ती थी.


जीम. मोमिन