Thursday 30 June 2016

बांग-ए-दरा -21


बांग-ए-दरा

सच और ख़ैर (1)
क़ुदरत ने ये भूगोल रुपी इमारत को वजूद में लाने का जब इरादा किया तो सब से पहले इसकी बुनियाद "सच और ख़ैर" की कंक्रीट से भरी. फिर इसे अधूरा छोड़ कर आगे बढती हुई 
मुस्कुराई, कि मुकम्मल इसको हमारी रख्खी हुई बुनियाद करेगी. 
वह आगे बढ़ गई कि उसको कायनात में अभी बहुत से भूगोल बनाने हैं. 
उसकी कायनात इतनी बड़ी है कि कोई बशर अगर लाखों रौशनी साल (light years ) की उम्र भी पाए तब भी उसकी कायनात के फासले को तय नहीं कर सकता, 
तय कर पाना तो दूर की बात है, अपनी उम्र को फासले के तसव्वुर में सर्फ़ करदे तो भी किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाएगा .
कुदरत तो आगे बढ़ गई इन दो वारिसों "सच और ख़ैर" के हवाले करके इस भूगोल को कि यही इसे बरक़रार रखेंगे जब तक ये चाहें.
.भूगोल की तरह ही क़ुदरत ने हर चीज़ को गोल मटोल पैदा कीया कि
 ख़ैर के साथ पैदा होने वाली सादाक़त ही इसको जो रंग देना चाहे दे.
 क़ुदरत ने पेड़ को गोल मटोल बनाया कि इंसान की "सच और ख़ैर" की तामीरी अक्ल इसे फर्नीचर बना लेगी, उसने पेड़ों में बीजों की जगह फर्नीचर नहीं लटकाए. 
ये ख़ैर का जूनून है कि वह क़ुदरत की उपज को इंसानों के लिए उसकी ज़रुरत के तहत लकड़ी की शक्ल बदले.
तमाम ईजादें ख़ैर (परोकार) का जज्बा ही हैं कि आज इंसानी जिंदगी कायनात तक पहुँच गई है, ये जज़्बा ही एक दिन इंसानों को ही नहीं बल्कि हैवानों को भी उनके हुकूक दिलाएगा.
जो सत्य नहीं वह मिथ्य है. 
दुन्या के हर तथा कथित धर्म अपने कर्म कांड और आडम्बर के साथ मिथ्य है, 
इससे मुक्ति पाने के बाद ही क़ुदरत का धर्म अपने शिखर पर आ जाएगा 
और ज़मीन पाक हो जाएगी.
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सच और ख़ैर (2)
मैंने अपने पछले अंक में लिखा था कि यह दुन्या कुदरत का बनाया हुआ अधूरा भूगोल है, इसकी बुन्याद "सच और खैर" पर रख कर  क़ुदरत आगे बढ़ गई है - - -
क़ुदरत ने जन्नत बनाया है, न दोज़ख. 
यह कल्पनाएँ हजरते इंसान के जेहनी फितूर हैं.
 अपनी बुनियाद में रख्खे सच और खैर को जब ये धरती मानुस पचाने लगेंगे  तो ये दुन्या खुश गवार हो जाएगी. इस पर इसके प्राणी बे खौफ होकर लम्बी उम्र जीना चाहेंगे. 
जब सत्य ही सत्य होगा और झूट का नाम निशान न बचेगा और जब ख़ैर ही ख़ैर होगा, 
बैर का नामों निशान न होगा, तब ये दुनिया असली जन्नत बन जायगी.
हमारी धरती पर फैली हुई इंसानियत फल फूल रही है, 
हमारे अस्ल पैगम्बरान यह साइंसटिस्ट नित नई नई खोजों में लगे हुवे हैं, 
हमारी ज़िन्दगी को आसान दर आसान किए जा रहे हैं, सत्य दर सत्य किए जा रहे हैं,
 ये उनके जज़्बा ए ख़ैर ही तो है. 
एक दिन वह भी आएगा कि एक एक इंसान के पास रहने के लिए एह एक सय्यारे होंगे 
और इंसानी क़द्रें  उन में तवील तर और मुंह मांगी होगी, 
अब मज़हबी रुकावटें बहुत दिन तक इस भूगोल पर कायम नहीं रह पाएँगी.
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Hadeesi Hadse 515



हदीसी हादसे 


बुखारी ४७४ 
रेशमी हुल्लाह (एक किस्म का लिबास) मुहम्मद के हिसाब से मुसलामानों पर हराम है. किसी ने इनको इसका तोहफः दिया जिसे उन्हों ने लेकर अपने ख़लीफ़ा उमर को भिजवा दिया.उसे वापस लेकर उमर मुहम्मद के पास आए और सवाल किया कि जब रेशमी कपडे खुद अपने पर आप हराम करार देते हैं तो मुझे किस इरादे से भिजवाया? (मुहम्मद कशमकश में पड़ गए, कोई जवाब न था.
उमर ने उस कुरते को अपने भाई को मक्का में भेज दिया को अभी तक काफ़िर था. सारे मुआमले झूठे ईमान की अलामत हैं.
बुखारी ४७१ -७२-७३ 
मुहम्मद मुसलमानों के लिए सवाबों का मिक़दार मुक़र्रर करते है, कहते हैं जो शक्स जुमे की नमाज़ के लिए नहा धो कर पहली साइत चला उसको एक ऊँट की क़ुरबानी का सवाब मिलता है. दूसरी साइत में चला उसको एक गाय की क़ुरबानी का सवाब मिलता है, जो तीसरे साइत चलता है उसे एक सींग दार बकरी की क़ुरबानी का सवाब मिलता है, चौथी साइत चलने वाले को एक मुर्गी की क़ुरबानी का सवाब मिलता है और पांचवीं साइत जाने वाले को एक अंडे के सदके का सवाब मिलता है. 
* मुहम्मद ने बतलाया ही नहीं कि जुमे की नमाज़ ही न पढने वाले को कितना अज़ाब मिलता है? शायद एक हाथी के बराबर का अज़ाब. 
मुसलामानों ने मुहम्मदी अल्लाह के सवाबों और अज़ाबों का वज़न किस तरह उनके अल्लाह ने मुक़र्रर क्या? कभी कोह ए सफ़ा के बराबर तो कभी एक अंडे के बराबर. इन घामडों को इस्लाम के अक्ल का अँधा बना रख्खा है.
मुहम्मद कहते हैं जुमा से जुमा तक साबित कदमी से खशबू लगाकर नमाज़ अदा करने वालों के तमाम हफ्तावारी गुनाह मुआफ हो जाते हैं.
बुखारी ४६३ 
लहसुन 
मुहम्मद ने कहा जो शख्स लहसुन खाकर मस्जिद में आए, वह मेरे साथ नमाज़ों में शरीक न हो. 
*हिदू मैथोलोजी लहसुन को अमृत मानती है मगर इसे राक्षस का उगला हुवा मानती है जो कि सागर मंथन से दस्तयाब हुवा था. 
आज भी लहसुन दस्यों मरज़ की दवा बनी हुई है. इसके आलावा लहसुन टेस्ट मेकर है, मसालों में लहसुन अपना मुक़ाम रखती है. मुहम्मद को फायदे मंद चीजों में नुकसान नज़र आता है और मुज़िर में फायदा. 



बांग-ए-दरा -20


बांग-ए-दरा
इंसान हो या  हैवान?

मैं अपने नज़रयाती मुआमले में कुछ कठोर हूँ , इसके बावजूद मेरी आँखों में आँसू उस वक्त ज़रूर छलक जाते हैं जब मैं स्टेज पर इंसानियत को सुर्खुरू होते हुए देखता हूँ, 
मसलन हिन्दू -मुस्लिम दोस्ती की नजीर हो, 
या फिर फ़र्ज़ के सवाल पर इंसानियत के लिए मौत को मुँह जाना. 
मेरे लम्हात में ऐसे पल भी आते हैं कि विदा होती हुई बेटी को जब माँ लिपटा कर रोती है तो मेरे आँसू नहीं रुकते, गोकि मैंने अपनी बेटियों को क़ह्क़हों के साथ रुखसत किया. 
इंसान की मामूली भूल चूक को भी मैं नज़र अंदाज़ करदेता हूँ. 
क्यूंकि उम्र के आगोश में बहुत सी लग्ज़िशें हो जाती हैं. 
मैं कि एक अदना सा इंसान, समझ नहीं पाता कि लोग छोटी छोटी और बड़ी बड़ी मान्यताएँ क्यूँ गढ़े हुए हैं और इन साँचों में क्यूँ ढले हुए है ?
जब कि क़ुदरत उनका मार्ग दर्शन हर मोड़ पर कर रही है.
बड़ी मान्यताओं में अल्लाह, ईश्वर और गाड आदि की मान्यताएं हैं. 
अगर वह इनमें से कोई होता तो यकीनी तौर पर इंसान साथ साथ हर जीव किसी न किसी तरह से उसकी उपासना करता. 
हर जीव पेट भरने के बाद उमंग, तरंग और मिलन की राह पर चल पड़ता है, 
न कि कुदरत की उपासना की तरफ. 
कुदरत का ये इशारा भी इंसान को जीने की राह दिखलाता है 
जिसे उल्टा ये अशरफुल मख्लूकात तआने के तौर पर उलटी बात ही करता है - - -
इंसान हो या हैवान?
छोटी मान्यताएं हैं यह ज़मीन के जिल्दी रोग स्वयंभू औतार, पयम्बर, गुरु, महात्मा और दीनी रहनुमाओं की रची हुई हैं. 
अगर इन छोटी बड़ी मान्यताएं और कदरों से इंसान मुक्त हो जाय तो 
वह मानव से महा मानव बन सकता है, 
जिस दिन इंसान महा मानव बन जायगा ये धरती जन्नत नुमा बन जायगी.
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Tuesday 28 June 2016

बांग-ए-दरा -19


बांग-ए-दरा

हलाकू  और ओलिमा 

हलाकू के समय में अरब दुन्या का दमिश्क शहर इस्लामिक माले गनीमत से खूब फल फूल रहा था. ओलिमाए दीन (धर्म गुरू)झूट का अंबार किताबों की शक्ल में खड़ा कर रहे थे. हलाकू बिजली की तरह दमिश्क पर टूटा, लूट पाट के बाद इन ओलिमाओं की खबर ली, 
सब को इकठ्ठा किया और पूछा यह किताबें किस काम आती हैं? 
जवाब था पढने के. फिर पूछा - 
सब कितनी लिखी गईं? 
जवाब- साठ हज़ार . 
सवाल - - साठ हज़ार पढने वाले ? ? फिर साठ हज़ार और लिखी जाएंगी ???. इस तरह यह बढती ही जाएंगी. 
फिर उसने पूछा तुम लोग और क्या करते हो? 
ओलिमा बोले हम लोग आलिम हैं हमारा यही काम है. 
हलाकू को हलाक़त का जलाल आ गया . हुक्म हुवा कि 
इन किताबों को तुम लोग खाओ. 
ओलिमा बोले हुज़ूर यह खाने की चीज़ थोढ़े ही है. 
हलाकू बोला यह किसी काम की चीज़ नहीं है, और न ही तुम किसी कम की चीज़ हो. 
हलाकू के सिपाहिओं ने उसके इशारे पर दमिश्क की लाइब्रेरी में आग लगा दी और सभी ओलिमा को मौत के घाट उतर दिया. 
आज भी इस्लामिक और तमाम धार्मिक लाइब्रेरी को आग के हवाले कर देने की ज़रुरत है.
क़ज़ज़ाक़ लुटेरे और वहशी अपनी वहशत में कुछ अच्छा भी कर गए
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बांग-ए-दरा

तलवार और कलम 

फ़तह मक्का के बाद मुसलामानों में दो बाअमल गिरोह ख़ास कर वजूद में आए जिन का दबदबा पूरे खित्ता ए अरब में क़ायम हो गया. 
पहला था तलवार का क़ला बाज़ और दूसरा था क़लम बाज़ी का क़ला बाज़. 
अहले तलवार जैसे भी रहे हों बहर हाल अपनी जान की बाज़ी लगा कर अपनी रोटी हलाल करते मगर इन क़लम के बाज़ी गरों ने आलमे इंसानियत को जो नुकसान पहुँचाया है,
 उसकी भरपाई कभी भी नहीं हो सकती. 
अपनी तन आसानी के लिए इन ज़मीर फरोशों ने मुहम्मद की असली तसवीर का नकशा ही उल्टा कर दिया. इन्हों ने कुरआन की लग्वियात को अज़मत का गहवारा बना दिया. 
यह आपस में झगड़ते हुए मुबालगा आमेज़ी (अतिशोक्तियाँ ) में एक दूसरे को पछाड़ते हुए, 
झूट के पुल बांधते रहे. 
कुरआन और कुछ असली हदीसों में आज भी मुहम्मद की असली तस्वीर सफेद और सियाह रंगों में देखी जा सकती है. इन्हों ने हक़ीक़त की बुनियाद को खिसका कर झूट की बुन्यादें रखीं और उस पर इमारत खड़ी कर दी.
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Monday 27 June 2016

बांग-ए-दरा -18


बांग-ए-दरा 

टी वी के प्रोग्राम 
अभी पिछले दिनों एन डी टी वी के प्रोग्राम में हिदुस्तान की एक बड़ी इकाई ,  जमाअत इस्लामी के दिग्गज और ज़िम्मेदर आलिम महमूद मदनी, जमाअत का प्रतिनिधित्व करते हुए भरी महफ़िल में अवाम की आंखों में धूल झोंक गए। 
बहस का विषय तसलीमा नसरीन थी। 
मौलाना तसलीमा की किताब को हवा में लहराते हुए बोले,
"तसलीमा लिखती है 'उसने अपने बहू से शादी की " 
गुस्ताख को देखो हुज़ूर की शान में कैसी बे अदबी कर रही है।" 
( मदनी को मालूम नहीं कि अंग्रेज़ी से हिन्दी तर्जुमा में यही भाषा होती है।) 
आगे कहते है 
"हुज़ूर की (पैगम्बर मुहम्मद की ) कोई औलादे-नरीना (लड़का) थी ही नही,
 तो बहू कैसे हो सकती है ?" 
बात टेकनिकल तौर पर सच है मगर पहाड़ से बड़ा झूट, जिसे लाखों दर्शकों के सामने एक शातिर और अय्यार मौलाना बोलकर चला गया और अज्ञात क़ौम ने तालियाँ बजाईं। उसकी हकीक़त का खुलासा देखिए-----
किस्से की सच्चाई ये है कि ज़ैद (बिन हारसा) एक मासूम, गोद में उठा लेने के लायक बच्चा हुवा करता था। उस लड़के को बुर्दा फरोशों (बच्चे चुराने वाले) उठा ले गए मदीने में मुहम्मद के  हाथों बेच दिया था . 
ज़ैद का बाप हारसा बेटे के ग़म में परेशान ज़ारों-क़तार रोता फिरता। 
एक दिन उसे पता चला कि उसका बेटा मदीने में मुहम्मद के पास है, 
वह फिरोती की रक़म जिस कदर उससे बन सकी, लेकर अपने भाई के साथ, मुहम्मद के पास गया। ज़ैद बाप और चचा को देख कर उनसे लिपट गया। 
हारसा की दरखास्त रिहाई पर मोहम्मद ने कहा, 
पहले ज़ैद से तो पूछो कि वह किया चाहता है ? 
पूछने पर ज़ैद ने बाप के साथ जाने से इनकार कर दिया, तभी बढ़ कर मुहम्मद ने उसे अपनी गोद में उठा लिया और सब के सामने अल्लाह को गवाह बनाते हुए ज़ैद को अपनी औलाद और ख़ुद को उसका बाप घोषित किया। 
ज़ैद कुछ बड़ा हुवा तो उसकी शादी अपनी कनीज़ ऐमन से कर दी। हालांकि उसका सिन शादी का नहीं हुवा था .
बाद में सिने-बलूगत आने पर दूसरी शादी अपनी फूफी ज़ाद बहन ज़ैनब से की। 
ज़ैनब से शादी करने पर कुरैशियों ने एतराज़ भी खड़ा किया कि ज़ैद गुलाम ज़ादा है, और जैनब सय्यद जादी . 
इस पर मुहम्मद ने कहा ज़ैद गुलाम ज़ादा नहीं, ज़ैद, ज़ैद बिन मुहम्मद है। 
मशहूर सहाबी ओसामा ज़ैद बिन हारसा का बेटा है, माँ उसकी हब्शी ऐमन थी . ओसामा  मुहम्मद को  बहुत प्यारा था. 
गोद में लिए हुए उम्र के ज़ैद वल्द मुहम्मद, एक अदद बेटे ओसामा का बाप भी बन गया और मुहम्मद के साथ अपनी बीवी ज़ैनब को लेकर रहता रहा, बहुत से मुहम्मद कालीन सहाबी उसको बिन मुहम्मद मरते दम तक कहते रहे 
और आज के टिकिया चोर ओलिमा कहते हैं मुहम्मद की कोई औलादे-नरीना ही नहीं थी. सच्चाई इनको अच्छी तरह मालूम है कि वह किस बात की परदा पोशी कर रहे हैं.
दर अस्ल गुलाम ज़ैद की पहली पत्नी ऐमन मुहम्मद की उम्र दराज़ सेविका थी ओलिमा उसको पैगम्बर की माँ की तरह बतला कर मसलेहत से काम लेते है. खदीजा मुहम्मद की पहली पत्नी भी ऐमन की हम उम्र मुहम्मद से पन्द्रह साल बड़ी थीं. ज़ैद की जब शादी ऐमन से हुई, वह जिंस लतीफ़ से वाकिफ भी न था. नाम ज़ैद का था काम मुहम्मद का, चलता रहा. 
इसी रिआयत को लेकर मुहम्मद ने जैनब, अपनी पुरानी आशना के साथ फर्माबरदार पुत्र ज़ैद की शादी कर दी, मगर ज़ैद तब तक बालिग़ हो चुका था . 
एक दिन, दिन दहाड़े ज़ैद ने देखा कि उसका बाप मुहम्मद उसकी बीवी जैनब के साथ मुंह काला कर रहा है, रंगे हाथों पकड़ जाने के बाद मुहम्मद ने लाख लाख ज़ैद को पटाया कि ऐमन की तरह दोनों का काम चलता रहे मगर ज़ैद नहीं पटा. कुरआन में सूरह अहज़ाब में इस तूफ़ान बद तमीजी की पूरी तफ़सील है मगर आलिमाने-दीन हर ऐब में खूबी गढ़ते नज़र आएंगे.
इसके बाद इसी बहू ज़ैनब को मुहम्मद ने बगैर निकाह किए हुए अपनी दुल्हन होने का एलान किया और कहा कि - - -
"ज़ैनब का मेरे साथ निकाह सातवें आसमान पर हुवा, अल्लाह ने निकाह पढ़ाया था और फ़रिश्ता जिब्रील ने गवाही दी।" 
इस दूषित और घृणित घटना में लंबा विस्तार है जिसकी परदा पोशी ओलिमा पूर्व चौदह सौ सालों से कर रहे हैं। इनके पीछे अल्कएदा, जैश, हिजबुल्ला और तालिबान की फोजें हर जगह फैली हुई हैं। 
"मुहम्मद की कोई औलादे-नारीना नहीं थी" इस झूट का खंडन करने की हिंदो-पाक और बांगला देश के पचास करोड़ आबादी में सिर्फ़ एक औरत तसलीमा नसरीन ने किया जिसका जीना हराम हो गया है।
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Sunday 26 June 2016

बांग-ए-दरा -17


बांग-ए-दरा

दर्जात ए इंसानी
अव्वल दर्जा लोग

मैं दर्जाए-अव्वल में उस इंसान को शुमार करता हूँ जो सच बोलने में ज़रा भी देर न करता हो, उसका मुतालिआ अश्याए कुदरत के बारे में फितरी हो (जिसमें खुद इंसान भी एक अश्या है.) 
वह ग़ैर जानिबदार हो, अक़ीदा, आस्था और मज़हबी उसूलों से बाला तर हो, जो जल्द बाज़ी में किए गए "हाँ" को सोच समझ कर न कहने पर एकदम न शर्माए और मुआमला साज़ हो. 
जो सब का ख़ैर ख्वाह हो, दूसरों को माली, जिस्मानी या जेहनी नुकसान, अपने नफ़ा के लिए न पहुंचाए, जिसके हर अमल में इस धरती और इस पर बसने वाली मखलूक का खैर वाबिस्ता हो, जो बेख़ौफ़ और बहादर हो और इतना बहादर कि उसे दोज़ख में जलाने वाला नाइंसाफ अल्लाह भी अगर उसके सामने आ जाए तो उस से भी दस्तो गरीबानी के लिए तैयार रहे. 
ऐसे लोगों को मैं दर्जाए अव्वल का इंसान, मेयारी हस्ती शुमार करता हूँ. 
ऐसे लोग ही हुवा करते हैं साहिबे ईमान यानी ''मरदे मोमिन
दोयम दर्जा लोग
मैं दोयम दर्जा उन लोगों को देता हूँ जो उसूल ज़दा यानी नियमों के मारे होते हैं. 
यह सीधे सादे अपने पुरखों की लीक पर चलने वाले लोग होते हैं. 
पक्के धार्मिक मगर अच्छे इन्सान भी यही लोग हैं. 
इनको इस बात से कोई मतलब नहीं कि इनकी धार्मिकता समाज के लिए अब ज़हर बन गई है, इनकी आस्था कहती है कि इनकी मुक्ति नमाज़ और पूजा पाठ से है. 
अरबी और संसकृति में इन से क्या पढाया जाता है, इस से इनका कोई लेना देना नहीं। 
ये बहुधा ईमानदार और नेक लोग होते हैं. 
भोली भाली अवाम इस दर्जे की ही शिकार है ,
धर्म गुरुओं, ओलिमाओं और पूँजी पतियों की. हमारे देश की जम्हूरियत की बुनियाद 
इसी दोयम दर्जे के कन्धों पर राखी हुई है.
सोयम दर्जा लोग
हर कदम में इंसानियत का खून करने वाले, 
तलवार की नोक पर खुद को मोह्सिने इंसानियत कहलाने वाले, 
दूसरों की मेहनत पर तकिया धरने वाले, 
लफ़फ़ाज़ी और ज़ोर-ए-क़लम से गलाज़त से पेट भरने वाले, 
इंसानी सरों के सियासी सौदागर, धार्मिक चोले धारण किए हुए स्वामी, गुरू, बाबा और साहिबे रीश और बढकर ओलिमा, सब के सब तीसरे और गिरे दर्जे के लोग हैं. 
इन्हीं की सरपरस्ती में देश के मुट्ठी भर सरमाया दार भी हैं जो 
 देश को लूट कर पैसे को विदेशों में छिपाते हैं. 
यही लोग जिसका कोई प्रति शत भी नहीं बनता, दोयम दर्जे को ब्लेक मेल किए हुए है 
और अव्वल दर्जा का मजाक हर मोड़ पर उडाने पर आमादा रहते है. 
सदियों से यह गलीज़ लोग इंसान और इंसानियत को पामाल किए हुए हैं।
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Saturday 25 June 2016

बांग-ए-दरा -16



बांग-ए-दरा

अंडे में इनक़्लाब

इंसानी जेहन जग चुका है और बालिग़ हो चुका है. इस सिने बलूगत की हवा शायद ही आज किसी टापू तक न पहुँची हो, वगरना रौशनी तो पहुँच ही चुकी है, यह बात दीगर है कि नसले-इंसानी चूजे की शक्ल बनी हुई अन्डे के भीतर बेचैन कुलबुलाते हुए, अंडे के दरकने का इन्तेज़ार कर रही है. मुल्कों के हुक्मरानों ने हुक्मरानी के लिए सत्ता के नए नए चोले गढ़ लिए हैं. कहीं पर दुन्या पर एकाधिकार के लिए सिकंदारी चोला है तो कहीं पर मसावात का छलावा. धरती के पसमांदा टुकड़े बड़ों के पिछ लग्गू बने हुए है. हमारे मुल्क भारत में तो कहना ही क्या है! कानूनी किताबें, जम्हूरी हुकूक, मज़हबी जूनून, धार्मिक आस्थाएँ , आर्थिक लूट की छूट एक दूसरे को मुँह बिरा रही हैं. ९०% अन्याय का शिकार जनता अन्डे में क़ैद बाहर निकलने को बेकरार है, १०% मुर्गियां इसको सेते रहने का आडम्बर करने से अघा ही नहीं रही हैं. गरीबों की मशक्क़त ज़हीन बनियों के ऐश आराम के काम आ रही है, भूखे नंगे आदि वासियों के पुरखों के लाशों के साथ दफन दौलत बड़ी बड़ी कंपनियों के जेब में भरी जा रही है और अंततः ब्लेक मनी होकर स्विज़र लैंड के हवाले हो रही है. हजारों डमी कंपनियाँ जनता का पैसा बटोर कर चम्पत हो जाती हैं. किसी का कुछ नहीं बिगड़ता. लुटी हुई जनता की आवाज़ हमें गैर कानूनी लग रही हैं और मुट्ठी भर सियासत दानों , पूँजी पतियों, धार्मिक धंधे बाजों और समाज दुश्मनों की बातें विधिवत बन चुकी हैं. कुछ लोगों का मानना है कि आज़ादी हमें नपुंसक संसाधनों से मिली, जिसका नाम अहिंसा है. सच पूछिए तो आज़ादी भारत भूमि को मिली, भारत वासियों को नहीं. कुछ सांडों को आज़ादी मिली है और गऊ माता को नहीं. जनता जनार्दन को इससे बहलाया गया है. इनक़्लाब तो बंदूक की नोक से ही आता है, अब मानना ही पड़ेगा, वर्ना यह सांड फूलते फलते रहेंगे. 
स्वामी अग्निवेश कहते हैं कि वह चीन गए थे वहां उन्हों ने देखा कि हर बच्चा गुलाब के फूल जैसा सुर्ख और चुस्त है. जहाँ बच्चे ऐसे हो रहे हों वहां जवान ठीक ही होंगे. कहते है चीन में रिश्वत लेने वाले को, रिश्वत देने वाले को और बिचौलिए को एक साथ गोली मारदी जाती है. भारत में गोली किसी को नहीं मारी जाती चाहे वह रिश्वत में भारत को ही लगादे. दलितों, आदि वासियों, पिछड़ों, गरीबों और सर्व हारा से अब सेना निपटेगी. नक्सलाईट का नाम देकर ९०% भारत वासियों का सामना भारतीय फ़ौज करेगी, कहीं ऐसा न हो कि इन १०% लोगों को फ़ौज के सामने जवाब देह होना पड़े कि इन सर्व हारा की हत्याएं हमारे जवानों से क्यूं कराई गईं? और हमारे जवानों का खून इन मजलूमों से क्यूं कराया गया? चौदह सौ साल पहले ऐसे ही धांधली के पोषक मुहम्मद हुए और बरबरियत के क़ुरआनी कानून बनाए जिसका हश्र आज यह है कि करोड़ों इंसान वक्त की धार से पीछे, खाड़ियों, खंदकों, पोखरों और गड्ढों में रुके पानी की तरह सड़ रहे हैं। वह जिन अण्डों में हैं उनके दरकने के आसार भी ख़त्म हो चुके हैं. कोई चमत्कार ही उनको बचा सकता है.  
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Friday 24 June 2016

बांग-ए-दरा -15


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बांग-ए-दरा

कुदरत का निज़ाम 

धरती की तमाम मख्लूक़ जब्र और ना इंसाफी की राहों पर गामज़न है. 
कुदरत का शायद यही निज़ाम है. 
आप गौर करें की शेर ज़्यादः हिस्सा जानवर को अपना शिकार बना लेता है, 
बड़ी मछली तमाम छोटियों को निगल जाती है, 
आसमान पर आज़ाद उड़ रहे परिंदों को भी इस बात का खटका रहता है कि वह किसी का शिकार न हो जाए. 
यहाँ तक कि एक पेड़ भी दूसरे पेड़ का शोषण करते हैं. 
सूरज जैसे रौशन बड़े सितारे के होने के बावजूद धरती के ज़्यादः हिस्से पर अँधेरा (अंधेर) का ही राज क़ायम है. 
मख्लूक़ के लिए मख्लूक़ का ही डर नहीं बल्कि कुदरती आपदाओं का ख़तरा भी लाहक़ है. तूफ़ान, बाढ़, सूखा, ज़लज़ला और जंग ओ जदाल का ख़तरा उनके सर पर हर पल मड्लाया करते है. 
सिर्फ इंसान ऐसी मख्लूक़ है कि जिसको क़ुदरत ने दिल के साथ साथ दिमाग भी दिया है और दोनों का तालमेल भी रखा है. शायद क़ुदरत ने इंसान को ही धरती का निज़ाम सौंपा है. अशरफुल मख्लूकात इसको उस सूरत में कहा जा सकता है जब यह समझदार होने के साथ साथ शरीफ़ भी हो जाए. 
इंसान इंसान के साथ ही नहीं तमाम मख्लूक़ के साथ इन्साफ करने की सलाहियत रखता है बस कि उसकी शराफ़त और ज़हानत में ताल मेल बन जाए . 
इंसान बनास्प्तियों और खनिजों का भी उद्धार कर सकता है, 
कुदरत के क़हरों का भी मुकाबिला कर सकता है. 
बस कि वह जब इस पर आमादा हो जाए. 
इंसानियत से पुर इंसान ही एक दिन इस ज़मीन का खुदा होगा.
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Thursday 23 June 2016

बांग-ए-दरा -14


बांग-ए-दरा 

नास्तिक
मैं एक नास्तिक हूँ . 
दर असल नास्तिकता संसार का सब से बड़ा धर्म होता है और
 धर्म की बात ये है कि यह बहुत ही कठोर होता है, 
क्यूंकि यह उरियाँ सदाक़त अर्थात नग्न सत्य होता है.
आम तौर पर नग्नता सब को बुरी लगती है मगर परिधान बहर हाल दिखावा है, असत्य है. अगर परिधान सर्दी गर्मी से बचने के लिए हो तो ठीक है 
अन्यथा झूट को छुपाने के सिवा कुछ भी नहीं.. 
श्रृंगार कुछ भी हो बहर हाल वास्तविकता की पर्दा पोशी मात्र है. 
शरीर की हद तक - - इसके विरोध में आपत्तियाँ गवारा हैं 
मगर विचारों का श्रृगार बहर सूरत अधर्म है।
यह तथा कथित धर्म एवं मज़हब विचारों की सच्ची उड़ान में टोटका के रूप में बाधा बन जाते हैं और मानव को मानवीय मंजिल तक पहुँचने ही नहीं देते,
कुरआन इस वैचारिक परवाज़ को शैतानी वुस्वुसा कहता है। 
अगर मुहम्मद के गढे अल्लाह पर विचार उसकी कारगुजारी के बाबत की जाए 
तो उस वक़्त यह बात पाप हो जाती है, 
इस स्टेज तक विचार के परवाज़ को शैतान का अमल गुमराह करना और गुमराह होना बतलाया जाता है और इस के बाद पराश्चित करनी पड़ती है. 
इसके लिए किसी मोलवी, मुल्ला के पास जाना पड़ता है जिनके हाथों में मुसलामानों की लगाम है. 
जहाँ विचार की सीमा को लांघने पर ही पाबंदी हो 
वहां किसी विषय में शिखर छूना संभव ही नहीं. 
परिणाम स्वरूप कोई मुसलमान आज तक डेढ़ हज़ार साल होने को है, 
किसी नए ईजाद का आविष्कार नहीं किया.
ईमान दार बुद्धिजीवी तक नहीं हो पाते, जब आप अपने लिए या अपने परिवार, अपने वर्ग, अपने कौम या यहाँ तक कि अपने देश के लिए ही क्यों न हो .
असत्य को श्रृंगारित करते हैं, तो ये पाप जैसा है.
मैं इस्लाम की ज़्यादः हिस्सा बातों का विरोध करता हूँ, 
इसका मतलब यह नहीं कि बाक़ी धर्मों में बुराइयाँ नहीं. एक हिदू मित्र की बात मुझे साल गई कि
'' आप मुसलामानों के लिए जो कर रहे हैं, सराहनीय है परन्तु अपने सीमा में ही रहें , हमारे यहाँ समाज सुधारक बहुतेरे हो चुके है.''
ठीक ही कहा उन्हों ने. वह हिन्दू है, 
अगर जबरन मुझे भी मुसलमान समझें तो आश्चर्य की बात नहीं 
क्यूंकि वह सिर्फ हिन्दू हैं. 
मैं सीमित हो गया क्यूंकि मुसलमानों में पैदा होना मेरी बे बसी थी, 
एक तरह से अच्छा ही हुआ कि मुसलामानों की अनचाही सेवा कर रहा हूँ।
 वह कुछ फ़ायदा उठा सके तो हमारे दूसरे मानव भाई भी लाभान्वित होंगे.
*****

Wednesday 22 June 2016

Hadeesi Hadse 214




हदीसी हादसे 

बुखारी ४४२ 

किसी ने मुहम्मद से पूछा कि क्या क़यामत के दिन हम लोग अल्लाह का दीदार कर सकते हैं? 
जवाब था कि क्या बगैर अब्र छाए चाँद को देखने में तुम्हें कोई शक है? लोगों कहा कहा नहीं नहीं. 
फिर मुहम्मद ने कहा बस क़यामत के दिन बिना शक शुबहा अल्लाह का दीदार होगा. हिदायत होगी हर गिरोह उसके साथ हो जाय जिसकी इबादत करता था, बअज़ आफ़ताब के साथ होंगे, बअज़ माहताब. बअज़ शयातीन ले साथ, अलगरज़ सिर्फ यही उम्मत मय मुनाफ़िकीन के बाकी रहेगी. 
इस वक़्त खुदाय तअला इनके सामने आयगा. इरशाद होगा हम तुम्हारे रब है, वह कहेगे हम पहचानते हैं. इसके बाद दोज़ख पर पुल रखा जायगा. तमाम रसूलों में जो सब से पहले इस पुल से गुजरेंगे वह मैं हूँगा. 
इस दिन सब रसूलों का कौल होगा 
"ऐ खुदा हम को सलामत रखना. ऐ खुदा हम को सलामत रखना. 
"दोज़ख में सादान के काँटों के मानिंद आंकड़े होंगे. अर्ज़ होगा, हाँ! 
फ़रमाया बस वह सादान के काँटों की तरह ही हैं इनके बड़े होने का मिकदार खुदा ही जनता है. 
हर एक के आमाल के मुताबिक वह खीँच लेगे - - - 
*तहरीर बेलगाम बहुत तवील है 
जिसे न हम झेल पा रहे है न आप ही झेल पाएँगे. 
इसका सारांश क्या है ? 
एक पागल की बड़ जो फिल बदी बकता चला जाता है. 
मुसलमान इसी में उलझे हुए हैं की ये बला है क्या ? 

बुखारी ३९५ -४०४
कठ्बैठे मुहम्मद कहते हैं 
"जो शख्स नमाज़ में पेश इमाम से पहले सजदे से सर उठता है, 
उसको इस बात का खौफ़ नहीं रहता कि खुदा उसका सर गधे के सर की तरह कर देगा ." 
*नमाज़ों की पाबंदी रखने वाला मुसलमान सजदे में पड़ा हुआ है, 
उसे कैसे मालूम हो कि पेश इमाम ने सर उठाया या नहीं. 
मगर मुहम्मदी अल्लाह सब के सरों की निगरानी करता रहता है. 
वह ज़ालिम दरोगा की तरह बन्दों की हरकत पर नज़र किए रहता है. 
इसी तरह मुहम्मद कहते हैं कि 
"नमाज़ों में अपनी सफ्हें सही कर लिया करो वर्ना अल्लाह तअला तुम्हारे चेहरों में मुखालफत कर देगा." 
इससे मुसलामानों को जिस कद्र जल्द हो सके पीछा छुडाएं , 

बुखारी ३८० 
मुहम्मद ने कहा 
"जो शख्स सुब्ह ओ शाम जब नमाज़ के लिए जाता है तो अल्लाह उस के लिए जन्नत में तय्यारी करता है." 
*मुहम्मदी अल्लाह को कायनात की निजामत से कोई मतलब नहीं, 
वह ऐसे की कामों में लगा रहता कि कौन शख्स क्या कर रहा है. 


बांग-ए-दरा -13



मुअज्ज़े (चमत्कार) 

मुहम्मद नें जो बातें हदीसों में फ़रमाया है, उन्ही को कुरआन में गाया है.
अल्लाह के रसूल खबर देते हैं कि क़यामत नजदीक आ चुकी है, और चाँद फट चुका है..
मूसा और ईसा की तरह ही मुहम्मद ने भी दो मुअज्ज़े (चमत्कार) दिखलाए, 
ये बात दीगर है कि जिसको किसी ने देखा न गवाह हुआ, 
सिवाय अल्लाह के या फिर जिब्रील अलैहस्सलाम के जो मुहम्मद के दाएँ बाएँ हाथ है.
एक मुअज्ज़ा था मेराज  यानी सैर ए कायनात जिसमे उन्हों ने सातों आसमानों पर कयाम किया, अपने पूर्वज पैगम्बरों से मुलाक़ात किया, यहाँ तक कि अल्लाह से भी गुफ्तुगू की. उनकी बेगान आयशा से हदीस है कि उन्होंने अल्लाह को देखा भी.
दूसरा मुअज्ज़ा है  शक्कुल कमर यानी  मुहम्मद ने उंगली के इशारे से चाँद के दो टुकड़े कर दिए, जिनमें से एक टुकड़ा मशरिक बईद में गिरा और दूसरा टुकड़ा मगरिब बईद में. 
(पूरब और पच्छिम के छोरों पर)
इन दोनों का ज़िक्र कुरआन और हदीसों, दोनों में है. इस की इत्तेला जब खलीफ़ा उमर को हुई तो रसूल को आगाह किया कि ऐसी बड़ी बड़ी गप अगर आप छोड़ते रहे तो न आपकी रिसालत बच पाएगी और न मेरी खिलाफत. बस फिर रसूल ने कान पकड़ा, 
कि मुअज्ज़े अब आगे न होंगे.
उनके मौत के बाद उनके चमचों ने अपनी अपनी गवाही में मुहम्मद के सैकड़ों मुअज्ज़े गढ़ डाले.
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Tuesday 21 June 2016

बांग-ए-दरा -12


नास्तिक और मुल्हिद 

मैं एक नास्तिक हूँ . 
दर असल नास्तिकता संसार का सब से बड़ा धर्म होता है और
 धर्म की बात ये है कि यह बहुत ही कठोर होता है, 
क्यूंकि यह उरियाँ सदाक़त अर्थात नग्न सत्य होता है.
आम तौर पर नग्नता सब को बुरी लगती है मगर परिधान बहर हाल दिखावा है, असत्य है. 
अगर परिधान सर्दी गर्मी से बचने के लिए हो तो ठीक है 
अन्यथा झूट को छुपाने के सिवा कुछ भी नहीं.. 
श्रृंगार कुछ भी हो बहर हाल वास्तविकता की पर्दा पोशी मात्र है. 
शरीर की हद तक - - इसके विरोध में आपत्तियाँ गवारा हैं 
मगर विचारों का श्रृगार बहर सूरत अधर्म है।
यह तथा कथित धर्म एवं मज़हब विचारों की सच्ची उड़ान में टोटका के रूप में बाधा बन जाते हैं 
और मानव को मानवीय मंजिल तक पहुँचने ही नहीं देते,
कुरआन इस वैचारिक परवाज़ को शैतानी वुस्वुसा कहता है। 
अगर मुहम्मद के गढे अल्लाह पर विचार उसकी कारगुजारी के बाबत की जाए 
तो उस वक़्त यह बात पाप हो जाती है, 
इस स्टेज तक विचार के परवाज़ को शैतान का अमल गुमराह करना और गुमराह होना बतलाया जाता है और इस के बाद पराश्चित करनी पड़ती है. 
इसके लिए किसी मोलवी, मुल्ला के पास जाना पड़ता है जिनके हाथों में मुसलामानों की लगाम है. 
जहाँ विचार की सीमा को लांघने पर ही पाबंदी हो 
वहां किसी विषय में शिखर छूना संभव ही नहीं. 
परिणाम स्वरूप कोई मुसलमान आज तक डेढ़ हज़ार साल होने को है, 
किसी नए ईजाद का आविष्कार नहीं किया.
ईमान दार बुद्धिजीवी तक नहीं हो पाते, जब आप अपने लिए या अपने परिवार, अपने वर्ग, अपने कौम या यहाँ तक कि अपने देश के लिए ही क्यों न हो .
असत्य को श्रृंगारित करते हैं, तो ये पाप जैसा है.
मैं इस्लाम की ज़्यादः हिस्सा बातों का विरोध करता हूँ, 
इसका मतलब यह नहीं कि बाक़ी धर्मों में बुराइयाँ नहीं. 
एक हिदू मित्र की बात मुझे साल गई कि
''आप मुसलामानों के लिए जो कर रहे हैं, सराहनीय है परन्तु अपने सीमा में ही रहें , 
हमारे यहाँ समाज सुधारक बहुतेरे हो चुके है.''
ठीक ही कहा उन्हों ने. वह हिन्दू है, 
अगर जबरन मुझे भी मुसलमान समझें तो आश्चर्य की बात नहीं 
क्यूंकि वह सिर्फ हिन्दू हैं. 
मैं सीमित हो गया क्यूंकि मुसलमानों में पैदा होना मेरी बे बसी थी, 
एक तरह से अच्छा ही हुआ कि मुसलामानों की अनचाही सेवा कर रहा हूँ.
 वह कुछ फ़ायदा उठा सके तो हमारे दूसरे मानव भाई भी लाभान्वित होंगे.
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Monday 20 June 2016

बांग-ए-दरा -11




बांग-ए-दरा
10
मुसलामानों की क़समें 
मुसलामानों को क़समें खाने की कुछ ज़्यादः ही आदत है जो कि इसे विरासत में इस्लाम से मिली है. मुहम्मदी अल्लाह भी क़स्में खाने में पेश पेश है और इसकी क़समें अजीबो गरीब है. 
उसके बन्दे उसकी क़सम खाते हैं, तो अल्लाह जवाब में अपनी मख्लूक़ की क़समें खाता है, मजबूर है अपनी हेकड़ी में कि उससे बड़ा कोई है नहीं कि जिसकी क़समें खा कर वह अपने बन्दों को यक़ीन दिला सके, उसके कोई माँ बाप नहीं कि जिनको क़ुरबान कर सके. इस लिए वह अपने मख्लूक़ और तख्लीक़ की क़समें खाता है. 
क़समें झूट के तराज़ू में पासंग (पसंघा) का काम करती हैं वर्ना आवाज़ के
 "ना का मतलब ना और हाँ का मतलब हाँ" 
ही इंसान की क़समें होनी चाहिए. अल्लाह हर चीज़ का खालिक़ है, सब चीज़ें उसकी तख्लीक़ है, जैसे कुम्हार की तख्लीक़ माटी के बने हांड़ी, कूंडे वगैरा हैं, अब ऐसे में कोई कुम्हार अगर अपनी हांड़ी और कूंडे की क़समें खाए तो कैसा लगेगा? और वह टूट जाएँ तो कोई मुज़ायका नहीं, कौन इसकी सज़ा देने वाला है. 
कुरआन माटी की हांड़ी से ज़्यादः है भी कुछ नहीं.
*****
11
हज 
हज जैसे ज़ेह्नी तफ़रीह में कोई तखरीबी पहलू नज़र नहीं आता सिवाय इसके कि ये 
मुहम्मद का अपनी क़ौम के लिए एक मुआशी ख़्वाब है. 
आज समाज में हज हैसियत की नुमाइश एक फैशन भी बना हुवा है.
 दरमियाना तबका अपनी बचत पूंजी इस पर बरबाद कर के अपने बुढापे को ठन ठन गोपाल कर लेता है, जो अफ़सोस का मुक़ाम है. 
हज हर मुसलमान पर एक तरह का उस के मुसलमान होने का क़र्ज़ है 
जो मुहम्मद ने अपनी क़ौम के लिए उस पर लादा है.
 उम्मी की सियासत को दुन्या की हर पिछ्ड़ी हुई कौम ढो रही है. 

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Friday 17 June 2016

बांग-ए-दरा -10


बांग-ए-दरा
मुहम्मदुर रसूलिल्लाह
(मुहम्मद ईश्वर के दूत हैं)

मुहम्मद की फितरत का अंदाज़ा क़ुरआनी आयतें निचोड़ कर निकाला जा सकता है कि वह किस कद्र ज़ालिम ही नहीं कितने मूज़ी तअबा शख्स थे। क़ुरआनी आयतें जो खुद मुहम्मद ने वास्ते तिलावत बिल ख़ुसूस महफूज़ कर दीं, इस एलान के साथ कि ये बरकत का सबब होंगी न कि इसे समझा समझा जाए. 
अगर कोई समझने की कोशिश भी करता है तो उनका अल्लाह उस पर एतराज़ करता है कि ऐसी आयतें मुशतबह मुराद (संदिग्ध) हैं जिनका सही मतलब अल्लाह ही जानता है. 
इसके बाद जो अदना (सरल) आयतें हैं और साफ़ साफ़ हैं वह अल्लाह के किरदार को बहुत ही ज़ालिम, जाबिर, बे रहम, मुन्तकिम और चालबाज़ साबित करती है बल्कि अल्लाह इन अलामतों का खुद एलान करता है कि 
अगर ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' (मुहम्मद ईश्वर के दूत हैं) को मानने वाले न हुए तो. अल्लाह इतना ज़ालिम और इतना क्रूर है कि इंसानी खालें जला जला कर उनको नई करता रहेगा, इंसान चीखता चिल्लाता रहेगा और तड़पता रहेगा मगर उसको मुआफ़ करने का उसके यहाँ कोई जवाज़ नहीं है, कोई कांसेप्ट नहीं है. 
मज़े की बात ये कि दोबारा उसे मौत भी नहीं है कि मरने के बाद नजात कि सूरत हो सके, 
उफ़! इतना ज़ालिम है मुहमदी अल्लाह? 
सिर्फ़ इस ज़रा सी बात पर कि उसने इस ज़िन्दगी में ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' क्यूं नहीं कहा. हज़ार नेकियाँ करे इन्सान, कुरआन गवाह है कि सब हवा में ख़ाक की तरह उड़ जाएँगी अगर ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' नहीं कहा क्यों कि हर अमल से पहले ईमान शर्त है और ईमान है ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' . 
इस कुरआन का खालिक़ कौन है जिसको मुसलमान सरों पर रखते हैं ? 
मुसलमान अपनी नादानी और नादारी में यकीन करता है कि उसका अल्लाह . 
वह जिस दिन बेदार होकर कुरआन को खुद पढ़ेगा तब समझेगा कि इसका खालिक तो दगाबाज़ खुद साख्ता अल्लाह का बना हुवा रसूल मुहम्मद है. 
उस वक़्त मुसलमानों की दुन्या रौशन हो जाएगी.
मुहम्मद कालीन मशहूर सूफ़ी ओवैस करनी जिसके तसव्वुफ़ के कद्रदान मुहम्मद भी थे, जिसको कि मुहम्मद ने बाद मौत के अपना पैराहन पहुँचाने की वसीअत की थी, मुहम्मद से दूर जंगलों में छिपता रहता कि इस ज़ालिम से मुलाक़ात होगी तो कुफ्र ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' मुँह पर लाना पड़ेगा. 
इस्लामी वक्तों के माइल स्टोन हसन बसरी और राबिया बसरी इस्लामी हाकिमों से छुपे छुपे फिरते थे कि यह ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' को कुफ्र मानते थे. 
मक्के के आस पास फ़तेह मक्का के बाद इस्लामी गुंडों का राज हो गया था. 
किसी कि मजाल नहीं थी कि मुहम्मद के खिलाफ मुँह खोल सके . 
मुहम्मद के मरने के बाद ही मक्का वालों ने हुकूमत को टेक्स देना बंद कर दिया कि ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' कहना हमें मंज़ूर नहीं 
'लाइलाहा इल्लिल्लाह' तक ही सही है. 
अबुबकर ख़लीफ़ा ने इसे मान लिया मगर उनके बाद ख़लीफ़ा उमर आए और उन्हों ने फिर बिल जब्र ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' पर अवाम को आमादः कर लिया . 
इसी तरह पुश्तें गुज़रती गईं, सदियाँ गुज़रती गईं, जब्र, ज़ुल्म, 
ज्यादती और बे ईमानी ईमान बन गया.
आज तक चौदह सौ साल होने को हैं सूफ़ी मसलक ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' को मज़ाक़ ही मानता है, वह अल्लाह को अपनी तौर पर तलाश करता है, 
पाता है और जानता है कि 
 किसी स्वयंभू भगवन के अवतार और उसके दलाल बने पैगम्बर के रूप में .
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Thursday 16 June 2016

बांग-ए-दरा -9





बांग-ए-दरा

अल्लाह, गाड और भगवान् 

अगर इंसान किसी अल्लाह, गाड और भगवान् को नहीं मानता तो सवाल उठता है कि वह इबादत और आराधना किसकी करे ? मख्लूक़ फ़ितरी तौर पर किसी न किसी की आधीन होना चाहती है. एक चींटी अपने रानी के आधीन होती है, तो एक हाथी अपनेझुण्ड के सरदार हाथी या पीलवान का अधीन होता है. कुत्ते अपने मालिक की सर परस्ती चाहते है, तो परिंदे अपने जोड़े पर मर मिटते हैं. 
इन्सान की क्या बात है, उसकी हांड़ी तो भेजे से भरी हुई है, 
हर वक्त मंडलाया करती है, नेकियों और बदियों का शिकार किया करती है.
 शिकार, शिकार और हर वक़्त शिकार, 
इंसान अपने वजूद को ग़ालिब करने की उडान में हर वक़्त दौड़ का खिलाडी बना रहता है,
 मगर बुलंदियों को छूने के बाद भी वह किसी की अधीनता चाहता है.
सूफी तबरेज़ अल्लाह की तलाश में इतने गहराई में गए कि उसको अपनी ज़ात के आलावा कुछ न दिखा, उसने अनल हक (मैं खुदा हूँ) कि सदा लगाई, इस्लामी शाशन ने उसे टुकड़े टुकड़े कर के दरिया में बहा देने की सजा दी. मुबाल्गा ये है कि उसके अंग अंग से अनल हक की सदा निकलती रही.
कुछ ऐसा ही गौतम के साथ हुवा कि उसने भी भगवन की अंतिम तलाश में खुद को पाया और
 " आप्पो दीपो भवः " का नारा दिया.
मैं भी किसी के आधीन होने के लिए बेताब था, 
खुदा की शक्ल में मुझे सच्चाई मिली और मैंने उसमे जाकर पनाह ली.
कानपूर के ९२ के दंगे में, मछरिया की हरी बिल्डिंग मुस्लिम परिवार की थी, दंगाइयों ने उसके निवासियों को चुन चुन कर मारा, मगर दो बन्दे उनको न मिल सके, जिनको कि उन्हें खास कर तलाश थी. 
पड़ोस में एक हिन्दू बूढी औरत रहती थी, भीड़ ने कहा इसी घर में ये दोनों शरण लिए हुए होंगे, 
भीड़ ने आवाज़ लगाई, घर की तलाशी लो. 
घर की मालिकन बूढी औरत अपने घर की मर्यादा को ढाल बना कर दरवाजे खड़ी हो गई. 
उसने कहा कि मजाल है मेरे जीते जी मेरे घर में कोई घुस जाए, रह गई अन्दर मुसलमान हैं ? तो मैं ये गंगा जलि सर पर रख कर कहती हूँ कि मेरे घर में कोई मुसलमान नहीं है. 
औरत ने झूटी क़सम खाई थी, दोनों व्यक्ति घर के अन्दर ही थे, जिनको उसने मिलेट्री आने पर उसके हवाले किया. ऐसे झूट का भी मैं अधीन हूँ. 
इस्लाम नाज़िल होने से तकरीबन अस्सी साल पहले का वक़ेआ है कि अब्रहा नाम का कोई हुक्मरां मक्के में काबा पर अपने हाथियों के साथ हमला वर हुवा था. किम-दंतियाँ हैं कि उसकी हाथियों को अबाबील परिंदे अपने मुँह से कंकड़याँ ढो ढो कर लाते और हाथियों पर बरसते, नतीजतन हाथियों को मैदान छोड़ कर भागना पड़ा और अब्रहा पसपा हुवा. यह वक़ेआ ग़ैर फ़ितरी सा लगता है मगर दौरे जिहालत में अफवाहें सच का मुकाम पा जाती हैं.
वाजः हो कि अल्लाह ने अपने घर की हिफ़ाज़त तब की जब खाना ए काबा में ३६० बुत विराजमान थे.
 इन सब को मुहम्मद ने उखाड़ फेंका, अल्लाह को उस वक़्त परिंदों की फ़ौज भेजनी चाहिए था जब उसके मुख्तलिफ शकले वहां मौजूद थीं. अल्लाह मुहम्मद को पसपा करता. अगर बुत परस्ती अल्लाह को मंज़ूर न होती तो मुहम्मद की जगह अब्रहा सललललाहे अलैहे वसल्लम होता.
यह मशकूक वक़ेआ भी कुरानी सच्चाई बन गया और झूट को तुम अपनी नमाज़ों में पढ़ते हो?

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Wednesday 15 June 2016

बांग-ए-दरा -8


बांग-ए-दरा

धर्म और ईमान 

धर्म और ईमान के मुख़तलिफ़ नज़रिए और माने, हर मानव समाज ने अपने अपने हिसाब से गढ़ लिए हैं. आज के नवीतम मानव मूल्यों का तकाज़ा, इशारा करता है कि धर्म और ईमान हर वस्तु के उसके गुण और द्वेष की अलामतें हैं. इस लम्बी बहेस में न जाकर मैं सिर्फ़ मानव धर्म और ईमान की बात पर आना चाहूँगा. 
मानव हित, जीव हित और धरती हित में जितना भले से भला सोचा और भरसक प्रयास किया जा सके वही सब से बड़ा धर्म है और उसी कर्म में ईमान दारी है.
वैज्ञानिक हमेशा ईमानदार होता है क्यूँकि वह नास्तिक होता है, इसी लिए वह अपनी खोज को अर्ध सत्य कहता है. वह कहता है यह अभी तक का सत्य है कल का सत्य भविष्य के गर्भ में है.
मुल्लाओं और पंडितों की तरह नहीं कि आखरी सत्य और आखरी निज़ाम की ढपली बजाते फिरें.
धर्म और ईमान हर आदमी का व्यक्तिगत मुआमला होता है मगर होना चाहिए हर इंसान को धर्मी और ईमान दार,
 कम से कम दूसरे के लिए.
 इसे ईमान की दुन्या में ''हुक़ूक़ुल इबाद'' कहा गया है, अर्थात ''बन्दों का हक़'' 
आज के मानव मूल्य दो क़दम आगे बढ़ कर कहते हैं 
''हुक़ूक़ुल मख़लूक़ात '' अर्थात हर जीव का हक़.
धर्म और ईमान में खोट उस वक़्त शुरू हो जाती है जब वह व्यक्तिगत न होकर सामूहिक हो जाता है. धर्म और ईमान, धर्म और ईमान न रह कर मज़हब और रिलीज़न यानी राहें बन जाते हैं. इन राहों में आरंभ हो जाता है कर्म कांड, वेश भूषा, नियमावली, उपासना पद्धित, जो पैदा करते हैं इंसानों में आपसी भेद भाव.
राहें कभी धर्म और ईमान नहीं हो सकतीं. 
धर्म तो धर्म कांटे की कोख से निकला हुआ सत्य है, 
पुष्प से पुष्पित सुगंध है, 
उपवन से मिलने वाली बहार है. 
हम इस धरती को उपवन बनाने के लिए समर्पित रहें , यही मानव धर्म है. 
धर्म और मज़हब के नाम पर रची गई पताकाएँ, दर अस्ल अधार्मिकता के चिन्ह हैं.
आप अक्सर तमाम धर्मों की अच्छाइयों(?) की बातें करते हैं यह धर्म जिन मरहलों से गुज़र कर आज के परिवेश में कायम हैं,
क्या यह अधर्म और बे ईमानी नहीं बन चुके है?
क्या यह सब मानव रक्त रंजित नहीं हैं?
इनमें अच्छाईयां है कहाँ? जिनको एक जगह इकठ्ठा किया जाय, 
यह तो परस्पर विरोधी हैं. 
मैं आप का कद्र दान हूँ, बेहतर होता कि आप अंत समय में मानव धर्म के प्रचारक बन जाएँ और अपना पाखंडी गेरुआ वेश भूषा और दाढ़ी टोपी तर्क करके साधारण इंसान जैसी पहचान बनाएं.
*****


Hadeesi Hadse 213





हदीसी हादसे 
बुखारी ३७९

मुहम्मद कहते हैं जब अल्लाह के साये के अल्लावः कोई साया न होगा, अल्लाह तअला अपने साए में सात किस्म के लोगों को रख्खेगा- - 
१-हाकिम आदिल.
२- वह जवान जो यादे-खुदा में ही परवरिश पाया हो.
३- वह शख्स जिस का दिल हर वक़्त मस्जिद में लगा रहता है.
४- वह लोग जो खुदा के वास्ते ही प्यार करते हों,और उसी के वास्ते एक दूसरे से जुदाई अख्तियार करते हों. ? ? ?
५- वह शख्स जिसे इज्ज़त वाली हसीन औरत अपने पास बुलाए और वह जवाब देदे कि मुझको खुदा से खौफ़ मालूम होता है.
६- जो शख्स सद्कः दाएं हाथ से करे और बाएँ हाथ को खबर न हो.
७- और वह शख्स जो अकेले में याद इलाही में गिर्या करता हो.
* अहले हदीस इस इक्कीसवीं सदी में कंप्यूटर की तालीम न लेकर मुहम्मद की बातें याद करता है और उन पर अमल करता है. सातों नुक्ते वक़्त की हवा से उलटे सम्त को जाते हैं. इनको मुसलमान अपना निसाब बना कर जीते हैं. 
ये लोग अल्लाह के साए में होंगे, बाकी मुसलामानों का क्या होगा.

बुखारी ३७६
मुहम्मद ने कहा पांच तरह की मौतों से शक्श शहीद होता है - - - 
१- ताऊन से मरे 
२- पेट की बीमारी से मरे 
३- पानी में डूब कर मरे 
४- दब कर मरे 
५- जिहाद में मौत हो.
किस बुन्याद को लेकर जन्नत मुक़र्रर हुई? 
मौत तो कई बार बड़ी ही अज़ीयत नाक होती है.
इसी हदीस में एक बात मुसबत पहलू रखती है, मुहम्मद कहते हैं राह में पड़ी कंटीली झाड़ी जो उठा कर बाहर डाल दे, अल्लाह उसका शुक्र गुज़ार होता है. हांलाकि मुहम्मदी अल्लाह अगर खुद चाहे तो ये काम कर सकता है. या काँटों भरे राहों से मुसलमानो को बचा सकता हो.

बुखारी ३७२
मुहम्मद ने कहा कि खुदा की क़सम कई मर्तबा मैंने इरादा किया कि अपनी जगह मैं किसी और को मुक़र्रर कर के, मैं लकडियाँ चुनूँ और उनके घरों में आग लगा दूं जो इशां के वक़्त नमाज़ पढने नहीं आते. 
कहा, अल्लाह की क़सम जिसके कब्जे में मेरी जान है अगर ये एलान कर दिया जाय कि नमाज़ के बाद बकरी की एक हड्डी या एक खुरी मिलेगी तो यह लोग भागते हुए मस्जिद में आ जाएं .
*मुहम्मद सहाबियों की हक़ीक़त बताई है जिन्हें बड़े अदब और एहतराम के साथ मुसलमान सहाबी ए किरम कहा करते हैं.

Tuesday 14 June 2016

बांग-ए-दरा -7




बांग-ए-दरा

खुदा  कहता है मुझे पूजो नहीं, मुझ से लड़ो 

तू ऐसा बाप है जो अपने बेटे को कुश्ती के दाँव पेंच सिखलाता है,
खुद उससे लड़ कर,
चाहता है कि मेरा बेटा मुझे परास्त कर दे।
तू अपने बेटे को गाली भी दे देता है,
ये कहते हुए कि ''अगर मेरी औलाद है तो मुझे चित करके दिखला'',
बेटा जब गैरत में आकर बाप को चित कर देता है,
तब तू मुस्कुराता है और शाबाश कहता है।
प्रकृति पर विजय पाना ही मानव का लक्ष है,
उसको पूजना नहीं.
मेरा खुदा कहता है तुम मुझे हल हथौड़ा लेकर तलाश करो,
माला और तस्बीह लेकर नहीं।
तुम खोजी हो तो एक दिन वह सब पा जाओगे जिसकी तुम कल्पना करते हो,
तुम एक एक इंच ज़मीन के लिए लड़ते हो,
मैं तुम को एक एक नक्षत्र रहने के लिए दूँगा।
तुम लम्बी उम्र की तमन्ना करते हो,
मैं तुमको मरने ही नहीं दूँगा जब तक तुम न चाहो ,
तुम तंदुरस्ती की आरज़ू करते हो,
मैं तुमको सदा जवान रहने का वरदान दूंगा,
शर्त है कि,
मेरे छुपे हुए राज़ो-नियाज़ को तलाशने की जद्दो-जेहाद करो,
मुझे मत तलाशो,
मेरी लगी हुई इन रूहानी दूकानों पर तुम को अफीमी नशा के सिवा कुछ न मिलेगा।
तुम जा रहे हो किधर ? सोचो,

पश्चिम जागृत हो चुका है. वह आन्तरिक्ष में आशियाना बना रहा है,
तुम आध्यात्म के बरगद के साए में बैठे पूजा पाठ और नमाज़ों में मग्न हो।
जागृत लोग नक्षर में चले जाएँगे तुम तकते रह जाओगे,
तुमको भी  ले जाएंगे साथ साथ,
मगर अपना गुलाम बना कर,
जागो, 
मोमिन सभी को जगा रहा है।
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Monday 13 June 2016

बांग-ए-दरा -6



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 बांग-ए-दरा
ऐ खुदा!
ऐ खुदा! तू खुद से पैदा हुवा,
ऐसा बुजुर्गों का कहना है।
तू है भी या नहीं? ये मेरा जेहनी तजस्सुस और कशमकश है।
दिल कहता है तू है ज़रूर कुछ न कुछ. ब्रहमांड को भेदने वाला,
हमारी ज़मीन की ही तरह लाखों असंख्य ज़मीनों को पैदा करके उनका संचालन करने वाला,
क्या तू इस ज़मीन पर बसने वाले मानव जाति की खबर भी रखता है?
तेरे पास दिल, दिमाग, हाथ पाँव, कान नाक, पर, सींग और एहसासात हैं क्या?
या इन तमाम बातों से तू लातअल्लुक़ है?
तेरे नाम के मंदिर, मस्जिद,गिरजे और तीरथ बना लिए गए हैं,
धर्मों का माया जाल फैला हुवा है, सब दावा करते हैं कि वह तुझसे मुस्तनद हैं,
इंसानी फ़ितरत ने अपने स्वार्थ के लिए मानव को जातियों में बाँट रख्खा है,
तेरी धरती से निकलने वाले धन दौलत को अपनी आर्थिक तिकड़में भिड़ा कर ज़हीन लोग अपने कब्जे में किए हुवे हैं।
दूसरी तरफ मानव दाने दाने का मोहताज हो रहा है।
कहते हैं सब भाग्य लिखा हुआ है जिसको भगवान ने लिखा है।

क्या तू ऐसा ही कोई खुदा है?
सबसे ज्यादह भारत भूमि इन हाथ कंडों का शिकार है।
इन पाखंडियों द्वरा गढ़े गए तेरे अस्तित्व को मैं नकारता हूँ.
तेरी तरह ही हम और इस धरती के सभी जीव भी अगर खुद से पैदा हुए हें,
तो सब खुदा हुए?

नहीं,  तो ! तेरे कुछ जिज्ञासू कहते हैं,
''कण कण में भगवन ''
मैं ने जो महसूस किया है, वह ये कि तू बड़ा कारीगर है।
तूने कायनात को एक सिस्टम दे दिया है,
एक फार्मूला सच्चाई का २+२=४ का सदाक़त और सत्य,
कर्म और कर्म फल,
इसी धुरी पर संसार को नचा दिया है कि धरती अपने मदार पर घूम रही है।
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Friday 10 June 2016

बांग-ए-दरा -5



बांग-ए-दरा
कालिमा

१- कोई भी आदमी (चोर, डाकू, ख़ूनी, दग़ाबाज़ मुहम्मद का साथी मुगीरा* से लेकर गाँधी कपूत हरी गाँधी उर्फ़ अब्दुल्लाह तक नहा धो कर कालिमा पढ़ के मुस्लिम हो सकता है.
२- कालिमा के बोल हैं ''लाइलाहा इललिल्लाह मुहम्मदुर रसूलिल्लाह'' 
जिसके मानी हैं अल्लाह के सिवा कोई अल्लाह नहीं है और मुहम्मद उसके दूत हैं.
सवाल उठता है हजारों सालों से इस सभ्य समाज में अल्लाह और ईशवरों की कल्पनाएँ उभरी हैं मगर आज तक कोई अल्लाह किसी के सामने आने की हिम्मत नहीं कर पा रहा. जब अल्लाह साबित नहीं हो पाया तो उसके दूत क्या हैसियत रखते हैं? सिवाय इसके कि सब के सब ढोंगी हैं.
३- कालिमा पढ़ लेने के बाद अपनी बुद्धि मुहम्मद के हवाले करो, 
जो कहते हैं कि मैं ने पल भर में सातों आसमानों की सैर की और अल्लाह से गुफतुगू करके ज़मीन पर वापस आया कि दरवाजे की कुण्डी तक हिल रही थी.
४- मुस्लिम का इस्लाम कहता है यह दुनिया कोई मानी नहीं रखती, 
असली लाफ़ानी ज़िन्दगी तो ऊपर है, यहाँ तो इन्सान ट्रायल पर 
इबादत करने के लिए आया है. मुसलमानों का यही अक़ीदा कौम के लिए पिछड़े पन का सबब है और हमेशा बना रहेगा.
५- मुसलमान कभी लेन देन में सच्चा और ईमान दार हो नहीं सकता,
 क्यूंकि उसका ईमान तो कुछ और ही है और वह है 
''लाइलाहा इललिल्लाह मुहम्मदुर रसूलिल्लाह'' 
इसी लिए वह हर वादे में हमेशा '' इंशाअल्लाह'' लगता है. 
मुआमला करते वक़्त उसके दिल में उसके ईमान की खोट होती है. 
बे ईमान कौमें दुन्या में कभी न तरक्क़ी कर सकती हैं और न सुर्ख रू हो सकती हैं।