Friday 26 August 2016

बांग-ए-दरा 73




बांग-ए-दरा 

नाकिस इल्म 

मुहम्मदी अल्लाह काफिरों, मुशरिकों, मुकिरों और मुल्हिदों का उनके मरने के बाद जो करेगा सो तो बाद की बात है, फिलहाल जिन लोगों ने इसका दीन ए इस्लाम क़ुबूल हर लिया है उनकी जान साँसत में डाले हुए है. 
जिन्हों ने इस्लाम नहीं कुबूल किया उनके लिए तो क़यामत और सवाब ओ अज़ाब मज़ाक की बातें हैं  मगर जिन्हों ने इस्लाम की घुट्टी पी ली है उनपर अल्लाह का खौफ़ तारी रहता है. 
इस नए मौला की याद आते ही मुस्लिम, मस्जिद की तरफ़ भागते हैं. 
नमाज़ को किसी भी हालत में अल्लाह मुआफ़ नहीं करता,  
खड़े होकर नहीं तो बैठ कर, बैठ कर भी नहीं लेट कर, बोल नहीं सकते तो इशारे से ही सहीह. नमाज़ किसी भी हालत में मुआफ़ नहीं.

इसी तरह रोज़ा भी है मगर थोड़ी सी रिआयत के साथ. आज नहीं रख पाए तो क़ज़ा हुवा, बाद में रखना पड़ेगा. मोहताजों को खाना खिला कर इसका हर्जाना अदा किया जा सकता है या दूसरे को बदले में रोज़ा रखवा कर जान छूट सकती है.

कुछ मॉल टाल इकठ्ठा हुवा तो इससे नजात पाने के लिए हज का रुक्न सामने खड़ा हुवा है कि मक्का जाकर आले रसूल की मदद करिए. यानी हज फ़र्ज़ बन जाता है.

इसके बाद खैरात लाजिम है. हर हालत में ज़कात निकलना फ़र्ज़ है २.५% सालाना अगर ४० रुपिए बचे तो १ रुपया ज़कात निकालिए. ये भुगतान तब तक लाजिम है जब तक की आप खुद खैरात खोरों की लाइन में न आ जाएँ.

चौदह सौ सालों से मुसलमान हुए इंसानी बिरादरी इस टार्चर को झेलती हुई चली आ रही है.
इनकी ये अज़ीयत पसंदी दर असल इनकी ज़ेहनी गिज़ा बन चुकी है. 
जैसे कि क़दीम यूनान के उम्र क़ैद काटने वाले कैदियों को अपने हथकड़ियों और बेड़ियों से प्यार हो जाया करता था कि वह उसे रगड घिस करते कि क़ैदी के वह ज़ेवर चमकने लगते थे. 
वह उन बेड़ियों से नजात पाने के बाद उसे लादे रहते. 
मुसलमान इन गैर तामीरी अमल और फेल के इतने आदी हो चुके हैं कि जैसे इन लग्व्यात के बगैर जिंदा ही नहीं रह सकते.
अल्लाह के एजेंट्स इसके लिए हम्मा वक़्त तैयार रहते हैं. 
मुसलमान अपनी इस दीनी मुसीबत को ज़रा देर के लिए भूलना भी चाहे तो ये भूलने नहीं देते. 
वह दिन में पाँच बार इन्हें लाउड स्पीकर से याद दिलाए रहते हैं कि 
चलो अल्लाह के सामने उठठक बैठक करने का वक़्त हो गया है. 
पहले ये गाज़ी माले गनीमत का मज़ा लिया करते थे अब मस्जिदों की खिमत की ज़कात, मदरसों के चंदा और गण्डा तावीज़ इनका माल गनीमत बन चुके हैं
ये हराम खोर और निकम्मे खुद धरती का बोझ बने हुए हैं और हर साल अपनी जैसी एक जमात कौम को खोखला करने के लिए खड़ी कर देते हैं. ये लोग मुल्क के मदरसों में सरकारी मदद से मुफ्त खोरी की तालीम ए नाक़िस पाते हैं फिर बड़े होने पर बड़ी बड़ी मज़हबी किताबें लिखते है एक नमूना मैं पेश कर रहा हूँ ,इनकी तहरीर का - - -
एक बादशाह का क़िस्सा है कि निहायत मूतशद्दित (आतंकी) और  मुतअस्सिब )भेद भाव करने वाला) था. इत्तेफ़ाक़ से मुसलामानों की एक लड़ाई में गिरफ़्तार हो गया. चूंकि मुसलामानों को इसने तकलीफ बहुत पहुँचाई थी, इस लिए इंतेक़ाम का ज़ोर इनमें भी बहुत था. इसको एक देग में डाल कर आग पर रख दिया. इसने अव्वल अपने बुतों को पुकारना शुरू कर दिया और मदद चाही, जब कुछ न बन पडा तो वहीँ मुसलमान हुवा और लाइलाहा इललिल्लाह का विरद (रटंत) शुरू कर दिया. लगातार पढ़ रहा था और ऐसी हालत में जिस ख़ुलूस और जोश से पढ़ा जा सकता है. ज़ाहिर है अल्लाह तअला शानाहू की तरफ़ से जो मदद हुई, और इस ज़ोर की बारिश हुई कि वह सारी आग भी बुझ गई और देग ठंडी हो गई. इसके बाद जोर की आँधी चली, जिससे वह देग उडी और दूर उस शहर में जहां सब काफ़िर ही रहते थे, जा गिरी. ये शख्स लगातार कलमे तय्यबा पढ़ रहा था, लोग इसके गिर्द जमा हो गए और अजूबा देख के हैरान थे. इससे हाल दर्याफ़्त किया, उसने अपनी सरगुज़श्त सुनाई, जिससे वह लोग भी मुसलमान हो गए.
तबलीगी निसाब फ़ज़ायल ज़िक्र 
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