Wednesday 10 August 2016

बांग-ए-दरा 59


बांग-ए-दरा

फ़ितरते इंसानी

हर शै की तरह इंसानी ज़ेहन भी इर्तेकई मरहलों के हवाले रहता है जिसके तहत अभी इंसानी मुआशरे को खुदा की ज़रुरत है. कुछ लोग बहुत ही सादा लौह होते हैं, उन्हें अपने वजूद के सुपुर्दगी में मज़ा आता है. जैसे की एक हिन्दू धर्म पत्नि अपने पति को ही देवता मान कर उसके चरणों में पड़ी रहने में राहत महसूस करती है. 
हमारे एक डाक्टर दोस्त हैं, जो बहुत ही सीधे सादे नेक दिल इंसान हैं, वह अपने हर काम का अंजाम ईश्वर की मर्ज़ी पर डाल के बहुत सुकून महसूस करते हैं, उनको देख कर बड़ा रश्क आता है कि वह मुझ से बेहतर ज़िन्दगी गुज़ारते हैं, 
कभी कभी अन्दर का कमज़ोर इंसान भटक कर कहता है कि किसी न किसी खुदा को मान कर ही जीना चाहिए. किसी का क्या नुक्सान है कि कोई अपना खुदा रख्खे. 
ये फ़ितरते इंसानी ही नहीं, बल्कि फ़ितरते हैवानी भी है. एक कुत्ता अपने मालिक के क़दमों पर लोट कर कितना खुश होता है. बहुत से हैवान इंसान की पनाह में रहकर ही अमाँ पाते हैं. 
अपने पूज्य, अपने माबूद, अपने देव और अपने मालिक के तरफ़ ये क़दम इंसान या हैवान के दिल के अन्दर से फूटा हुवा जज़बा है, न कि इनके ऊपर लादा गया तसल्लुत. ये किसी खारजी तहरीक या तबलीग का नतीजा नहीं, इसके पीछे कोई डर, खौफ नहीं, कोई लालच या सियासत नहीं है. इसको मनवाने के लिए कोई क़ुरआनी अल्लाह की आयतें नहीं जिसके एक हाथ में दोज़ख की आग और दूसरे हाथ में जन्नत का गुलदस्ता रहता है. अन्दर से फूटी हुई ये चाहत क़ुरआनी अल्लाह की तरह हमारे वजूद की घेरा बंदी नहीं करतीं. आपका ख़ुदा किसी को मुतास्सिर न करे, शौक से पूजिए जब तक कि आप अपने सिने बलूगत में न आ जाएं, आप की समझ में ज़िन्दगी के राज़ ओ नयाज़ न झलकें.
बेटे ने कहा , "अब्बा अब्बा फफीम खाएँगे."
 बाप बोला बेटा पहले अफ़ीम कहना तो सीखो. 
वैसे  ही  होती  है  अल्लाह की फफीम - - -
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