Tuesday 9 August 2016

बांग-ए-दरा 57


बांग-ए-दरा

पक्का मुसलमान =कच्चा इंसान 

पक्का मुसलमान कभी ज़मीर में घुस कर एक सच्चा इन्सान नहीं हो सकता. 
उसकी कमजोरी है इस्लाम. 
इस्लाम इसकी इजाज़त ही नहीं देता कि  अपने दिल का या अपने ज़मीर का कहना मनो. 
बड़े बड़े साहिबे कलम देखे कि सच्चाई का तकाज़ा जहाँ होता है वह इस्लाम और मुसलामानों के तरफ़दार हो जाते हैं. 
आजकल आसाम और म्यामनार की चर्चा हिंदुस्तान की सियासत में कुछ ज़्यादः ही है. दुन्या भर के मुस्लिम सहाफ़ी मसलमानों का रोना रो रहे हैं, जब कि ग़लती न ही ग़ैर मुस्लिमों की है, न मुस्लिमों की, ग़लती इस्लाम मज़हब की है जो कि मुस्लिमों को अपनी डेढ़ ईंट की मस्जिद कायम रखने के लिए मजबूर है, जोकि इस्लाम की तश्हीर और तबलीग के लिए मजबूर कर रही है. अगर मुकामी बन्दे इस ज़हर से नावाकिफ़ है तो बैरूनी तबलीगी इस ज़हर से उनको सींचते रहते हैं. इस्लाम का तकाज़ा है कि दारुल हरम के वफ़ादार रहो और दारुल हरब की ग़द्दारी लाज़िम है. इन हालात में दारुल हरब उनको कैसे और क्यों बर्दाश्त करे
हमें अपनी ज़िन्दगी अपने तौर पर जीना है या आपके गैर फितरी मशविरे के मुताबिक? 
कि नमाज़ पढो, रोज़े रक्खो, खैरात करो अल्लाह को अनेक शक्लों में मत बांटो, सिर्फ़ एक मेरी बतलाई हुई शक्ल में तस्लीम करो, वर्ना मरने को बाद दोज़ख तुम्हारे लिए धरी हुई है. 
यह बातें दुन्या की दरोग़ तरीन बातों में शामिल हैं जो मुस्लिम क़लम के गले में अटकी हुई हैं.
मुसलामानों को इस्लाम से ख़ारिज होकर ईमान की बात करने की ज़रुरत है जिसे कि ये ईमान फरोश ओलिमा होने नहीं देंगे. इनका ज़रीआ मुआश है इस्लाम और उसकी दलाली. . 

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