Friday 12 August 2016

बांग-ए-दरा 61


बांग-ए-दरा
इस्लामी आक़बत 

हिंदी का बड़ा प्यारा लफ्ज़ है 'कल्पना', यह तसव्वुर का हम मानी है , मगर इसका अपना ही रंग है। हर आदमी अपने हाल से बेज़ार होकर अक्सर कल्पनाओं की दुन्या में कुछ देर के लिए चला जाता है। 
कल्पनाएं तो सैकड़ों क़िस्म की होती हैं मगर मैं फिलहाल प्रेमिका को लेता हूँ  यानी तसव्वुरे जानां। तसव्वुरे जानां इसके शिवा कुछ नहीं हैं कि इसे तसव्वुरे जिनसां (sex) कहा जाए। 
उम्मत ए मुस्लिमा चलते फिरते इस कल्पना से महमहज़ूज़ होती है क्योँकि आक़बत (परलोक) का सब से अव्वल इनाम हूरें और गिलमा हैं।  
 हिदू परलोक का मतलब होता है कि इस लोक के झंझा वाद से मुक्ति मगर इस्लामी आक़बत है कि जिंसी बागात में भरपूर ऐश करना। 
जब उम्र ढलने लगाती है तो कल्पित  हसीनाएं कज अदाई करने लगती हैं , बूढ़ों की तो शामत ही आ जाती है जैसा कि कहते हैं दिल कभी बूढा नहीं होता है. ऐसी हालत में वह कल्पनाओं  में जवान होकर फिर से सब कुछ दोहराने लगते हैं। 
इंसान की इस कमज़ोरी को मुहम्मद ने कसके पकड़ा है। उन्होंने मौत के बाद जवानी को आने और जहान ए जिंस में फिर से ग़ोता लगाने का नायाब तसव्वुर मुसलामानों को दिया है।  
आप देखें कि यह बूढ़े जिंस ए लतीफ़ के लिए मस्जिद की तरफ किस तेज़ी से  भागते नज़र आते हैं।  
हूरों की कशिश और गिलमा की चाहत इन से नमाज़ों की कसरत कराती है , रमज़ान में फ़ाक़ा कराती है , हजों का दुश्वार गुज़ार सफ़र तय कराती है और ख़ैरात ओ ज़कात कि फय्याजी कराती है।  
यह बुढ्ढे नमाज़ों के लिए नवजवानों और बच्चों को भी गुमराह करते हैं। 
कोई बताए कि इस्लामी आक़बत का माहसिल इसके अलावा और क्या है ?
 इसके बाद मुख्तलिफ़ ज़ायक़ों की शराबें जन्नतयों को पीने को मिलेंगी , 
बड़ी बडी आँखों वाली हूरें अय्याशी के लिए मयस्सर होंगी , हत्ता कि इग्लाम बाज़ी के लिए महफूज़ मोती  जैसे लौण्डे होंगे।  
 खाना पीना तो कोई मसअला ही नहीं होगा , जिस मेवे की ख्वाहिश होगी उसकी शाखे मुँह के सामने होंगी। 
 अगर इन सब चीज़ों से कोई इंकार करता है तो वह क़ुरान को नकारता है।  
एक नमाज़ी मुसलमान क़ुरान को नकारे, यह मुमकिन नहीं है, जबकि अंदर से वह अल्लाह की इन्हीं नेमतों का आरज़ूमन्द रहता है जिन्हें वह जीते जी नहीं पा सका , जो लतीफ़ होते हुए भी ममनून थीं।  
 इस्लामी दुन्या के आलावा बाक़ी दुन्या में आख़िरुज़ज़मा (अंतिम पैग़म्बर), आखिरी किताब और आखिरी निज़ाम जैसा कोई हादसाती वाक़िआ नहीं हुवा। इस लिए ज़मीन के बाक़ी हिस्सों में इर्तिकाई तामीरात होते गए। पैग़मबर आते गए , राहनुमा जलवा गर होते गए , किताबें रुनुमा होती रहीं , निज़ाम बदलते गए और बदलती गई उनकी धरती की क़िस्मत।
  कहीं कहीं तो इंसानी आज़ादी इतनी तेज़ी से फूली फली कि उनहोंने आसमानी जन्नत को लाकर ज़मीन पर उतार दिया जिसको कुरआन मौत के बाद आसमान पर मिलने की बात करता है, बल्कि इससे भी बेहतर। ऐसी जन्नतें इस ज़मीन पर बन चुकी हैं कि जहाँ नहरें और बाग़ात मज़ाक़ की बातें लगेंगी।
 काफ़ूर और सोठ की लज़ज़त वाली शराबें, वह भी गन्दी ज़मीन पर बहती हुई , लानत भेजिए। हूरों और परियों का हुजूम हम रक़्स है और इनको भी नरों को चुनने की  पूरी आज़ादी है। 
 दूर दूर तक क़यामत का कहीं कोई शोर ओ गुल नहीं, कोई ज़िक्र नहीं, कोई फ़िक्र नहीं, जिहालत कि बातों का कोई गुज़र नहीं। इंसानी हुक़ूक़ इतने महफूज़ हैं कि जैसे बत्तीस दातों के बीच ज़बान महफूज़। 
 ऐसा निज़ाम ए हयात पा लिया है इस ज़मीन के बाशन्दों ने जहाँ इंसान क्या , हैवान और पेड़ पौदे तक महफूज़ हो गए हैं। 
 आखरी निज़ाम वाली दुन्या, अहमकों की जन्नत में रहती है, कोई इनको जगाए। 
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