Thursday 20 October 2016

बांग-ए-दरा 128


बांग-ए-दरा 

हाफ़िज़े कुरआन

चौदह सौ सालों में इसके लाखों हाफिज़ हुए होंगे और आज भी हजारहा मौजूद हैं. इस बात पर एक तहक़ीक़ी निगाह डालने की ज़रुरत है. सब से पहले कि कुरआन एक मुक़फ्फ़ा नसर (तुकान्ती गद्य) है जिसमे सुर, लय और तरन्नुम बनना फितरी है. इसको नगमों की तरह याद किया जा सकता है. खुद कुरआन के तर्जुमे को किसी दूसरी भाषा में हिफ्ज़ कर पाना मुमकिन नहीं, क्यूंकि ये कोई संजीदा मज़मून नहीं है, कोई भी नज़्म खुद को याद कराने की कशिश रखती है. इसके हिफ्ज़ का शिकार तालिब इल्म किसी दूसरे मज़मून के आस पास नहीं रहता, जब वह दूसरे सब्जेक्ट पर जोर डालता है तो उसका क़ुरआनी हिफ्ज़ ख़त्म होने लगता है.
आमाद ए जेहाद तालिब इल्म कुरआन क्या, इससे बड़ी बड़ी किताबो का हफिज़ा कर लेता है. एक लाख बीस हज़ार की ज़खीम किताब महा भारत बहुतों को कंठस्त हुई. सिन्फ़ आल्हा ज़बानी गाया जाता है जो बांदा जिले के लोगों में सीना बसीना अपने पूर्वजों से आय़ा. इस विधा को जाहो-जलाल के साथ गाया जाता है कि सुनने वाले पर जादू चढ़ कर बोलता है.
अभी एक नवजवान ने पूरी अंग्रेजी डिक्शनरी को, लफ़्ज़ों को उलटी हिज्जे के साथ याद करके दुन्या को अचम्भे में ड़ाल दिया, इसका नाम गिनीज़ बुक आफ रिकार्ड में दर्ज हुआ.
अहम् बात ये है कि इतनी बड़ी तादाद में हाफ़िज़े कुरआन, कौम के लिए कोई फख्र की बात नहीं, ये तो शर्म की बात है कि कौम के नवजवान को हाफ़िज़े जैसे गैर तामीरी काम में लगा दिया जाए. इतने दिनों में तो वह ग्रेजुएट हो जाते. कोई कौम दुन्या में ऐसी नहीं मिलेगी जो अपने नव जवानों की ज़िन्दगी इस तरह से बर्बाद करती हो.
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