Monday 10 October 2016

बांग-ए-दरा 118




बांग ए दरा 

इंशा अल्लाह

इंशा अल्लाह का मतलब है ''(अगर) अल्लाह ने चाहा तो।'' 
सवाल उठता है कि कोई नेक काम करने का इरादा अगर आप रखते हैं तो अल्लाह उसमे बाधक क्यूँ बनेगा? अल्लाह तो बार कहता है नेक काम करो. 
हाँ कोई बुरा काम करने जा रहो तो ज़रूर इंशा अल्लाह कहो, अगर वह राज़ी हो जाए? वह वाकई अगर अल्लाह है तो इसके लिए कभी राज़ी न होगा. 
अगर वह शैतान है तो इस की इजाज़त दे देगा. 
अगर आप बुरी नियत से बात करते हैं तो मेरी राय ये है कि इसके लिए इंशा अल्लाह कहने कि बजाए ''इंशा शैतानुर्रजीम'' कहना दुरुत होगा. 
इसबात का गवाह खुद अल्लाह है कि शैतान बुरे काम कराता है. 
आपने कोई क़र्ज़ लिया और वादा किया कि मैं फलाँ तारीख को लौटा दूंगा. आप के इस वादे में इंशा अल्लाह कहने की ज़रुरत नहीं, क्यूँ कि क़र्ज़ देने वाले के नेक काम में अल्लाह की मर्ज़ी यकीनी है, तो वापसी के काम में क्यूँ न होगी? 
चलो मान लेते है कि उस तारीख में अगर आप नहीं लौटा पाए तो कोई फाँसी नहीं, जाओ सुलूक करने वाले के पास, अपने आप को खता वार की तरह उसको पेश करदो. वह बख्श दे या जुरमाना ले, उसे इसका हक होगा. 
रघु कुल रीति सदा चलि आई, प्राण जाएँ पर वचन न जाई.
इसी सन्दर्भ में भारत सरकार का रिज़र्व बैंक गवर्नर भरतीय नोटों पर वचन देता है- - -''मैं धारक को एक सौ रूपए अदा करने का वचन देता हूँ'' 
दुन्या के सभी मुमालिक का ये उसूल है, उसमें सभी इस्लामी मुल्क भी शामिल है. जहाँ लिखित मुआमला हो, चाहे इकरार नामें हों या फिर नोट कहीं, इंशा अल्लाह का दस्तूर नहीं है. 
इंशा अल्लाह आलमी सतेह पर बे ईमानी की अलामत है. 
मुहम्मद ने मुसलमानों के ईमान को पुख्ता नहीं, बल्कि कमज़ोर कर दिया है, खास कर लेन देन के मुआमलों में. 
क़ुरआनी आयतें उन पर वचन देने की जगह '' इंशा अल्लाह'' कहने की हिदायत देती हैं, इसके बगैर कोई वादा या अपने आइन्दा के अमल को करने की बात को गुनहगारी बतलाती हैं. 
आम मुसलमान इंशा अल्लाह कहने का आदी हो चुका है.
उसके वादे, कौल,क़रार, इन सब मुआमलों में अल्लाह की मर्ज़ी पर मुनहसर करता है कि वह पूरा करे या न करे. इस तरह मुसलमान इस गुंजाइश का नाजायज़ फ़ायदा ही उठाता है, नतीजतन पूरी कौम बदनाम हो चुकी है. 
मैंने कई मुसलामानों के सामने नोट दिखला कर पूछा कि अगर सरकारें इन नोटों में इंशा अल्लाह बढ़ा दें और यूँ लिखें कि 
''मैं धारक को एक सौ रूपए अदा करने का वचन देता हूँ , इंशा अल्लाह '' 
तो अवाम क्या इस वचन का एतबार करेगी?, 
उनमें कशमकश आ गई. 
उनका ईमान यूँ पुख्ता हुवा है कि अल्लाह उनकी बे ईमानी पर राज़ी है, गोया कोई गुनाह नहीं कि बे ईमानी कर लो. 
इस मुहम्मदी फार्मूले ने पूरी कौम की मुआशी हालत को बिगड़ रख्खा है. 
सरकारी अफ़सर मुस्लिम नाम सुनते ही एक बार उसको सर उठ कर देखता है, फिर उसको खँगालता है कि लोन देकर रक़म वापस भी मिलेगी ? 
मेरे लाखों रूपये इन चुक़त्ता मुक़त्ता दाढ़ी दार मुसलमानों में डूबे हैं .
कौमी तौर पर मुसलमान पक्का तअस्सुबी (पक्षपाती) होता है. 
पक्षपात की वजेह से भी मुस्लमान संदेह की नज़र से देखा जाता है .
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