
बांग ए दरा
जिहाद
जिहाद को लेकर बहसें चल रही हैं. पिछले दिनों ndtv पर इस सिलसिले में एक तमाशा देखने को मिला. इसमें मुस्लिम बाज़ीगर आलिमों और सियासत दानों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया, लग रहा था कि इस्लाम का दिफ़ा कर रहे हों, बजाए इसके कि वह सच्चाई से काम लेते, जिससे मुस्लिम अवाम का कुछ फ़ायदा हो. जिहाद के नए नए नाम और मअनी तराशे गए, इसका हिंदी करण किया गया कि
जिहाद प्रयास और प्रयत्न का दूसरा नाम है,
यज्ञं और परितज्ञं को जिहाद कहा जाता है.
उन सभों की लफ्ज़ी मानों में यह दलीले सही थीं मगर
जिहाद का और उसके अर्थ का इस्लामी करण किया गया है,
काश कि ऐसा होता जैसा कि यह जोगी बतला रहे थे.
क़ुरआन में जिहाद के फ़रमान हैं,
"इस्लाम के लिए जंगी जिहाद करो, गैर मुस्लिम और ख़ास कर काफ़िरों से,
इतनी जिहाद करो कि उनका वजूद न बचे."
सैकड़ों आयतें इस संदभ में पेश की जा सकती हैं.
इस सन्दर्भ में. "काफ़िर वह होते हैं जो कुफ्र करते है और एकेश्वर को नहीं मानते तथा मूर्ति पूजा करते है. भारत के हिन्दू 'मिन जुमला काफ़िर' हैं,
इसको मुसलामानों के दिल ओ दिमाग से निकाला नहीं जा सकता.
खैबर की जंग इसकी तारीखी गवाह है, जिसमें खुद मुहम्मद शामिल थे. ये जिहाद इतनी कुरूर थी कि इसके बयान के लिए इन ओलिमा के पास हिम्मत और जिसारत नहीं कि यह टीवी चैनलों के सामने बयान कर सकें. इसी जंग में मिली मज़लूम सफ़िया, मुहम्मद की बीवियों में से एक थी जिसे मजबूर होना पड़ा कि अपने बाप, भाई, शौहर और पूरे खानदान की लाशों के बीच मुहम्मद के साथ सुहाग रात मनाए.
अलकायदा, तालिबान और अन्य जिहादी तंजीमें सही मअनो में क़ुरआनी मुसलमान हैं जो खैबर को अफगानिस्तान के कुछ हिस्से में मुहम्मदी काल को दोहरा रहे हैं.
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