Monday 17 October 2016

बांग-ए-दरा 125




बांग ए दरा
''मुश्तबाहुल मुराद

मुहम्मदी अल्लाह तअज्जुब में है कि इसके कारनामें ज़मीन से लेकर आसमान तक बिखरे हुए हैं, आख़िर लोग इसके क़ायल क्यूँ नहीं होते?
मुसलमान कुरआन को सैकड़ों साल से यक़ीन और अक़ीदे के साथ पढ़ रहे हैं,
नतीजा ए कार ये है कि इनके समझ में ये आ गया कि मुहम्मद के ज़माने में कुफ्फार खुदा के क़ुदरत के क़ायल न रहे होंगे. या मुशरिकों का दावा रहा होगा कि बानिए कायनात उनके देवी देवता रहे होंगे. ये महेज़ इनका वह्म है. मगर कुरान ऐसी छाप इनके ज़ेहनो पर छोड़ता है.
कि ज़माना ए मुहम्मद में इंसान दुश्मने अक्ल रहा होगा.
ये कुरानी प्रोपेगंडा से फैलाया हुवा वहिमा है.
वह लोग आज ही की तरह मुख्तलिफ फ़िक्र और मुख्तलिफ नज़रयात के मालिक हुवा करते थे. वह अल्लाह को मानने वाले और उसकी क़ुदरत को मानने और जानने वाले लोग थे. मुहम्मद ने जिस अल्लाह की तशकील की थी,
वह उनकी फ़ितरत और उनकी सियासत के एतबार से था,
यानी ज़ालिम, जाबिर,  मुन्तकिम और खुदसर अल्लाह,
जिसकी तर्जुमानी मुहम्मद ने कुरआन में की है.
अपनी इस हांडी के अन्दर, वह उस अज़ीम ताक़त को बन्द करके पकाना चाहते हैं
जिसे क़ुदरत कहते हैं और परोसना चाहते हैं उन लोगों को जिनको
क़ुदरत ने थोड़ी बहुत समझ दी है या अपना ज़मीर दिया है.
जब वह इस को खाने से इंकार करते हैं तो वह उन पर इलज़ाम लगाते हैं
 "तअज्जुब है कि अल्लाह की क़ुदरत को तस्लीम ही नहीं करते."
इधर हम जैसे लोग तअज्जुब में हैं कि एक अनपढ़, अपने धुन में किस क़दर आमादा ए था
कि हज़ारों मज़ाक बनने के बाद भी, फिटकारने और दुत्कारने के बाद भी,
बे इज्ज़त और पथराव होने के बाद भी, मैदान से पीछे हटने को तैयार न था.
फ़तह मक्का के बाद फिर तो ये फक्कड़ों और लाखैरों का रसूल,
जब  फातेह बन कर मक्का में दाख़िल हुवा होगा
तो शहर के साहिबे इल्म ओ फ़िक्र पर क्या गुजरी होगी.
आँखें बन्द करके सब्र कर गए होंगे,
अपनी आने वाली नस्ल के मुस्तक़बिल को सोच कर वह जीते जी मर गए होंगे.
दसियों लाख इंसानों का क़त्ल तो इस्लाम ने सिर्फ़ पचास साल में ही का डाला.
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