Friday 9 September 2016

बांग-ए-दरा 87


बांग ए दरा 

सच का एलान

क़ुरआन मुकम्मल दरोग़, किज़्ब, लग्व, और झूट का पुलिंदा है। इसके रचनाकार दर परदा, अल्लाह बने बैठे, मुहम्मद सरापा मक्र, अय्यारी, बोग्ज़, क़त्लो-गारत गरी, सियासते-ग़लीज़, दुश्मने इंसानियत और झूटे हैं. इनका तख्लीक़ अल्लाह इंसानों को तनुज्ज़ली के ग़ार में गिराता हुवा इनकी बिरादरी कुरैशियों पर दरूद-सलाम भिजवाता रहेगा, इनके हराम ख़ोर ओलिमा बदले में खुद भी हलुवा पूरी खाते रहेंगे और करोरों मुसलमानों को अफ़ीमी इस्लाम की नींद सुलाए रखेंगे.
मैं एक मोमिन हूँ जो कुछ लिखता हूँ सदाक़त की और ईमान की छलनी से बात को छान कर लिखता हूँ.
मैं क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा मुसम्मी (बमय अलक़ाब) 
'' हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी'' 
को लेकर चल रहा हूँ जो हिंदो-पाक में अपना पहला मुक़ाम रखते हैं. मैं उनका एहसान मंद हूँ कि उनसे हमें इतनी क़ीमती धरोहर मिली. मौलाना ने बड़ी ईमान दारी के साथ अरबी तहरीर का बेऐनेही उर्दू में तर्जुमा किया जोकि बाद के आलिमों को खटका और उन्होंने तर्जुमें में कज अदाई करनी शुरू करदी, करते करते 
'कूकुर को धोकर बछिया' बना दिया.
'' हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी'' ने इस्लामी आलिम होने के नाते यह किया है कि ब्रेकेट के अन्दर अपनी (मनमानी) बातें रख रख कर क़ुरआन की मुह्मिलात में माने भर दिए हैं, मुहम्मद की ग्रामर दुरुस्त करने की कोशिश की है, यानी तालिब इल्म अल्लाह और मुहम्मद के उस्ताद बन कर उनके कच्चे कलाम की इस्लाह की है, उनकी मुताशाइरी को शाइरी बनाने की नाकाम कोशिश की है.
'' हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी'' ने एक और अहेम काम किया है कि रूहानियत के चले आ रहे रवायती फार्मूले और शरीयत की बारीकियों का एक चूँ चूँ का मुरब्बा बना कर उसका नाम रखा 'तफसीर'। जो कुछ कुरआन के तल्ख़ जुज़ थे मौलाना ने इस मुरब्बे से उसे मीठा कर दिया है. तफसीर हाशिया में लिखी है , वह भी मुख़फ़फ़फ़ यानी खफीफ में जिसे अवाम किया ख़वास का समझना भी मुहाल है.
दूसरी बात मैं यह बतला दूँ कि कुरआन के बाद इस्लाम की दूसरी बुनियाद है हदीसें. हदीसें बहुत सी लिखी गई हैं जिन पर कई बार बंदिश भी लगीं मगर ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की हदीसें मुस्तनद मानी गई हैं मैंने इनको ही अपनी तहरीर के लिए मुन्तखिब किया है। ज़ईफ़ कही जाने वाली हदीसों को छुवा भी नहीं. याद रखें कि हदीसं ही इस्लामी इतिहास की बुन्याद हैं अगर इन्हें हटा दिया जाए तो इस्लाम का कोई मुवर्रिख न मिलेगा जैसे तौरेत या इंजील के हैं, क्यूं कि यह उम्मी का दीन है. ज़ाहिर है मेरी मुखालिफत में वह लोग ही आएँगे जो मुकम्मल झूट कुरआन पर ईमान रखते है और सरापा शर्री मुहम्मद को ''सललललाहो अलैहे वसल्लम'' कहते हैं. जब कि मैं अरब की आलमी इंसानी तवारीख तौरेत को आधा सच और आधा झूट मान कर अपनी बात पर कायम हूँ।
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