
बांग ए दरा
लोहे को जितना गरमा गरमा कर पीटा जाय वह उतना ही ठोस हो जाता है। इसी तरह चीन की दीवार की बुन्यादों की ठोस होने के लिए उसकी वींव की खूब पिटाई की गई है,
लाखों इंसानी शरीर और रूहें उसके शाशक के धुर्मुट तले दफ़न हैं.
ठीक इसी तरह मुसलमानों के पूर्वजों की पिटाई इस्लाम ने इस अंदाज़ से की है कि उनके नस्लें अंधी, बहरी और गूंगी पैदा हो रही हैं.
(सुम्मुम बुक्मुम उम्युन, फहुम ला युर्जून)
इन्हें लाख समझाओ यह समझेगे नहीं.
मैं कुरआन में अल्लाह की कही हुई बात ही लिख रह हूँ जो कि
न उनके हक में है, न इंसानियत के हक में ,
मगर वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं,
वजेह वह सदियों से पीट पीट कर मुसलमान बनाए जा रहे है,
आज भी खौफ ज़दा हैं कि दिल दिमाग और ज़बान खोलेंगे तो पिट जाएँगे,
कोई यार मददगार न होगा.
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शिकार
एक सूरह में शिकारयात पर अल्लाह का कीमती तबसरा ज्यादह ही है
गो कि आज ये फुजूल की बातें हो गईं हैं
मगर मुहम्मदी अल्लाह इतना दूर अंदेश होता तो हम भी यहूदियों की तरह दुनिया के बेताज बादशाह न होते.
खैर ख्वाबों में सही आकबत में ऊपर जन्नतों के मालिक तो होंगे ही.
मोहम्मद शिकार के तौर तरीके बतलाते हैं
क्यंकि उनके मूरिसे आला इस्माईल लौंडी जादे थे,
और हाजरा (हैगर) के बेटे एक शिकारी ही थे जिनकी अलमाती मूर्तियाँ काबे की दीवारों में नक्श थीं, जिसे इस्लामी तूफ़ान ने तारीखी सच्चाइयों की हर धरोहर की तरह खुरच खुरच कर मिटा दिया.
मगर क्या खून में दौड़ती मौजों को भी इसलाम कहीं पर मिटा सका है.
खुद मुहम्मद के खून में इस्माईल के खून की मौज कुरआन में आयत बन कर बन कर बोल रही है. हिदुस्तानी मुल्ला की बेटी की तन पर लिपटी सुर्ख लिबास,
क्या सफेद इस्लामी लिबास का मुकाबला कर सका है?
मुहम्मद कुरआन में कहते है बेशक अल्लाह जो चाहे हुक्म दे,
यह उनकी खुद सरी की इन्तहा है और उम्मत गुलाम की इंसानी सरों की पामाली की हद.
एक सरकश अल्लाह बन कर बोले और लाखों बन्दे सर झुकाए लब बयक कहें,
इस से बड़ा हादसा किसी क़ौम के साथ और क्या हो सकता है?
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