Tuesday 6 September 2016

बांग-ए-दरा 84


बांग ए दरा 

क़यामत ए जारिया

मुहम्मद का क़यामत का शगूफ़ा इतना कामयाब होगा कि इसे सोचा भी नहीं जा सकता. 
आज इक्कीसवीं सदी में भी क़यामत की अफ़वाह अक्सर फैला करती है, 
तब तो खैर दुन्या जेहालत के दौर में थी.
अवाम उमूमन डरपोक हुवा करती है. हाद्साती अफ़वाहों को वह खुद हवा दिया करती है. 
अहले कुरैश से एक शख्स क़यामत आने की खबर समाज को देता है, 
इसे वह मुश्तहिर करता है. 
लोग हज़ार झुट्लाएं, वह बाज़ नहीं आता. 
उसकी वजेह से मक्का में लोगों को क़यामत का सपना आने लगा था. 
क़यामत की वबा फ़ैल चुकी थी, 
वह चाहे यकीन के तौर पर या इसका मजाक ही बन गया हो.
इस्लाम का ज़हर वजूद में आ चुका था जो मुसलमानों के लिए क़यामत ए जरिया आज तक बना हुआ है .
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मुहम्मदी अल्लाह का क़यामती साया 

आज इक्कीसवीं सदी में दुन्या के तमाम मुसलामानों पर मुहम्मदी अल्लाह का क़यामती साया ही मंडला रहा है.जो कबीलाई समाज का मफरूज़ा खदशा हुवा करता था. 
अफगानिस्तान दाने दाने को मोहताज है, 
ईराक अपने दस लाख बाशिदों को जन्नत नशीन कर चुका है, 
मिस्र, लीबिया और दीगर अरब रियासतों पर इस्लामी तानाशाहों की चूलें ढीली हो रही हैं तमाम अरब मुमालिक अमरीका और योरोप के गुलामी में जा चुके है, 
लोग तेज़ी से ईसाइयत की गोद में जा रहे हैं, 
कम्युनिष्ट रूस से आज़ाद होने वाली रियासतें जो इस्लामी थीं, 
दोबारा इस्लामी गोद में वापस होने से साफ़ इंकार कर चुकी हैं, 
११-९ के बाद अमरीका और योरोप में बसे मुसलमान मुजरिमाना वजूद ढो रहे हैं, 
अरब से चली हुई बुत शिकनी की आंधी हिदुस्तान में आते आते कमज़ोर पड़ चुकी है, 
सानेहा ये है कि ये न आगे बढ़ पा रही है और न पीछे लौट पा रही है, 
अब यहाँ बुत इस्लाम पर ग़ालिब हो रहे हैं, 
१८ करोड़ बे कुसूर हिदुस्तानी बुत शिकनों के आमाल की सज़ा भुगत रहे हैं, 
हर माह के छोटे मोटे दंगे और सालाना बड़े फसाद इनकी मुआशी हालत को बदतर कर देते हैं, और हर रोज़ ये समाजी तअस्सुब के शिकार हो जाते हैं, 
इन्हें सरकारी नौकरियाँ बमुश्किल मिलती है, 
बहुत सी प्राइवेट कारखाने और फर्में इनको नौकरियाँ देना गवारा नहीं करती हैं, 
दीनी तालीम से लैस मुसलमान वैसे भी हाथी का लेंड होते है, 
जो न जलाने के काम आते हैं न लीपने पोतने के, 
कोई इन्हें नौकरी देना भी चाहे तो ये उसके लायक ही नहीं होते. 
लेदे के आन्वां का आवां ही खंजर है.
दुन्या के तमाम मुसलमान जहाँ एक तरफ अपने आप में पस मानदा है, 
वहीँ दूसरी कौमों की नज़र में जेहादी नासूर की वजेह से ज़लील और ख्वार है. 
क्या इससे बढ़ कर कौम पर कोई क़यामत आना बाकी रह जाती है? 
ये सब उसके झूठे मुहम्मदी अल्लाह और उसके नाकिस कुरआन की बरक़त है. 
आज हस्सास तबा मुसलमान को सर जोड़कर बैठना होगा कि बुजुर्गों की नाकबत अनदेशी ने अपने जुग्रफियाई वजूद को कुर्बान करके अपनी नस्लों को कहीं का नहीं रक्खा.
ईरान में बज़ोरशमशीर इस्लामी वबा आई कमजोरों ने इसे निगल लिया 
मगर गयूर ज़रथुर्सठी ने इसे ओढना गवारा नहीं किया, 
घर बार और वतन की क़ुरबानी देकर हिदुस्तान में आ बसे जिहें पारसी कहा जाता है, 
दुन्या में सुर्खुरू है.सिर्फ एक पारसी टाटा के सामने तमाम ईरान पानी भरे.
मुसलामानों के सिवा हर कौम मूजिदे जदीदयात है जिनकी बरकतों से आज इंसान मिर्रीख के लिए पर तौल रहा है. इस्लाम जब से वजूद में आया है मामूली सायकिल जैसी चीज़ भी कोई मुसलमान ईजाद नहीं कर सका, हाँ इसकी मरम्मत और इसका पंचर जोड़ने के काम में ज़रूर लगा हुवा पाया जाता है.
अब भी अगर मुसलमान इस्लाम पर डटा रहा तो 
इसकी बद नसीबी ही होगी कि 
एक दिन वह दुन्या के लिए माजी की कौम बन जाएगा.
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