Sunday, 25 September 2016

बांग-ए-दरा 103





बांग ए दरा 

तालिबानी आयत

"जेहाद करना तुम पर फ़र्ज़ कर दिया गया है 
और वह तुम को गराँ है और यह बात मुमकिन है तुम किसी अम्र को गराँ समझो और वह तुम्हारे ख़ैर में हो 
और मुमकिन है तुम किसी अम्र को मरगूब समझो और वह तुम्हारे हक में खराबी हो 
और अल्लाह सब जानने वाले हैं और तुम नहीं जानते," 
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २१४)
नमाज़, रोजा, ज़कात, हज, जैसे बेसूद और मुहमिल अमल माना कि कभी न ख़त्म होने वाले अमले ख़ैर होंगे मगर ये जेहाद भी कभी न ख़त्म होने वाला अल्लाह का फरमाने अमल है 
कि जब तक ज़मीन पर एक भी गैर मुस्लिम बचे या एक भी मुस्लिम बचे? जेहाद जारी रहे बल्कि उसके बाद भी? 
मुस्लिम बनाम मुस्लिम (फिरका वार)
 बे शक. अल्लाह, उसका रसूल और कुरान अगर बर हक हैं तो उसका फ़रमान उस से जुदा नहीं हो सकता. 
सदियों बाद तालिबान, अलकायदा जैशे मुहम्मद जैसी इस की बर हक अलामतें क़ाएम हो रही हैं, तो इस की मौत भी बर हक है. 
इसलाम का यह मज्मूम बर हक, वक़्त आ गया है कि ना हक में बदल जाय. 
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