
बांग ए दरा
बेदार हों
मुसलमानों ! दस्तूर ए कुदरत के मुताबिक हर सुब्ह कुछ बदलाव हुवा करता है.
कहते हैं कि परिवर्तन ही प्रकृति नियम है.
फ़िराक़ कहते हैं -
निज़ाम ए दह्र बदले, आसमान बदले ज़मीं बदले,
कोई बैठा रहे कब तक हयात ए बे असर लेकर.
तुम क्या "हयात ए बे असरी" को जी रहे हो?
हर रोज़ सुब्ह ओ शाम तुम कुछ नया देखते हो. इसके बावजूद तुम पर असर नहीं होता? इंसानी ज़ेहन भी इसी ज़ुमरे में आता है, जो कि तब्दीली चाहता है.
बैल गाड़ियाँ इस तबदीली की बरकत से आज तेज़ रफ़्तार रेलें बन गई हैं.
तुम जब सोते हो तो इस नियत को बाँध कर सोया करो कि कल कुछ नया होगा,
जिसको अपनाने में हमें कोई संकोच नहीं होगा.
तारीक्यों से पहले सरे शाम चाहिए,
हर रोज़ आगाही से भरा जाम चाहिए.
मगर तुम तो सदियों पुरानी रातों में सोए हुए हो, जिसका सवेरा ही नहीं होने देते.
दुनिया कितनी आगे बढ़ गई है, तुमको खबर भी नहीं.
उट्ठो आँखें खोलो. इस्लाम तुम पर नींद की अलामत है.
इसे अपनाए हुए तुम कभी भी इंसानी बिरादरी की अगली सफों में नहीं आ सकते.
इस से अपना मोह भंग करो वर्ना तुम्हारी नस्लें तुमको कभी मुआफ नहीं करेगी.
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