Friday 2 September 2016

बांग-ए-दरा 80


बांग-ए-दरा

पाकी

इस्लामी तरीक़े चाहे वह अहम् हों चाहे ग़ैर अहम्, 
इंसानों के लिए गैर ज़रूरी तसल्लुत बन गए हैं. 
उनको क़ायम रखना आज कितना मज़ाक बन गया है कि हर जगह उसकी खिल्ली उड़ाई जाती है. उन्हीं में एक एक थोपन है पाकी, यानी शुद्धता. 
कपडे या जिस्म पर गन्दगी की एक छींट भी पड़ जाए तो नापाकी आ जाती है . 
मुसलमान हर जगह पेशाब करने से पहले पानी या खुश्क मिटटी का टुकड़ा ढूँढा करता है
 कि वह पेशाब करने के बाद इस्तेंजा (लिंग शोधन) करे.
आज के युग में ये बात कहीं कहीं कितनी अटपटी लगती है, 
खास कर नए समाज की खास जगहों पर.
मुसलामानों के कपडे साफ़ी हो जाएँ मगर इसमें पाकी बनी रहे.
इसी तरह माँ बाप बच्चों को सिखलाते है सलाम करना, 
उसके बाद मुल्ला जी समझाते हैं कि दिन में जितनी बार भी मिलो सलाम करो, 
शिद्दत ये कि घर में माँ बाप से हर हर मुलाक़ात पर सलाम करो. 
ये जहाँ लागू हो जाता है, वहां सलाम एक मज़ाक़ बन जाता है. 
इसी पर कहा गया है
"लोंडी ने सीखा सलाम, सुब्ह देखा न शाम."
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