Thursday 3 November 2016

बांग-ए-दरा 139


बांग ए दरा 

जिहालत का पैकर 
अल्लाह चाँद की क़सम खा रहा है, जबकि वह सूरज के पीछे हो. 
इसी तरह वह दिन की क़सम खा रहा है जब कि वह सूरज को खूब रौशन करदे?
गोया तुम्हारा अल्लाह ये भी नहीं जनता कि सूरज निकलने पर दिन रौशन हो जाता है. 
वह तो जानता है कि दिन जब निकलता है तो सूरज को रौशन करता है.
इसी तरह रात को अल्लाह एक पर्दा समझता है जिसके आड़ में सूरज जाकर छिप जाता है.
ठीक है हजारो साल पहले क़बीलों में इतनी समझ नहीं आई थी, 
मगर सवाल ये है कि क्या अल्लाह भी इंसानों की तरह ही इर्तेकाई मराहिल में था?
मगर नहीं! अल्लाह पहले भी यही था और आगे भी यही रहेगा. 
ईश या खुदा कभी जाहिल या बेवकूफ तो हो ही नहीं सकता.
इस लिए मानो कि कुरआन किसी अल्लाह का कलाम तो हो ही नहीं सकता. 
ये उम्मी मुहम्मद की जेहनी गाथा है.
कुरआन में बार बार एक आवारा ऊँटनी का ज़िक्र है. कहते हैं कि 
अल्लाह ने बन्दों का चैलेंज कुबूल करते हुए पत्थर के एह टुकड़े से एक ऊँटनी पैदा कर दिया. बादशाह ने इसे अल्लाह की ऊँटनी करार देकर आज़ाद कर दिया था 
जिसको लोगों ने मार डाला और अल्लाह के कहर के शिकार हुए.
ये किंवदंती उस वक्त की है जब इंसान भी ऊंटों के साथ जंगल में रहता था, 
इस तरह की कहानी के साथ साथ.
मुहम्मद उस ऊँटनी को पूरे कुरआन में जा बजा चराते फिरते हैं.




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