Monday 13 June 2016

बांग-ए-दरा -6



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 बांग-ए-दरा
ऐ खुदा!
ऐ खुदा! तू खुद से पैदा हुवा,
ऐसा बुजुर्गों का कहना है।
तू है भी या नहीं? ये मेरा जेहनी तजस्सुस और कशमकश है।
दिल कहता है तू है ज़रूर कुछ न कुछ. ब्रहमांड को भेदने वाला,
हमारी ज़मीन की ही तरह लाखों असंख्य ज़मीनों को पैदा करके उनका संचालन करने वाला,
क्या तू इस ज़मीन पर बसने वाले मानव जाति की खबर भी रखता है?
तेरे पास दिल, दिमाग, हाथ पाँव, कान नाक, पर, सींग और एहसासात हैं क्या?
या इन तमाम बातों से तू लातअल्लुक़ है?
तेरे नाम के मंदिर, मस्जिद,गिरजे और तीरथ बना लिए गए हैं,
धर्मों का माया जाल फैला हुवा है, सब दावा करते हैं कि वह तुझसे मुस्तनद हैं,
इंसानी फ़ितरत ने अपने स्वार्थ के लिए मानव को जातियों में बाँट रख्खा है,
तेरी धरती से निकलने वाले धन दौलत को अपनी आर्थिक तिकड़में भिड़ा कर ज़हीन लोग अपने कब्जे में किए हुवे हैं।
दूसरी तरफ मानव दाने दाने का मोहताज हो रहा है।
कहते हैं सब भाग्य लिखा हुआ है जिसको भगवान ने लिखा है।

क्या तू ऐसा ही कोई खुदा है?
सबसे ज्यादह भारत भूमि इन हाथ कंडों का शिकार है।
इन पाखंडियों द्वरा गढ़े गए तेरे अस्तित्व को मैं नकारता हूँ.
तेरी तरह ही हम और इस धरती के सभी जीव भी अगर खुद से पैदा हुए हें,
तो सब खुदा हुए?

नहीं,  तो ! तेरे कुछ जिज्ञासू कहते हैं,
''कण कण में भगवन ''
मैं ने जो महसूस किया है, वह ये कि तू बड़ा कारीगर है।
तूने कायनात को एक सिस्टम दे दिया है,
एक फार्मूला सच्चाई का २+२=४ का सदाक़त और सत्य,
कर्म और कर्म फल,
इसी धुरी पर संसार को नचा दिया है कि धरती अपने मदार पर घूम रही है।
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