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बांग-ए-दरा
कुदरत का निज़ाम
धरती की तमाम मख्लूक़ जब्र और ना इंसाफी की राहों पर गामज़न है.
कुदरत का शायद यही निज़ाम है.
आप गौर करें की शेर ज़्यादः हिस्सा जानवर को अपना शिकार बना लेता है,
बड़ी मछली तमाम छोटियों को निगल जाती है,
आसमान पर आज़ाद उड़ रहे परिंदों को भी इस बात का खटका रहता है कि वह किसी का शिकार न हो जाए.
यहाँ तक कि एक पेड़ भी दूसरे पेड़ का शोषण करते हैं.
सूरज जैसे रौशन बड़े सितारे के होने के बावजूद धरती के ज़्यादः हिस्से पर अँधेरा (अंधेर) का ही राज क़ायम है.
मख्लूक़ के लिए मख्लूक़ का ही डर नहीं बल्कि कुदरती आपदाओं का ख़तरा भी लाहक़ है. तूफ़ान, बाढ़, सूखा, ज़लज़ला और जंग ओ जदाल का ख़तरा उनके सर पर हर पल मड्लाया करते है.
सिर्फ इंसान ऐसी मख्लूक़ है कि जिसको क़ुदरत ने दिल के साथ साथ दिमाग भी दिया है और दोनों का तालमेल भी रखा है. शायद क़ुदरत ने इंसान को ही धरती का निज़ाम सौंपा है. अशरफुल मख्लूकात इसको उस सूरत में कहा जा सकता है जब यह समझदार होने के साथ साथ शरीफ़ भी हो जाए.
इंसान इंसान के साथ ही नहीं तमाम मख्लूक़ के साथ इन्साफ करने की सलाहियत रखता है बस कि उसकी शराफ़त और ज़हानत में ताल मेल बन जाए .
इंसान बनास्प्तियों और खनिजों का भी उद्धार कर सकता है,
कुदरत के क़हरों का भी मुकाबिला कर सकता है.
बस कि वह जब इस पर आमादा हो जाए.
इंसानियत से पुर इंसान ही एक दिन इस ज़मीन का खुदा होगा.
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