Friday 17 June 2016

बांग-ए-दरा -10


बांग-ए-दरा
मुहम्मदुर रसूलिल्लाह
(मुहम्मद ईश्वर के दूत हैं)

मुहम्मद की फितरत का अंदाज़ा क़ुरआनी आयतें निचोड़ कर निकाला जा सकता है कि वह किस कद्र ज़ालिम ही नहीं कितने मूज़ी तअबा शख्स थे। क़ुरआनी आयतें जो खुद मुहम्मद ने वास्ते तिलावत बिल ख़ुसूस महफूज़ कर दीं, इस एलान के साथ कि ये बरकत का सबब होंगी न कि इसे समझा समझा जाए. 
अगर कोई समझने की कोशिश भी करता है तो उनका अल्लाह उस पर एतराज़ करता है कि ऐसी आयतें मुशतबह मुराद (संदिग्ध) हैं जिनका सही मतलब अल्लाह ही जानता है. 
इसके बाद जो अदना (सरल) आयतें हैं और साफ़ साफ़ हैं वह अल्लाह के किरदार को बहुत ही ज़ालिम, जाबिर, बे रहम, मुन्तकिम और चालबाज़ साबित करती है बल्कि अल्लाह इन अलामतों का खुद एलान करता है कि 
अगर ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' (मुहम्मद ईश्वर के दूत हैं) को मानने वाले न हुए तो. अल्लाह इतना ज़ालिम और इतना क्रूर है कि इंसानी खालें जला जला कर उनको नई करता रहेगा, इंसान चीखता चिल्लाता रहेगा और तड़पता रहेगा मगर उसको मुआफ़ करने का उसके यहाँ कोई जवाज़ नहीं है, कोई कांसेप्ट नहीं है. 
मज़े की बात ये कि दोबारा उसे मौत भी नहीं है कि मरने के बाद नजात कि सूरत हो सके, 
उफ़! इतना ज़ालिम है मुहमदी अल्लाह? 
सिर्फ़ इस ज़रा सी बात पर कि उसने इस ज़िन्दगी में ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' क्यूं नहीं कहा. हज़ार नेकियाँ करे इन्सान, कुरआन गवाह है कि सब हवा में ख़ाक की तरह उड़ जाएँगी अगर ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' नहीं कहा क्यों कि हर अमल से पहले ईमान शर्त है और ईमान है ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' . 
इस कुरआन का खालिक़ कौन है जिसको मुसलमान सरों पर रखते हैं ? 
मुसलमान अपनी नादानी और नादारी में यकीन करता है कि उसका अल्लाह . 
वह जिस दिन बेदार होकर कुरआन को खुद पढ़ेगा तब समझेगा कि इसका खालिक तो दगाबाज़ खुद साख्ता अल्लाह का बना हुवा रसूल मुहम्मद है. 
उस वक़्त मुसलमानों की दुन्या रौशन हो जाएगी.
मुहम्मद कालीन मशहूर सूफ़ी ओवैस करनी जिसके तसव्वुफ़ के कद्रदान मुहम्मद भी थे, जिसको कि मुहम्मद ने बाद मौत के अपना पैराहन पहुँचाने की वसीअत की थी, मुहम्मद से दूर जंगलों में छिपता रहता कि इस ज़ालिम से मुलाक़ात होगी तो कुफ्र ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' मुँह पर लाना पड़ेगा. 
इस्लामी वक्तों के माइल स्टोन हसन बसरी और राबिया बसरी इस्लामी हाकिमों से छुपे छुपे फिरते थे कि यह ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' को कुफ्र मानते थे. 
मक्के के आस पास फ़तेह मक्का के बाद इस्लामी गुंडों का राज हो गया था. 
किसी कि मजाल नहीं थी कि मुहम्मद के खिलाफ मुँह खोल सके . 
मुहम्मद के मरने के बाद ही मक्का वालों ने हुकूमत को टेक्स देना बंद कर दिया कि ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' कहना हमें मंज़ूर नहीं 
'लाइलाहा इल्लिल्लाह' तक ही सही है. 
अबुबकर ख़लीफ़ा ने इसे मान लिया मगर उनके बाद ख़लीफ़ा उमर आए और उन्हों ने फिर बिल जब्र ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' पर अवाम को आमादः कर लिया . 
इसी तरह पुश्तें गुज़रती गईं, सदियाँ गुज़रती गईं, जब्र, ज़ुल्म, 
ज्यादती और बे ईमानी ईमान बन गया.
आज तक चौदह सौ साल होने को हैं सूफ़ी मसलक ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' को मज़ाक़ ही मानता है, वह अल्लाह को अपनी तौर पर तलाश करता है, 
पाता है और जानता है कि 
 किसी स्वयंभू भगवन के अवतार और उसके दलाल बने पैगम्बर के रूप में .
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