Sunday 5 June 2016

बांग-ए-दरा -1



बांग-ए-दरा
मेरा इख़्तिसार (संक्षिप्त) 
खुश हाल किसान का पोता और बदहाल मज़दूर का बेटा , मैं एक साधारण परिवार से हूँ ।  
दस साल की उम्र तक स्कूल का मुंह नहीं देखा था, मामा ने मोहल्ले में जूनियर हाई स्कूल खोला , पांचवीं पास बच्चे उन्हें कक्षा ६ के लिए मिल गए , बाहर  बरांडे में मोहल्ले के अनपढ़ और लाखैरे बच्चे बैठने लगे , उनमें से एक भी था। 
पढाई की ललक दिल में थी मामा ने मुझे समझा और कक्षा में मुझे बैठने की इजाज़त दे दी ।  
मुझे तालीम का सिरा मिल गया था , मैं दर्जा नौ में आते आते क्लास टॉप कर गया और पांच साल में ही हाई स्कूल कर लिया । 
बदहाली ने आगे पढ़ने न दिया, पांच साल ग़ुरबत से लड़ने की नाकाम कोशिश की , उसके बाद तरक़्क़ी का सिरा मेरे हाथ लगा , 
पुवर फंड लेकर पढने वाले तालिब इल्म ने लाखों रुपए इनकम टैक्स भरे ।  
बड़ी ईमानदारी की रोज़ी कमाई । 
साठ साल की उम्र आते आते अपनी माली तरक़्क़ी से भी मेरा मन भर गया । 
मैं सोलह साल की नाबालिग़ उम्र तक मज़हबी रहा उसके बाद मज़हब को मैंने  अपनी आँखों से देखना शुरू किया , मैं ने पाया कि धर्म व् मज़हब में जितना झूट और फरेब है , उतना और कहीं नहीं । 
कारोबार से फ़ारिग़ होने के बाद मैंने अपना समय सच्चाई के लिए वक़्फ़ कर दिया।  सालों साल से दिल में जमा उदगार फटने लगा । 
मैं दस साल से अपनी तहरीर से इंसानी ज़ेहन खोल रहा हूँ जिसमें शेर व् शायरी भी एक माध्यम है । शायरी मेरी तहरीक , मेरा अभियान , ज्यादा है शायरी कम . 

आज चार बच्चों का बाप हूँ बड़ी बेटी प्रोफ़ेसर है जो इल्म की रौशनी फैला रही है। 
 छोटी करनल को ब्याही है , 
बड़ा बेटा यू. के. लन्दन में बसा हुवा है, छोटा बेटा बेंगलुरु में एक अमरीकन कंपनी को अपनी खिदमात दे रहा है। 
मेरी शरीक ए हयात  निखत और मैं एक दूसरे को पाल पोस रहे है और जहाँ जिसके पास जी चाहता है चले जाते हैं.  

***

No comments:

Post a Comment