
बांग-ए-दरा
इंसान हो या हैवान?
मैं अपने नज़रयाती मुआमले में कुछ कठोर हूँ , इसके बावजूद मेरी आँखों में आँसू उस वक्त ज़रूर छलक जाते हैं जब मैं स्टेज पर इंसानियत को सुर्खुरू होते हुए देखता हूँ,
मसलन हिन्दू -मुस्लिम दोस्ती की नजीर हो,
या फिर फ़र्ज़ के सवाल पर इंसानियत के लिए मौत को मुँह जाना.
मेरे लम्हात में ऐसे पल भी आते हैं कि विदा होती हुई बेटी को जब माँ लिपटा कर रोती है तो मेरे आँसू नहीं रुकते, गोकि मैंने अपनी बेटियों को क़ह्क़हों के साथ रुखसत किया.
इंसान की मामूली भूल चूक को भी मैं नज़र अंदाज़ करदेता हूँ.
क्यूंकि उम्र के आगोश में बहुत सी लग्ज़िशें हो जाती हैं.
मैं कि एक अदना सा इंसान, समझ नहीं पाता कि लोग छोटी छोटी और बड़ी बड़ी मान्यताएँ क्यूँ गढ़े हुए हैं और इन साँचों में क्यूँ ढले हुए है ?
जब कि क़ुदरत उनका मार्ग दर्शन हर मोड़ पर कर रही है.
बड़ी मान्यताओं में अल्लाह, ईश्वर और गाड आदि की मान्यताएं हैं.
अगर वह इनमें से कोई होता तो यकीनी तौर पर इंसान साथ साथ हर जीव किसी न किसी तरह से उसकी उपासना करता.
हर जीव पेट भरने के बाद उमंग, तरंग और मिलन की राह पर चल पड़ता है,
न कि कुदरत की उपासना की तरफ.
कुदरत का ये इशारा भी इंसान को जीने की राह दिखलाता है
जिसे उल्टा ये अशरफुल मख्लूकात तआने के तौर पर उलटी बात ही करता है - - -
इंसान हो या हैवान?
छोटी मान्यताएं हैं यह ज़मीन के जिल्दी रोग स्वयंभू औतार, पयम्बर, गुरु, महात्मा और दीनी रहनुमाओं की रची हुई हैं.
अगर इन छोटी बड़ी मान्यताएं और कदरों से इंसान मुक्त हो जाय तो
वह मानव से महा मानव बन सकता है,
जिस दिन इंसान महा मानव बन जायगा ये धरती जन्नत नुमा बन जायगी.
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