Friday 10 June 2016

बांग-ए-दरा -5



बांग-ए-दरा
कालिमा

१- कोई भी आदमी (चोर, डाकू, ख़ूनी, दग़ाबाज़ मुहम्मद का साथी मुगीरा* से लेकर गाँधी कपूत हरी गाँधी उर्फ़ अब्दुल्लाह तक नहा धो कर कालिमा पढ़ के मुस्लिम हो सकता है.
२- कालिमा के बोल हैं ''लाइलाहा इललिल्लाह मुहम्मदुर रसूलिल्लाह'' 
जिसके मानी हैं अल्लाह के सिवा कोई अल्लाह नहीं है और मुहम्मद उसके दूत हैं.
सवाल उठता है हजारों सालों से इस सभ्य समाज में अल्लाह और ईशवरों की कल्पनाएँ उभरी हैं मगर आज तक कोई अल्लाह किसी के सामने आने की हिम्मत नहीं कर पा रहा. जब अल्लाह साबित नहीं हो पाया तो उसके दूत क्या हैसियत रखते हैं? सिवाय इसके कि सब के सब ढोंगी हैं.
३- कालिमा पढ़ लेने के बाद अपनी बुद्धि मुहम्मद के हवाले करो, 
जो कहते हैं कि मैं ने पल भर में सातों आसमानों की सैर की और अल्लाह से गुफतुगू करके ज़मीन पर वापस आया कि दरवाजे की कुण्डी तक हिल रही थी.
४- मुस्लिम का इस्लाम कहता है यह दुनिया कोई मानी नहीं रखती, 
असली लाफ़ानी ज़िन्दगी तो ऊपर है, यहाँ तो इन्सान ट्रायल पर 
इबादत करने के लिए आया है. मुसलमानों का यही अक़ीदा कौम के लिए पिछड़े पन का सबब है और हमेशा बना रहेगा.
५- मुसलमान कभी लेन देन में सच्चा और ईमान दार हो नहीं सकता,
 क्यूंकि उसका ईमान तो कुछ और ही है और वह है 
''लाइलाहा इललिल्लाह मुहम्मदुर रसूलिल्लाह'' 
इसी लिए वह हर वादे में हमेशा '' इंशाअल्लाह'' लगता है. 
मुआमला करते वक़्त उसके दिल में उसके ईमान की खोट होती है. 
बे ईमान कौमें दुन्या में कभी न तरक्क़ी कर सकती हैं और न सुर्ख रू हो सकती हैं।


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