
बांग-ए-दरा
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मुसलामानों की क़समें
मुसलामानों को क़समें खाने की कुछ ज़्यादः ही आदत है जो कि इसे विरासत में इस्लाम से मिली है. मुहम्मदी अल्लाह भी क़स्में खाने में पेश पेश है और इसकी क़समें अजीबो गरीब है.
उसके बन्दे उसकी क़सम खाते हैं, तो अल्लाह जवाब में अपनी मख्लूक़ की क़समें खाता है, मजबूर है अपनी हेकड़ी में कि उससे बड़ा कोई है नहीं कि जिसकी क़समें खा कर वह अपने बन्दों को यक़ीन दिला सके, उसके कोई माँ बाप नहीं कि जिनको क़ुरबान कर सके. इस लिए वह अपने मख्लूक़ और तख्लीक़ की क़समें खाता है.
क़समें झूट के तराज़ू में पासंग (पसंघा) का काम करती हैं वर्ना आवाज़ के
"ना का मतलब ना और हाँ का मतलब हाँ"
ही इंसान की क़समें होनी चाहिए. अल्लाह हर चीज़ का खालिक़ है, सब चीज़ें उसकी तख्लीक़ है, जैसे कुम्हार की तख्लीक़ माटी के बने हांड़ी, कूंडे वगैरा हैं, अब ऐसे में कोई कुम्हार अगर अपनी हांड़ी और कूंडे की क़समें खाए तो कैसा लगेगा? और वह टूट जाएँ तो कोई मुज़ायका नहीं, कौन इसकी सज़ा देने वाला है.
कुरआन माटी की हांड़ी से ज़्यादः है भी कुछ नहीं.
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हज
हज जैसे ज़ेह्नी तफ़रीह में कोई तखरीबी पहलू नज़र नहीं आता सिवाय इसके कि ये
मुहम्मद का अपनी क़ौम के लिए एक मुआशी ख़्वाब है.
आज समाज में हज हैसियत की नुमाइश एक फैशन भी बना हुवा है.
दरमियाना तबका अपनी बचत पूंजी इस पर बरबाद कर के अपने बुढापे को ठन ठन गोपाल कर लेता है, जो अफ़सोस का मुक़ाम है.
हज हर मुसलमान पर एक तरह का उस के मुसलमान होने का क़र्ज़ है
जो मुहम्मद ने अपनी क़ौम के लिए उस पर लादा है.
उम्मी की सियासत को दुन्या की हर पिछ्ड़ी हुई कौम ढो रही है.
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