Monday 6 June 2016

बांग-ए-दरा -2


बांग-ए-दरा
'मुंकिर'  
हर बात के दो पहलू होते हैं, पहला ये कि इसे मान लिया जाए, यानी इक़रार। 
दूसरा ये कि  उसको न माना जाए यानी इनकार . 
बातें चाहे मशविरा हों , हुक्म हो या फिर ईश वाणी जिसे कलाम इलाही का नाम दे दिया जाता है . 
इकरार करने की आदत या खसलत आम लोगों में होती है 
मगर इनकार की हिम्मत कम ही लोगों में होती है . 
इसी रिआयत से मैंने अपना तखल्लुस (उपनाम) मुंकिर रखा है .
सदियों से इंसान मज़हबी चक्की में पिसता चला आ रहा है . 
इसके गिर्द इनकार की कोई गुंजाईश नहीं है . 
घुट घुट कर फर्द मज़हबी झूटों का शिकार रहा है . 
मज़हब की ज्यादा तर बातें मा फौकुल फ़ितरत (अलौकिक) होती हैं 
जिनको डरा धमका कर या फुसला कर अय्यार धर्म गुरु आम इंसान से मनवा लेते हैं। 
झूट को तस्लीम करके झूटी ज़िन्दगी जीना इंसान की क़िस्मत बन जाती है .
हमारी मशरिकी दुन्या बनिस्बत मगरिब के कुछ ज्यादा ही झूट जीना पसंद करती है 
जिसके नतीजे में यह हमेशा कमज़ोर और झूट की  गुलाम रही है . 
वक़्त आ गया है कि हम इन झूठे मज़हबी पाखण्ड के मुंकिर हो जाएँ .
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