Thursday 1 December 2016

बांग-ए-दरा 162



बांग ए दरा 

''देखें जब यह फ़रिश्ते काफिरों की जान कब्ज़ करने जाते हैं और आग की सजा झेलना, ये इसकी वजेह से है कि तुम ने अपने हाथों समेटे हैं कि अल्लाह बन्दों पे ज़ुल्म नहीं करता.''
सूरह इंफाल - ८ नौवाँ परा आयत ( ५०-५१)

वाह ! कितने रहम दिल हैं अल्लाह मियाँ. 
खुद ज़ुल्म करते हैं और अपने फरिश्तों से कराते है 
कि इस्लाम कुबूल करने के बाद मुसलमान हर वक़्त डरा सहमा रहता है अपने अल्लाह से.
क्यूँ ? क्या उसका जुर्म यह है कि वह उसकी धरती पर पैदा हो गया? 
मगर वह अपनी मर्ज़ी से कहाँ इस दुन्या में आया? 
वह तो अपने माँ बाप के उमंग और आरज़ू का नतीजा है. 
उसके बाद भी मेहनत और मशक्कत से दो वक़्त की रोज़ी रोटी कमाता है, 
उसके लिए मुहम्मदी अल्लाह को टेक्स दे? 
उस से डरे उसके सामने मत्था टेके, 
गिड़गिडाए ? 
भला क्यूं? 
अपने वजूद को दोज़ख के न बुझने वाले अंगारों के हवाले करने का यकीन क्यूं करें?



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