Tuesday, 13 December 2011

Hadeesi Hadse 13

अल्लाह का फरमान और महम्मद जवाज़
एक हदीस अबू हरीरा से है कि मुहम्मद ने कहा - - -"अल्लाह कहता है जो शख्स सिर्फ़ मेरी रज़ा मंदी और मेरे ऊपर ईमान लाए और मेरे रसूल की तसदीक़ की वजह से मेरे रास्ते में, जिहाद की ग़रज़ से निकलता है, तो मेरे लिए मुक़र्रर है कि या तो मैं उसके लिए मॉल ए ग़नीमत अता कर बा नील ओ मराम वापस करदूं , या इसको जन्नत में दाखिल करदूं"
मुहम्मद कहते हैं कि
"अगर मुझको मेरी उम्मत का खौफ़ न होता तो मैं मुजाहिदीन के किसी लश्कर के पीछे न रहता और पसंद करता कि मैं अल्लाह के रास्ते में शरीक होकर ज़िदा हों, फिर शहीद हों, फिर जिंदा हों फिर शहीद हों, फिर जिंदा हों फिर शहीद हों, फिर जिंदा हों फिर शहीद हों"
(बुखारी 3४)
* मदरसों में दहशत गर्दी की बिस्मिल्लाह इस हदीस से होती है. अल्लाह की रज़ा और इसकी राह क्या है?
मुसलमान दुन्या को दो टूक जवाब दें.
मुसलामानों का अल्लाह अपने गैर मुस्लिम बन्दों के लिए जिहाद में शिकार होने की रज़ा क्यूं रखता है?
इसका माक़ूल जवाब न मिलने के बाद मुसलामानों की सारी दलीलें झूटी हैं जो इस्लाम को अम्न का पैगाम कहते हैं.
ऐसी ही रज़ा मंदी और राह दुन्या के सभी धर्मों के खुदा अगर दिया करें, तब तो इंसान का वजूद ही एक दिन ख़त्म हो जायगा. मज़ाहिब इंसानों के लिए होते हैं या इंसानी जान मज़हब के लिए होती है.
मुसलमानों ! सौ बार इस खतरनाक हदीस को पढो, अगर एक बार में तुम्हारे रहनुमा मुहम्मद तुम्हारे समझ में न आते हों,
कि यह किस मिटटी के बने हुए इंसान थे.
खुद को जंग से इस लिए बचा रहे हैं कि इनको अपनी उम्मत का ख्याल है?
मुहम्मद चन्द शुरूआती इस्लामी लूट मार के हमलों में, जिसे मुस्लमान गिज़वः कहते हैं, शरीक रहे जिसमें वह हमेशा लश्कर में सफ़ के पीछे रहते थे जिसके गवाह वह गिज़वः हैं.
वह तरकश से तीर निकाल निकाल कर जवानों को देते और कहते जाते

"मार, तुझ पर मेरे माँ बाप कुर्बान."जंगे-ओहद में शिकस्त खुर्दगी के बाद सफ़ के पीछे मुंह छिपाए खड़े रहे, जंगी उसूल के तहत अबू सुफ्यान ने तीन बार इनका नाम बा आवाज़ बुलंद पुकारा कि मुहम्मद अगर जिंदा हों तो खुद को हमारे सुपुर्द कर दें, उन्हों ने जंगी मुजरिम होना और बुज़दिली गवारा किया मगर सामने न आए. यह उनकी अय्यारी है कि उनको उम्मत का खौफ था कि वह शरीक जंग नहीं होते.
अपनी उम्मत को मैदान जंग में उतार दिया जोकि आज तक मार काट रही है और रुस्वाए ज़माना है.
मुहम्मद ने हुकूमत कुरैशियों के हवाले किया जो कि उनके मिशन का मकसद था. खुद अपनी पैगम्बरी को तराशने में लग गए.
वहदानियत का बुत खड़ा करके उसको ज़माने से पुजवाते रहे.
बुत परस्तों से जंग करते रहने का एलान "नुस्खा ए नजात दे दिया" दे कर खुद जंगों से अलग हो गए जिसे कौम ओढने बिछाने में लगी हुई है.
कुरानी आयतें गढ़ते और अवाम में जेहालत की बातें करते जो खुद बखुद हदीसें बनती चली जातीं.
 
चचा अबू तालिबकिताबुल ईमान
मुहम्मद के चचा अबू तालिब का अंतिम समय था, मुहम्मद उनके पास पहुंचे. पहले ही वहाँ पर उमरू बिन हुशशाम ( जिनका नाम मुहम्मद ने अबू जेहल रख कर बदनाम कर दिया था) अपने साथियों के साथ बैठे हुए थे. मुहम्मद ने चचा से कहा,"चचा कलमा ए हक पढ़ लीजिए, मैं कयामत के दिन आपका गवाह रहूँगा"
उमरू बिन हुशशाम ने कहा
" अबू तालिब क्या तुम मरते वक़्त अपने बाप अब्दुल मतलब का दीन छोड़ दोगे?"दोनों अपनी अपनी बात दोहराते रहे, बिल आखीर अबू तालिब ने इस्लाम को अपनाने से इंकार कर दिया.
मुहम्मद कहते रहे
"फिर भी मैं आपकी मग्फ़िरत की दुआ करूंगा."इस मौके पर मुहम्मद एक आयत गढ़ते हैं,"यूं राह पर नहीं ला सकते जिसको चाहो लेकिन अल्लाह ला सकता है जिसको चाहे और वह जानता है उन लोगों को जिनके क़िस्मत में हिदायत है"अबू तालिब जिसने यतीम मुहम्मद की परवरिश अपने बच्चों से बढ़ कर की थी. जवानी में इनकी जात का असर ही था कि मुहम्मद मक्का में अपने आबाई मज़हब के ख़िलाफ़ आएँ बाएँ शाएँ बकते रहे, उनको आकबत की पुडिया बेच रहे हैं.
 

Tuesday, 15 November 2011

Hadeesi Hadse (12)

(बुख़ारी २८)
सहाबा ए किराम
सहाबा ए किराम में ख़ासम ख़ास सहाबी अबू ज़र किसी के साथ ग़ाली गलौज कर रहे थे की मुहम्मद आ गए और कहा,
"अबू ज़र ! क्या तुमने माँ की ग़ाली दी? अल्लाह की क़सम तुम अभी तक जाहिल हो.''

मुहम्मद ने बज़ात खुद लोगों पर अमली ज़िन्दगी का कोई अखलाक़ी नमूना तो पेश नहीं किया था कि लोगों में इसका अखलाक़ी असर आ सके. इनके हर फेल में दिखावा था, बनावट थी और जोर ओ जबर का मुज़ाहिरा था. सिर्फ़ ग़ाली बकना जिहालत की निशानी नहीं है, बहुत से अमल और बातें ग़ाली से ज़्यादः चुभती हैं. वह भी हमारे समाज के लोगों की तरह ही आम लोग थे जिनको हम सहाबी ए किराम कहते हुए बेजा एहतराम करते हैं. हम ग़लत समझते हैं कि वह फ़रिश्ते सिफ़त रहे होंगे. उम्मी ने लोगों को उम्मियत ही सिखलाई है और हराम खिलाया है,कहाँ से कोई मुस्लमान सालेह बन सकता है और ईमान दार हो सकता है.


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(बुखारी २९)

दोनों दोज़खी

मुहम्मद ने कहा

"जब मुसलमान आपस में हथियार के साथ मद्दे-मुकाबिल हों तो समझ लो दोनों दोज़खी हैं किसी ने सवाल किया कि मकतूल कैसे ? बोले क़त्ल का इरादा तो किया था."

सच ही कहा मुहम्मद ने गुज़िश्तः चौदह सौ सालों में मुसलमान जितना आपस में, हुक्मरानी के लिए लड़े मरे वह सब दोज़खी ही तो हुए. मुहम्मद के मौत के फ़ौरन बाद उनकी बीवी आयशा और उनके दामाद अली में जो जंगे-जमल हुई उसमें एक लाख मुस्लमान, वह भी ताज़े ताज़े, जो मारे गए सब दोज़खी हुए. उसके बाद यह सिसिला चल निकला. हिसाब लगाया जय तो अब तक मुसलमानों कि अरबों की आबादी जो फौजी थे, दोज़ख के नावाला हुए. आज लगभग एक अरब चालीस करोड़ मुसलमानों कि आबादी जीते जी दोज़ख में ज़िन्दगी को जी रही है, सारे ज़माने की लानत अपने सर पर ढो रही है. मुहम्मद की तहरीक इन्तेहाई नाकबत अंदेश और घटिया थी जिसने घटिया जेहन के पिछ लग्गू उम्मी पैदा किया. जो मुहम्मदी जाल से बहार निकलने के लिए आज़ाद ख्याली को पसंद ही नहीं करते. रोज़ इनका जत्था मारा जाता है फिर भी इनकी आँखें नहीं खुलती. इनके रहनुमा सभी इन्तेहाई ज़लील हैं.


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(बुखारी ३०)

ज़ुल्म अज़ीममुशशान

मुहम्मद अपने अल्लाह से यह आयत उतरवाते हैं

"इन्नशशिर्कुल ज़ुल्म ए अज़ीम" यानि "वह ज़ुल्म शिर्क है, जो अज़ीममुशशान है."

शिर्क, जैसे कि मूर्ति पूजा वह गुनाह है जो अजीमुश्शान है अर्थात महान है. किया पाप भी महान हो सकता है? गुनाहे-कबीरा या गुनाहे-सगीरा, ये बदतरीन गुनाह तो हो सकते हैं जिस पर सज़ाए-मौत भी हो सकती है, मगर गुनाह अज़ीममुशशान कैसे हो सकता है. यह जाहिल मुहम्मद की जेहनी पस्ती है कि हदीस और क़ुरान ऐसी ऐसी खामियों से भरा हुवा है.


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(बुखारी ३३+३५)

शबे-क़द्र

मुहम्मद ने कहा,

"जो शख्स शबे-क़द्र और माहे-रमज़ान में ईमान और हुसूले-सवाब की ग़रज़ से इबादत करेगा इसके पिछले सभी गुनाह मुआफ कर दिए जाएँगे "

इस हदीस को पढ़ कर कोई साहिबे-ईमान-इस्लामी मुस्लमान इरतेकाब गुनाह से बचता हो, नामुमकिन. इस्लाम की ये नाक़िस दर्स गाहें बचपन से ही बच्चों के दिमागों को गुनाह के लिए इबादत और तौबा के रस्ते हमवार कर देते है कि वह बड़े होकर गुनाह गारी के आदी हो जाते हैं. जितने यह मदरसे के फ़ारिग मौलाना कल्बे-सियाह और ईमने-हकीकी के कमज़ोर होते हैं, उतना अंग्रेजी मीडियम से पढ़ ने वाले बच्चे मासूम और आला मेयर के होते हैं.
ये हैं शब कद्र रातों की बरकते. इस रात की इबादत से मुसलमान ३६५ दिनों के गुनाह से सुबुक दोश हो जाते हैं. अली का समधियाना और हुसैन की ससुराल और हारुन रशीद का ईरान एक बार फिर ज़िक्र में आ गया है जिसकी ज़र खेज़ी दुन्या को मरकज़ीयत बख्शने वाली थी कि इस्लाम के नरगे में आकर पामाल हो गया. वहां का इरतेकाई पैगम्बर ज़र्थुस्र्ट था, जिसने कहा था - - -

"ऐ खुदा !मेरी जिंदगी को तलिमे-बद देने वाले आलिम हमें बिगाड़ते हैं, जो बद ज़ातों को अज़ीम समझते हैं, जो मरदो-ज़न के असासे को लूटते हैं, और तेरे नेक बन्दों को राहे-रास्त से भटकाते हैं."

आज भी माजी का हीरो ईरान अपने ज़र्थुस्र्ट की राय को मान कर अगर तरके-इस्लाम करने की जिसारत करे तो तबाही से बच सकता है. इस्लाम ने इसका बेडा ग़र्क़ कर रक्खा है.








Thursday, 27 October 2011

Hadeesi hadse (11)

औरतें दोजखी और एहसान फरामोश हैं (बुखारी२७)
(मुस्लिम - - किताबुल ईमान)


औरतों की ज़िल्लत


"मुहम्मद कहते हैं एक बार मेरे सामने दोज़ख पेश की गई, मैं ने अहले दोज़ख में ज़्यादः हिस्सा औरतों को देखा, क्यूंकि यह नाशुक्री बहुत करती हैं, शौहर की नाशुक्री करती हैं और एहसान फ़रामोश होती हैं."
माबदौलत के सामने अल्लाह हमेशा हाथ जोड़े, सर झुकाए खड़ा रहता है और उसके हुक्म पर जन्नत और दोज़ख पेश किया करता है. मुहम्मद ने अल्लाह को भी अपना गुलाम बना रक्खा है.
मुहम्मद, कुरआन और हदीस में औरतों को हमेशा ज़लील करते हैं.
आज जब अख़बारों में मुस्लिम औरतों की पस्मान्दगी पर, मुस्लिम समाज पर सवाल उठता है तो ओलिमा नबी करीम की झूटी हदीसें गढ़ते हैं कि गलती इस्लाम की नहीं बल्कि मुसलमानों की गुमराही का है कि वह इस्लाम से बहुत दूर निकल गए हैं. लोग गुमराह हो गए हैं. वह जवाब में गैर मुस्लिमों को ज़ेर करते हैं. जब कभी भी मुस्लिम कांफ्रेंस होती है तो अव्वल तो उसमे औरतें होती ही नहीं, औरतों पर और भी पाबंदियां आयद हो जाती हैं.

खुद औरतों की तंज़ीमें जहाँ तहाँ हैं जो ओलिमा पर नाक भौं सिकोड़ती हैं, मगर अपने रसूल के खिलाफ ज़बान नहीं खोल पातीं जो इनको ज़लील करते हैं. मुस्लिम औरतों में ज़्यादः ही सुन्नत की पाबंदियां हैं, जब कि इनको बेदार होने की ज़रुरत है.

 
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(मुस्लिम - - - किताबुल इमारत)


मुहम्मद कहते हैं मन्दर्जा ज़ेल लोग मरने के बाद शहीद होते हैं - - -
१- जो अल्लाह के नाम पर शहीद हो जाए, मसलन हज के सफ़र में या जंग के सफ़र में या मैदाने-जंग में मरें.
२- ताऊन की बीमारी में मरने वाले .
३- जो लोग पानी में डूब कर मरते हैं.
जो दीवाने के मुंह से निकल जाए, वह अल्फज़े-अक्दास हुए, वह हदीस शरीफ़ और वह कुरआन शरीफ़ बन जाते हैं.
मैदाने-जंग में मरना =शहीद होना होता है, हुकूमतों का बनाया हुवा सरकारी नारा है, जो बिल आख़िर उनके काम ही आता है. ताजः मिसाल लीबिया की लेली जाय तो कर्नल गद्दाफ़ी के लिए मरने वाले जवान और उसके खिलाफ लड़ने वाले जवानों में दोनों ही शहीद कहे जाते हैं और दोनों ही ग़द्दार भी.
हज का सफ़र रूहानी अय्याशी के सिवा और क्या है?
दूसरी असल सूरत अरबियों की माली इमदाद करना है जो की मुहम्मद की नियत थी हज को कामयाब करने की .
ताऊन और पानी में डूब कर मने वाली मौत किस तरह शहादत हुई?
ऐसी ऐसी बीमारियाँ हैं कि जिसमे मुब्तिला होकर इंसान पल पल कर के बरसों मरता है. जब कि ताऊन में पडोसी को दफ़ना कर आए और खुद दफ़्न होने को तैयार पड़े हैं.
पानी में डूबना सिर्फ पाँच मिनट की अज़ीयत है.
ऐसी बेबुन्यद बातें मुस्लिम समाज की तकदीर बनी हुई हैं.


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Wednesday, 19 October 2011

Hadeesi Hadse (10)

(मुस्लिम - - - किताबुल फितन व् अशरातुल साइतः)


काबे का हश्र


अबू हरीरा से हदीस है कि मुहम्मद ने कहा,
"काबा को ख़राब करेगा छोटी छोटी पिंडलियों वाला एक हब्शी और मुस्लमान दुन्या से उठ जाएँगे, जब वह मरदूद हब्शी यह कम करेगा."
दर असल मुहम्मद जिस जोर ओ जब्र से काबे पर फतह पाई थी, वह उनकी हिकमत ए अमली का जाहिराना तरीक़ा था. उनको अहसास था कि इसका अंजाम मुस्तकबिल में बुरा होगा. इस हदीस में उन्हों ने अपना अंदेशा ज़ाहिर किया है.
फतह मक्का में इस ज़ोर का यलग़ार था कि अहले मक्का ख़मोश बुत बन गए थे. इस्लामी ओलिमा इस वाकिए का ज़िक्र इस तरह करते हैं कि बगैर खून ओ क़त्ल के मक्का की फतह हुई थी जब कि असलियत यह है कि जुबान खोलने की सज़ा पल भर में क़त्ल का हुक्म हो गया था.
इब्न ए खतल काबे के गिलाफ को पकड़ कर ज़ार ओ क़तार रो रहा थ, यह बात मुहम्मद तक पहुँची कि इब्न ए खतल गिलाफ़ को छोड़ नहीं रहा, हुक्म मुहमदी हुवा कि उसको क़त्ल करदो. और इस मामूली सी जज़्बाती अम्र पर गरीब की जान चली गई.
काबे का हश्र कोई हब्शी क्या करेगा, वह तो ज़्यादः हिस्सा इस्लाम के शिकार हैं, मगर हाँ यहूदियों ने काबा ए अव्वल पर क़ब्ज़ा कर लिया है और उनका मिशन है कि वह अपने आबाई मरकज़ काबे पर एक रोज़ ज़रूर ग़ालिब हो जाएँगे. मुसलमान इसके लिए तैयार रहें. हर ज़ुल्म का अंजाम शर्मिंदगी होती है. 
(बुखारी २५)


बे सूद अमल


अमल-ए-अफ़ज़ल के लिए मुहम्मद कहते हैं कि
"पहला अमल है कि अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान रखना.
दूसरा अमल है अल्लाह की रह में जिहाद करना.
और तीसरा अमल है हज.
*पहला अमल तो कोई अमल ही नहीं है.
ऐ उम्मी मुहम्मद! अमल होता है हाथों और पैरों से कुछ करना जो ज्यादः तर पेट के लिए होते हैं.
अक़ीदा को अमल बतलाने वाले अल्लाह के झूठे रसूल को मानने वाले
ए बेवकूफों! कुछ शर्म करो कि इक्कीसवीं सदी में साँस ले रहे हो.
*दूसरा अम्ल जिहाद ? दर असल जो बद अमली है
अमन लोगों को बद अमन करना, उन्हें क़त्ल करना
फूँकना और उनको जज्या जज़या देने पर मजबूर करना.
यह बद आमालियाँ भी मुहम्मद के हिसाब से दूसरा अमले-मुक़द्दस है.
*हज एक का सफ़र का नाम है जिसमें रूहानी अय्याशी छिपी हुई है.
जब हम इस्लामी रूह से आज़ाद हो जाएँगे तो सफ़र-हकीकी शुरू होगा, दुन्या को देखने कि हसरत पूरी होगी अरब के रेगिस्तान से हट कार.
सफ़र हज सफ़रे-नाक़िस है.
कुरान में आए बार बार नेक अमलों को समझने के लिए यह हदीस खास है.
इन्सान और इंसानियत के हक में आने वाले भले काम, जैसे सच बोलना, हक़ हलाल की रोज़ी अपनाना, रोज़गार फ़राहम करना,
खिदमते ख़ल्क़ के काम, जैसे किसी काम की तलकीन कुरआन और हदीस में नहीं है.
बहाउल्लाह कहता है ---
" ए वजूद की औलादो ! आखिरी हिसाब होने से पहले, हर रोज़ तुम अपने आमाल की जाँच कार लिया करो क्यूँकि मौत की आमद अचानक होगी और तुम को अपने आमाल की तफ़सील पेश करने को कहा जाएगा."
बहा उल्लाह के आमाल वही हैं जो मैंने ऊपर दर्ज किए हैं. इन्ही आमल से हमारी दुन्या आज भरपूर ईजादों का समर पा रही है.
 
(मुस्लिम - - - किताबुल ईमान)


अल्लाह निपटेगा

अबू हरीरा कहते हैं कि
"मुहम्मद के मौत के बाद मक्का में लोग इस्लाम से मुँह मोड़ कर फिर अपने पुराने मअबूदो की इबादत करने लगे. ख़लीफ़ा अबू बकर ने इनके खिलाफ जंग का एलान इस पाबंदी के साथ किया कि वह
"लाइलाहा इल्लिलाह" पर क़ायम रहें और सदक़ा दें. बाक़ी अरकान (मुहम्मदुर रसूल लिल्लाह ) न माने तो इनसे अल्लाह निपटेगा. "
*मुहम्मद के तरीक़ा ए कार से लोग काँपने लगे थे क्यूँकि उनकी सज़ा इबरत नाक हुवा करती थी. उनकी मौत के बाद मक्का के लोगों ने चैन की साँस ली और उनके मुसल्लत किए हुए जब्र

"मुहम्मदुर रसूल लिल्लाह"

से आज़ाद हो गए.
अबू बकर ने सियासत से काम लिया कि उनको

"मुहम्मदुर रसूल लिल्लाह"

से आजाद कर दिया. लोग मान गए कि उनको राह-रास्त पर आमे कि छूट मिल गई , क्यूंकि "लाइलाहा इल्लिलाह"

से कोई पहले भी मुनकिर न था. साथ में उनको एक मज़बूत दिफाई सहारा भी मिला. अबू बकर के बाद शिद्दत पसंद हुक्मरानों ने फिर "मुहम्मदुर रसूल लिल्लाह " की शिद्दत को लागू कर दिया और इस्लामी निज़ामे-नामाकूल दुन्या पर लाद दिया. इस्लाम तलवार से ज्यादह अपने ओलिमा कि कज अदाइयों से मुक़द्दस बन गया है. आज भी यह लोग इस्लामी चरागाह में अच्छी खुराक पाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते.


Sunday, 16 October 2011

Hdeesi Hadse (9)

(बुखारी - - - २१)


कैसे हुई दुन्या की बीस फी सद आबादी


इब्न उमर से हदीस है कि मुहम्मद ने कहा - - -
"हमें लोगों से उस वक़्त तक जिहाद करना चाहिए, जब तक कि वह 'ला इलाहा इल्लिल्लाह, मुहम्मदुर रसूल अल्लाह' न कह दें और नमाज़ ओ ज़कात अदा न करें, लेकिन जब वह इस उमूर को अदा कर लें तो, उन्होंने अपने जान और माल को मेरी जानिब से महफूज़ कर लिया."
*यह हदीस गवाह है कि मुहम्मद का मिशन क्या था? दीन या दौलत ? उस वक़्त 'ला इलाहा इल्लिल्लाह मुहम्मदुर रसूल अल्लाह' पर कायम हो जाना ही इंसानी बका की मजबूरी बन गई थी.
मुसलमानों!
यह तो ईमान की बात न हुई,
हाँ! इस्लाम की बात ज़रूर है जिसे तुम तस्लीम किए हुए हो.
अपने अजदाद तक जाओ जिन्हों ने इस्लाम को कुबूल किया होगा कि उनके आँखों के सामने मौत खड़ी रही होगी, जब वह मुसलमान हुए होंगे.


अपनी माओं के खसम; आलिमान दीन इन मज़्मूम हदीसों को तुम्हें पढ़ाते है कि उनकी हराम खोरी कायम रहे. हर ओलिमा में छोटे मुहम्मद बैठे हैं जो दर अस्ल क़ुरैश्यों के लिए इस्लाम की दूकान खोली थी. 'ला इलाहा इल्लिल्लाह मुहम्मदुर रसूल अल्लाह' कलमा ए तय्यबह नहीं बल्कि कालिमा ए कुफ्र है.
सूफी हसन बसरी और राबिया बसरी तबेईन में आला मुकाम हस्तियाँ हुई हैं इनकी मकबूलियत का यह आलम था कि इनके सामने इस्लाम को पसीने आ गए थे.


हसन बसरी को एक दिन लोगों ने देखा गया कि वह एक हाथ में पानी का लोटा लिए और दूसरे हाथ में जलती मशाल लिए भागे चले जा रहे थे.
लोगों ने उन्हें रोका और पूछा कहाँ?
हसन बोले जा रहा हूँ उस जन्नत को आग के हवाले करने जिसकी लालच से लोग नमाज़ें पढ़ते हैं और जा रहा हूँ उस दोज़ख में पानी डालने कि जिसके डर से लोग नमाज़ पढ़ते हैं .
अगर उस वक़्त सूफी को लोग समझ जाते तो इन गधो के सर पे इस्लामी सींगें न उगतीं, बल्कि इनके सर में भेजा होता.
ज़ालिम ओ जाबिर और माल ए गनीमत के आदी बन चुके हुक्मरानों ने बे बुन्याद इस्लाम की जड़ों की आब पाशी कर रहे थे. हसन उस वक़्त के हाकिम हज्जाज़ बिन यूसुफ़ के डर से अबू खलीफा के घर में छिपे हुए थे. देखिए कि उस वक़्त का बेदार हदीस मज्कूरह में क्या इजाफा करता है, जो सिर्फ 'ला इलाहा इल्लिल्लाह को मानता था और मुहम्मदुर रसूल अल्लाह को नहीं.


(मुस्लिम - - - किताक्बुल फितन ओ शरातु-स्साइता)


मअबद बिन हिलाल अज़ली से रिवायत है कि अनस बिन मालिक काफ़ी ज़ईफ़ हो चुके थे हम सकीब की सिफ़ारिश के साथ इन से मिलने पहुंचे कि कोई हदीस सुनाएँ. उन्हों ने सुनाया कि मुहम्मद ने कहा
"क़यामत का दिन होगा तो लोग घबरा कर एक दूसरे के पास भागेंगे.
पहले आदम के पास जाएँगे, लेकिन वह कहेंगे, मैं इस लायक नहीं, तुम लोग इब्राहीम के पास जाओ, वह अल्लाह के दोस्त हैं.
लोग इब्राहीम के पास जाएँगे, वह कहेंगे कि मैं इस काबिल नहीं तुम लोग मूसा के पास जाओ वह कलीमुल्लाह हैं,
वह कहेंगे मैं इस लायक नहीं, तुम लोग ईसा के पास जाओ वह रूहुल्लाह हैं,
ग़रज़ वह भी टाल देंगे और मुहम्मद के पास भेज देंगे.
लोग मेरे पास आएँगे और मैं कहूँगा, और उस के सामने खड़े होकर दुआ माँगूंगा. उसकी ऐसी तारीफ़ बयान करूंगा कि वह जवाब में इंकार नहीं कर सकता. मैं अपना सर सजदे में डाल दूँगा, अल्लाह कहेगा मुहम्मद उठ तेरी दुआ कुबूल हुई. माँग, क्या चाहता है?
मैं कहूँगा, मेरी उम्मत! मेरी उम्मत!!
हुक्म होगा जिसके दिल में गेहूं के या जौ के बराबर भी ईमान है, निकाल ले दोज़ख से,
मैं अपने तमाम लोगों को निकाल लूँगा दोज़ख से
फिर आ कर मालिक की वैसी ही तारीफें करुँगा और गिर पडूंगा सजदे में,
हुक्म होगा ऐ मुहम्मद! अपना सर उठा, कह जो कहना है, तेरी बात सुनी जाएगी, मांग जो मांगना है, सिफारिश कर तेरी सुनी जायगी.
मैं अर्ज़ करुँगा, मालिक! मेरी उम्मत! मेरी उम्मत !!
हुक्म होगा निकाल ले जिसके दिल में राइ बराबर भी ईमान हो,जहन्नम से. मैं ऐसा ही करूँगा
और फिर लौट कर आऊँगा और मेरी उम्मत! मेरी उम्मत!! का गुहार लगा दूँगा और
अल्लाह हस्ब ए आदत कहेगा जा निकल ले अपनी उम्मत को जिसके दिल में राइ के दाने से भी कम, बहुत कम, बहुत कम ईमान हो.


इसके बाद मअबद बिन हिलाल हसन बसरी के पास पहुँचे और बातों बातों में हदीस मज़्कूरह उन्हें सुनाया. हसन ने कहा ये हदीस बीस साल पहले उन्हों ने मुझे सुनाई थी, जब वह जवान थे, तुमको अधूरी सुनाई है, मुमकिन है भूल रहे हों. काफ़ी बूढ़े हो चुके हैं या को मसलेहत हो, मगर तुमको बाक़ी मैं सुनाता हूँ कि मुहम्मद चौथी बार अल्लाह के पास जाएँगे और
वह कहेगा ए मुहम्मद सर उठा मैं सुनूंगा, मांग मैं दूंगा, सिफारिश कर मैं कुबूल करूंगा.
उस वक़्त मैं कहूँगा ए मालिक मुझे इजाज़त दे उस शख्स को भी जहन्नम से निकलने की, कि जिसने ला इलाहा इल्लिलाह कहा हो.
अल्लाह तआला फरमेगा,
नहीं! मगर क़सम है मेरे इज्ज़त और बुज़ुर्गी की और जाह ओ जलाल की कि मैं निकालूँगा उस शख्स को जिसने ला इलाहा इल्लिलाह कहा हो.


इस लामतनाही कायनात का निज़ाम मुद्दत-गैर मुअय्यना से कोई ताक़त है जो चला रही है. इसी को लोग कहते हैं
"ला इलाहा इल्लिलाह"
न यह मुहम्मद का नअरा है न इस्लाम का बल्कि कबले-इस्लाम बहुत क़दीमी है. यह नअरा है, जो उस ताक़त को मुख़ातिब करता है. यह नअरा यहूदियों, ईसाइयों, काफिरों, मुल्हिदों बुत परस्तों और संत सूफियों सभी का रहा है. अनल हक़ के नअरे में भी इसकी गहरई छिपी है. जिनको इस्लाम सूली पर चढ़ाता रहा है. बुद्ध की शांति, कबीर की उलटवासी, नानक का तेरह तेरह, ग़ालिब का "डुबोया मुझको होने ने, न मैं होता तो क्या होता" में इसी "ला इलाहा इल्लिलाह" की आवाज़ छिपी हुई है, इस राज़ को लिए हुए कि कोई ताक़त है
"मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह " इस मुक़द्दस नअरे के साथ जोड़ कर मुहम्मद वह मुजरिम है जिन्हों ने कुफ्र की ईजाद की है.
*मज़्कूरह हदीस से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि मुहम्मद क्या थे. इनकी पैगम्बरी क्या बला थी, इनके अगराज़ओ मक़ासिद क्या थे,
इस्लाम की कौन सी खूबियाँ हैं जो इंसानी ज़िन्दगी के लिए सूद मंद हैं?
 

Saturday, 8 October 2011

HADEESI HADSE (8)



मुस्लिम . . . किताबुल ईमान

अंसार और अली मौला


"अंसार और अली से मुहब्बत रखना ईमान में दाखिल है और इनसे बुग्ज़ रखना निफ़ाक़"
इस्लाम जेहनी गुलामी का इक़रार नामा है जिसको तस्लीम करके आप अपनी सोच ओ समझ का इस्तेमाल नहीं कर सकते. अली मौला मुहम्मद के दामाद थे इस लिए तमाम मुसलामानों के दामाद हुए. इनके अमले-बेजा को नज़र अंदाज़ करना चाहिए, चाहे वह पहाड़ जैसी गलती हो. कमज़ोर तबा अंसारी मुहम्मद को झेलते रहे. अली और अंसार को न खातिर में लाने से आप खरिजे-ईमान हो जाएँगे. और फिर ख़ारिज-इस्लाम.
अगर सच्चे ईमान दारी पर इन्सान आ जाए तो इस्लाम दारी की हकीकत वह खुद ही समझ जाएगा.


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(बुखारी 17)


अन्सरियों का एहसान

अनस कहते हैं मुहम्मद ने फ़रमाया
"अनसारियों से मुहब्बत ईमान है और उनसे बुग्ज़ निफ़ाक़ है."
मैं एक बार फिर दोहरा दूं कि इस्लाम में ईमान का मतलब ईमान दारी नहीं बल्कि मुहम्मद के फ़रमूदात पर यक़ीन और अक़ीदा है. चूँकि अनसारियों ने मुहम्मद पर, मदीने में पनाह देकर एहसान किया है, बदले में तमाम मुसलमानों का ईमान उनको हासिल हो गया.

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(मुस्लिम . . . किताबुल ईमान)


पहले मा बदौलत


 अनस से रवायत है कि मुहम्मद का फ़रमान है कि

''कोई शख्स मोमिन नहीं होता, जब तक कि इसको मेरी मुहब्बत माँ बाप औलाद और सब से ज्यादा न हो."

यह हदीसें उस ज़माने की हैं जब मुहम्मद को मुकम्मल तौर पर इक्तेदार मिल चुका था. गलिबयत का उनको गररा था कि इनकी बात न मानना अपनी मौत को दावत देना था. आगे हदीसों में देखेंगे कि अपनी बातों को न मानने वालों को वह क्या क्या सज़ा दिया करते थे.

हर मखलूक का मकसदे हयात होता है कि वह अपनी ज़ात को अपनी नस्ल (औलाद) कि शक्ल में इस ज़मीन को आबाद रहने दे. मुहम्मद का फ़रमान मान कर शायद मुसलमान इससे मुंह मोड़ सकते है.


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(मुस्लिम . . .किताबुल फितन व् अश्रात उल साएता)


क़सरा का खज़ाना
अबू हरीरा कहते हैं क़सरा (ईरान का बादशाह) मर गया, अब इसके बाद कोई कसरा न होगा. जब कैसर (रोम का बादशाह) को फतह कर लेंगे तो कोई कैसर न होगा. क़सम है उसकी जिसके हाथ में मेरी जान है, तुम इन दोनों खज़ानों को खुदा की राह में खर्च करोगे.
* ईरान पर बिल आखीर इस्लाम ने फ़तह पाई और वह हुसैन की ससुराल बना. शिअय्यत इस पर ग़ालिब हुई. जब से इस्लामी परचम के ज़ेर असर ईरान आया, बरसों पुरानी तहजीब व् तमद्दुन उससे रुखसत हुए. इस्लामी खून कुश्त के आगे ईरान दोबारा सुर्ख रू न हुवा. ज़र्थुर्थ जैसे हक़ीक़ी पैग़म्बर ईरान के माज़ी बन गए, जिसने कहा था कि उसके खुदा का फ़रमान है कि
"तू मेरी मखलूक पर वैसे ही मेहरबान हो जा, जैसे मैं तुझ पर हूँ."
ज़र्थुर्थ की आवाज़ ए खुदावन्दी की जगह पर ईरान में मौजूदा क़ुरआनी आयतें चौदह सौ सालों से ग़ालिब है.
क़ुरआनी आयतें जो रुस्वाए ज़माना हैं.
दुन्या कहाँ से कहाँ पहुँच गई है, ईरान में क़ुरआनी निजाम उसको भेदे जा रहा है. देखिए कि कितने आयत उल्लाह खुमैनी और पैदा हों, उसके बाद कब कोई कमाल पाशा पैदा होता है. या इससे पहले ही इस्लाम इसे दूसरे की खुराक बना दे.
इसलाम के सताए ईरानी पारसी कौम का वाहिद फ़र्द , टाटा ईरान की पूरी मुआशियत को तनहा टक्कर दे सकता है.
रोम का कैसर तो दो चार बरसों के लिए ईरानी चंगुल में आया और निकल गया और आज भी दुन्या में सुर्खरू है.  

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(बुखारी २२)


कुरता ज़मीन पर लुथ्ड़े मगर तहबन्द नहीं

मुहम्मद कहते हैं कि "एक रोज़ मैं सो रहा था कि मेरे सामने कुछ लोग पेश किए गए जिनमें से कुछ लोग तो सीने तक कुरता पहने हुए थे और बअज़े इससे भी कम. इन्हीं लोगों में मैंने उमर इब्न अल्खिताब को भी देखा जो अपना कुरता ज़मीन पर घसीटते हुए चल रहे थे. लोगों ने इसकी ताबीर मुहम्मद से पूछिए तो बतलाया यह कुरता ए दीन है "
यह है मुहम्मद की मजहबी बिदअत जो लोगों को पैरवी करने पर पाबंद किए हुए है, जिसकी कोई बुन्याद नहीं है. पैरवी में अलबत्ता लोग मज़हक़ा खेज़ लंबे लंबे कुरते पहेनना सुन्नत समझते है जिस पर घुटने तक उटंग पैजामा और भी नाज़ेबा लगता है.
कहते हैं कुछ कुरते सीने तक कुछ इससे भी कम ? क्या कुरते का कालर भर उनका लिबास था? या चोली भर? या बिकनी जैसा कुरता?
मुहम्मद की किसी बात की कोई माकूल दलील नहीं. आगे एक हदीस इसके ब़र अक्स आएगी कि तहबन्द लूथड़ी तो गए जहन्नुम में.

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Sunday, 2 October 2011

हदीसी हादसे (७)

मुस्लिम . . .किताबुल ईमान


अली मौला की तक़रीर


अली मौला फरमाते हैं

"क़सम उसकी जिसने दाना चीरा और जान बनाई, रसूल अल्लाह ने मुझ से अहद किया था, नहीं रखते जो मुहब्बत मुझ से वह मोमिन नहीं. नहीं रक्खेगा जो दुश्मनी मुझ से वह मुनाफ़िक़ नहीं"
अली को मुसलमान बेहद ज़हीन और क़ाबिल मानते हैं, शियाओं ने तो उनके ज़र्रीन कोल गढ़ रक्खे हैं. अली के जुमले पर गौर हो कि उनके ससुर ने उनसे अहद कर रखा था, उन बातों की जो कि उनके बस में थी ही नहीं, मगर मुहम्मद और अली अपने ज़ेहनी मेयार के मुताबिक कुछ भी कह सकते हैं.
हदीस में अली की टुच्ची नियत अपने हैसियत की आइना दार है. खुद को मनवाने और पुजवाने के लिए ऐसे घटिया हरबे इस्तेमाल का रहे हैं.


एक और हदीस का टुकड़ा है कि अली बहुत खुश थे कि उनको दो ऊँट माले-गनीमत में मिले थे, सोचा था की इन ऊंटों पर घास खोद कर लाऊंगा और बाज़ार में फरोख्त करूंगा तो कुछ पैसे जुटेंगे फिर फातिमा का वलीमा करेगे मगर शराबी हम्जः ने उनके अरमानों का खून कर दिया, एक तवायफ के कहने पर कि वह चाहती थी कि अली को मिले दोनों ऊंटों के गोश्त का कबाब खाऊँ.
ऐसी ही अली मौला की हरकतें हदीसों और तारीखी सफ़हात पर मिलती हैं कि कभी वह किसी बस्ती को आग के हवाले करके जिंदा इंसानों को जला देते हैं तो कभी अबू जेहल की बेटी से शादी रचाने चले जाते हैं.
अली का बचपन से ही किताब और क़लम से दूर दूर तक का कोई वास्ता न था. ज़हानत तो इन में छू तक नहीं गई थी. हैरत होती है कि आज इनके फ़रमूदात के किताबों के अम्बार हैं, यह सब उनके खानदान शियों के कारनामें है. एक घस खुद्दे को इन आलिमों ने क्या से क्या बना दिया है.


(बुखारी १९)


हलीमा दाई की बकरियों को चराने वाले


मुहम्मद कहते हैं

"ऐसा ज़माना आने वाला है कि आदमियों का बेहतर माल बकरियां होंगी. अपना दीन बचाने की ग़रज़ से वह इनको सब्ज़ा जारों और पहाड़ों पर लिए फिरेगा ताकि फ़ितनों से महफूज़ रहे"
मुहम्मद गालिबन अपनी फ़ितना साज़ी के अंजाम की इबरत अख्ज़ कर रहे है. वैसे बकरियाँ मुहम्मद को बहुत पसंद थीं. वह अक्सर उनकी आराम गाहों (बाड़ों) में नमाज़ें अदा करते, नतीजतन उनके कपडे हमेशा मैले और बुक्राहिंद बदबू दार हुवा करते.

पकिस्तान में किसी ईसाई के मुँह से यह बात निकल गई थी, वहां के आयत उल्लाओं ने उसे फांसी की सज़ा दे दी थी.
योरोप और अमरीका के बदौलत तेल के खज़ाने अगर अरबों को न मिलते तो आज भी वह बकारियाँ चराते फिरते. अफ़गानिस्तान जैसे कई मुस्लिम देश ऐसे हैं जहाँ लोग जानवरों के रह्म ओ करम पर अपना पेट पालते हैं. तमाम इंसानी चरागाहें, इस्लामी चरागाहें बनी हुई हैं

Friday, 30 September 2011

Hadeesi hadse (6)

(मुस्लिम . . . किताबुल ईमान)


ईमान का मज़ा चख्खा


अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब कहते हैं कि मुहम्मद ने कहा

" ईमान का मज़ा चक्खा उसने जो राज़ी हो गया खुदा की खुदाई पर, इस्लाम के दीन होने पर और मुहम्मद की पैगम्बरी पर"
वाकई!

कुछ सदियाँ ज़ुल्म ढाने में मज़ा आया,

उसके बाद झूट को जीने में

और अब झूट की फसल काटने मुसलामानों को मज़ा आ रहा है.

हर मुसलमान छटपटा रहा है कि वह क्या करे, और कहाँ जाए.

अल्लाह उनको बुला रहा है इधर आओ; अभी मेरी दोज़ख का पेट नहीं भरा है.

दुन्या उन्हें बुला रही है कि अभी तुम्हारे आमाल की सजा` तुमलो नहीं मिली है; हिसाब अभी बाकी है.

आलिम ए बातिल मुसलमानों को खींच रहे हैं कि हम मुहम्मदी शैतान हैं, तुम को गुमराह करता रहूँगा, आओ मेरी तरफ़ आओ; नमाज़ों के लिए अपने सर पेश करो,

तुम्हारे वजूद से ही हम शैतानो का वजूद है. जब तक तुम में एक सफ़ भी नमाज़ के लिए बची रहेगी, मैं बचा रहूँगा.
ईसा की बात याद आती है, कहा - - -
" कोई अच्छा पेड़ नहीं जो निकम्मा फल लाए, और न ही कोई निकम्मा पेड़ है जो अच्छा फल लाए" इस्लाम का निकम्मा पेड़ मुसलामानों को बे कीमत किए हुए है.


(बुखारी २०)


आप की क्या बात है


एक रोज़ मुहम्मद के हम असरों ने एह्तेजाजन मुहम्मद की चुटकी ली कि

" हम आप की तरह तो हैं नहीं कि थोड़ी इबादत करें या ज़्यादः , बख्श दिए जाएँगे. क्यूंकि आप के तो अगले पिछले सब गुनाह मुआफ़ हैं. यह सुनकर हज़रत गुस्से से तमतमा उट्ठे और कहा मैं तुम से ज़्यादः अल्लाह से डरने वाला हूँ."
* कुरान में कई बार जानिब दार अल्लाह मुहम्मद को यक़ीन दिलाता है कि
" आप के अगले और पिछले तमाम गुनाह मुआफ़ किए "
इस छूट को लेकर मुहम्मद ने मनमाने गुनाह किए. उनका ज़मीर जब उन्हें कचोक्ता था तो वह अपने आप को गुनाहगार होने का एतराफ़ करते थे मगर ज़मीर कि आवाज़ को उनकी बे ज़मीरी दबा देती है. उन के फितरत का निगहबान उनका तखलीक करदा अल्लाह बन जाता हैथा. मुसलमान मजबूरन और मसलहतन उनको बर्दाश्त करते थे, इस लिए कि माले-गनीमत से वह भी फ़ायदा उठाते थे. उस वक़्त अरब में रोज़ी एक बड़ा मसअला था. लोगों के तअनों पर मुहम्मद आएं बाएँ शाएँ बकने लगते थे.


(मुस्लिम किताबुल ईमान)


जिब्रील के बल ओ पर . . .


"जिब्रील अलैस्सलम के छ सौ बाजू हैं" मार्फ़त मारूफ अब्दुल्ला बिन मसूद .
दूसरी हदीस सुलेमान शैताबी से है कि मुहम्मद ने कहा
" जिब्रील के छ सौ पंख हैं."
* इस्लामी खेल में जिब्रील का किरदार मुहम्मद ने जोकर के पत्ते की तरह इस्तेमल किया है. फ़रिश्ते जैसे मुक़द्दस किरदार को रुसवा किया है. मुहम्मद की हर मुश्किल में जिब्रील खड़े रहते हैं.चाहे जैनब के साथ इनका आसमान पर निकाह हुवा हो चाहे वह्यों की आमद रफत, जिब्रील इनके मदद गार हुवा करते हैं.

Saturday, 24 September 2011

हदीसी हादसे (५)


दूसरी मश्क़



(बुखारी ४)


जाबिर कहते हैं कि मुहम्मद ने फ़रमाया - - -


"मैं रह गुज़र में था कि आसमान से आवाज़ आई, सर उठा कर देखता हूँ तो वही फ़रिश्ता घर वाला वाला कुर्सी पर बैठा नाज़िल है. घर आया चादर उढ़वाई. मैं डरा, दूसरी आयत उसने याद कराई. उसके बाद क़ुरआनी आयतें उतरने लगीं "


मुलाहिजा हो ग़ार वाला फ़रिश्ता आसमान पर राह चलते नज़र आता है वह भी कुर्सी पर बैठा हुवा. खैर यहाँ तक तो तसव्वुर किया जा सकता है, मगर यह कैसे हो सकता है कि हज़रात चलते रहे और फ़रिश्ता उनके सर पर उड़ता हुवा उनको आयतें याद कराता रहा?


क्या उसे ग़ार जैसी कोई दूसरी जगह नहीं मिल सकी कि जहाँ इस बार अपने नबी को बिना दबोचे पाठ पढाता.
अहमक अहले-हदीस कभी इन बातों पर गौर नहीं करते?


मुहम्मद के वहियों का खेल उनके घर से ही शुरू हुवा, जहाँ वह अपनी बीवी पर ही अपने झूट को आज़माते.मुहम्मद के जाहिल और लाखैरे जाँ निसारों ने इन बातों का यक़ीन कर लिया और बा शऊर अहल मक्का ने इसे नज़र अंदाज़ किया कि किसी का दिमाग़ी ख़लल है, हुवा करे. हमें इससे क्या लेना देना, इस बात से बे ख़बर कि यही जिहालत उन पर एक दिन ग़ालिब होने वाली है.


(मुस्लिम किताबुल - - - जिहाद +बुखारी ७)



दावत ए इस्लाम शाह रोम को



मुज़बज़ब और गैर वाज़ेह हदीस जोकि इमाम बुखारी ने लिखा, पढ़ कर हैरत होती है कि एक बादशाह की कहानी ऐसी भी हो सकती है. मुख़्तसर यह है कि मुहम्मद ने अबू सुफ़यान के ज़रीए शाह रोम हर्कुल को दावत ए इस्लाम भेजा, बड़े बे तुके हर्कुल के सवाल और सुफ़यान के जवाब के बाद, अबु सुफ़यान ने मुहम्मद की तहरीर शाह रोम को दी जिसे पढ़ कर वह और उसके दरबारी आग पा हो गए.


तहरीर कुछ ऐसी थी ही, इतनी आम्याना, कुछ इस तरह - - -



"शुरू करता हूँ मैं अल्लाह तअला के नाम से जो बड़ा मेहरबान और रह्म वाला है. मुहम्मद अल्लाह तअला के रसूल की तरफ़ से हर्कुल को मालूम हो, जो कि रईस है रोम का. सलाम शख्स को, जो पैरवी करे हिदायत की. बाद इसके मैं तुझको हिदायत देता हूँ इस्लाम की दावत; कि तू मुसलमान हो जा तो सलामत रहेगा( यानी तेरी हुकूमत, जान और इज्ज़त सलामत और महफूज़ रहेगी) मुसलमान हो जा अल्लाह तुझे दोहरा सवाब देगा. अगर तू न मानेगा तो तुझ पर वबाल होगा अरीसियीन का.

ऐ किताब वालो! मान लो एक बात जो सीधी और साफ़ है हमारे तुम्हारे दरमियान की, कि बंदगी न करें किसी और की, सिवा अल्लाह तअला के. किसी और को शरीक भी न ठहराव आखिरी आयत तक"



ख़त का मज़मून और अंदाज़ ए खिताबत से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि मुहहम्मद और उनके खलीफे कितने मुहज्ज़ब रहे होंगे. यह दावत ए इस्लाम है या अदावत ए इस्लाम?
एक देहाती कहावत है
"काने दादा ऊख दो, तुम्हारे मीठे बोलन"
इस्लामी ओलिमा इस ख़त की तारीफों के पुल बाँधते हैं. यह इस्लामी ओलिमा ही मुसलमानों का बेडा गर्क किए हुवे है.
इस पैगाम के एलान के बाद दरबार में मुहम्मद के खिलाफ़ हंगामा खड़ा हो गया. अबू सुफ्यान को सर पर पैर रख कर भागना पड़ा.

Friday, 23 September 2011

हदीसी हादसे (४)


(बुखारी ३ _ मुस्लिम . . . किताब उल ईमान)



गार ए हिरा से इब्तेदा


मुहम्म्द गार ए हिरा में दिन भर का खाना लेकर चले जाते और पैगम्बरी की मंसूबा बंदी किया करते. आखिर एक दिन अपनी पैगम्बरी के एलान का फैसला कर ही लिया. सब से पहले इसकी आज़माइश अपनी बीवी खदीजा से किया. कहानी यूं गढ़ी कि मैं गार था कि एक फ़रिश्ता नाजिल हुवा और उसने कहा- - -
पढो!
मैंने कहा मैं पढ़ा नहीं हूँ
फ़रिश्ते ने मुझे पकड़ा और दबोचा, इतना कि मैं थक गया और उसने मुझे छोड़ दिया..
इसी तरह तीन बार फ़रिश्ते ने मेरे साथ (न शाइस्ता) हरकत किया और तीनो बार मैंने खुद को अनपढ़ होने का वास्ता दिया, तब इस (गैर फितरी मखलूक) की समझ में आया (कि वह जो कुछ पढ़ा रहा है वह बगैर किताब, कापी या स्लेट या अल्फाज़ का है)
चौथी बार मुहम्म्द को या फ़रिश्ते को अपनी गलती का एहसास हुवा कि बोला पढ़ - - -
इकरा बिस्म रब्बेकल आल़ल लज़ी . . . यानी पढ़ अपने मालिक का नाम लेकर
जिसने पैदा किया आदमी को खून की फुटकी से और पढ़
कि तेरा मालिक बड़ी इज्ज़त वाला है
जिसने सिखलाया क़लम से,
सिखलाया आदमी को जो वह जनता नहीं था"



यह होशियार मुहम्म्द की पहली वहयी की पुडया है जिसको गार ए हिरा से बांध कर अपनी बीवी खदीजा के लिए वह लेकर आए थे. सीधी सादी खदीजा मुहम्म्द के फरेब में आ गई. आज की औरत होती तो दस सवाल दाग कर शौहर को रंगे हाथो पकड़ लेती. और कहती खबर दार अब गार में मत जाना, जहां तुम्हारा शैतान तुमको इतनी बे वज़न बातें सिखलाता है और तुमको दबोचता है.
कलम से तो आदमी आदनी को सिखलाता है, या वह इज्ज़त वाला अल्लाह ?
झूठे कहीं के,
मक्कारी की बातें करते हो
डर और खौफ का आलम बना कर घर में मुहम्म्द घुसे और बीवी से कहा खदीजा मुझे ढांप दो कपड़ों से
मुआमला मंसूबा बंद बयान किया और कहा मझे डर है अपनी जान का .
खदीजा घबराईं और मुहम्म्द को लेकर गईं 'वर्का बिन नोफिल' के पास, जो रिश्ते में इनके चचा होते थे. जो नसरानी थे

बोलीं ऐ चाचा! अपने भतीजे की सुनो.
मुहम्म्द की गढ़ंत सुनने के बाद विर्का ने कहा "यह तो वह नामूस है जो मूसा पर उतरी थी. काश मैं उस वक़्त तक ज़िन्दा रह पाता जब तुमको तुम्हारी कौम निकाल देगी, क्यूंकि जब कोई शरीअत या दीन लेकर आया है तो उसकी कौम ने उसके साथ ऐसा ही किया है

Thursday, 22 September 2011

हदीसी हादसे ३


हदीसें

बुखारी १
उमर बिन अल्खिताब कहते हैं "मुहम्मद का फ़रमान है नियत के इरादे से हिजरत का सिलह मिलता है, दुन्या हासिल करने की या औरत."
(बुखारी १)


औरत या दुन्या


बाबा इब्राहीम के वालिद आज़र (तौरेत में-तेराह) को उनके खुदा ने ख्वाब में कई बार कहा कि तू हिजरत कर, तुझको इस उजाड़ खंड के बदले दूध और शहद की नदियाँ दूंगा. बूढ़ा आज़र तो हिजरत कर न सका मगर अपने बेटे इब्राहीम को हिजरत के लिए आमादा कर लिया, साथ में उनके भतीजी सारा थी जिसे इब्राहीम से मंसूब किया था और दूसरे भाई का बेटा लूत भी साथ हुवा. यह तारीख इंसानी की पहली मुस्तनद हिजरत थी.
आज़र का ख्वाब हर यहूदी को विरासत में मिला. यहूदियों का हजारो साल से कोई मुल्क, कोई कयाम, कोई ठौर ठिकाना न हुवा. दूध और शहद का देश पा जाने के बाद भी नबियों के दिखाए हुए ख्वाब को पूरा नहीं समझते, क्यूं कि साथ में नबियों ने यह भी उनके कान में कह दिया था कि तुम दुन्या की बरतर कौम हो, बाकी सब तुम्हारे खादिम. दूध और शाहेद का देश तो मिल गया कोमों पर हुक्मरानी का ख्वाब शर्मिदा ए ताबीर न हुवा.
आज़र का ख्वाब ए हिजरत दर अस्ल मजबूरी में एक नाजायज़ क़दम था. हिजरत ने बड़े बड़े मज़ालिम ढाए हैं. अपने जुग्रफियाई हालत में बसी कौमों को हिजरत ने तबाह कर दिया है. अमरीका के रेड इन्डियन हों या भारत की कौम भर, आज ढूंढें नहीं मिलते. आज हिजरत के खिलाफ नए सिरे से दुन्या जाग रही है. हिजरत मुकामी लोगों का शोषण करने का नाम है.
मुहम्मद ने जान बचा कर अपने साथी अबुबकर के साथ मक्का से मदीना भाग जाने को हिजरत का नाम दिया है.
पैगम्बर का नजरिया मुलाहिज़ा हो कि मुहाजरीन की नियत कैसी होती है? दुनया हासिल करने की या औरत.
मुहम्मद ने हिजरत की मिटटी पिलीद कर दिया. इसमें आकबत और दीन दोनों गायब हैं. दीवाने मुसलमान हिजरत बमानी हिज्र, विसाल ए सनम , जो हो, या फिर दुन्या ?
क्या प़ा रहे है? या क्या चाहेंगे हिजरत करके.

बुखारी -२


वह्यी की आमद


आयशा मुहम्मद की बीवी कहती हैं कि उन्हों ने अपने शौहर से पूछा "
आप पर वह्यी कैसे आती है?
बोले
कभी अन्दर घंटी जैसी बजती है, इस सूरत में बड़ी गरानी होती है और कभी फ़रिश्ता बशक्ल इन्सान नाज़िल होकर हम कलाम होता है. मैं फ़रमान याद कर लेता हूँ. कहती हैं सर्दी के ज़माने में जब वह्यी आती है तो मुहम्मद के माथे पर पसीने की बूँदें निकल आती थीं."
(बुखारी -२)
आयशा सिन ए बलूगत में आते आते १८ साल की बेवा हो गईं. बहुत सी हदीसें इसके तवास्सुत से हैं. मासूम कमसिन क्या समझ सकती थी मुहम्म्द की वह्यों का गैर फितरी खेल?
जब मुहम्मद ने इस के ऊपर 'इब्न अब्दुल्ला इब्न सुलूल' की इलज़ाम तराशी के असर में आकर शक किया था और एक महीने आयशा से तर्क तअक्कुक रहे, तब भी शौहर मुहम्मद ने इसे मुआफ करने में इन्हीं वह्यों का सहारा लिया था और आयशा ने इनकी वह्यी को इनके मुंह पर मार दिया था. कहा था
मेरा खुदा बेहतर जनता है कि मैं क्या हूँ.
वह्यिओं का कारोबार मुहम्मद ने ऐसा ईजाद किया था कि मुसलमानों के दिलो दिमाग को वहियाँ, ज़ंग आलूदह कर गईं. मुहम्मद के पहले किसी पर वह्यी न आई मगर उनके बाद तो इसका सिलसिला बन गया.
हाँ! शैतान, भूत, परेत और जिन्न वगैरा मक्कार मर्द और मक्कार औरतों पर ज़रूर आते हैं जिनका इलाज पुरोहितों के झाड़ू से होता है.
मुसलमानों! जागो, कब तक इन वहियों पर यकीन करते हुए खुद को पामाल करोगे.


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Monday, 19 September 2011

हदीसी हादसे (२)


हदीस


वैसे तो हदीस के लफज़ी मअनी हैं बात चीत, ज़िक्र और क़िस्सा गोई वगैरा मगर इसे इस्लाम ने जब इसका इस्लामी करन कर लिया तो इसके इस्लामी इस्तेलाह में मअनी बदल गए, जैसा कि और लफ़्ज़ों के साथ हुवा है. अब हदीस का अवामी मअनी हो गया है मुहम्मद की कही हुई बात या उनके मुतालिक कोई वाक़ेया. फ़तह मक्का के बाद हदीसों का सिलसिला रायज हुवा जो आज तक मुसलसल जारी है. मज़े की बात ये है कि मुहम्मद की या मिलावट की हदीसों में कोई फर्क महसूस नहीं होता.
हदीस के सैकड़ों आयमा और दर्जनों किताबें हैं मगर इन में सब से बड़े इमाम
"शरीफ़ मुहम्मद इब्ने इब्राहीम इब्ने मुगीरा जअफ़ी बुखारी" हैं, जिनको उर्फ़ आम में इमाम बुखारी कहा जाता है. यह बज़ात ए खुद और इनके अजदा आतिश परस्त और किसान थे. इमाम बुखारी बादशाह ए वक़्त यमान बुखारी के हाथों पर बैत करके इस्लाम पर ईमान लाए. इमाम बुखारी के बारे में अहले कालम ने बड़ी मुबल्गा आरियाँ कीं हैं. कुंद ज़ेहन ओलिमा लिखते हैं कि

उन्हों ने छै लाख हदीसों का मुआलिआ किया और उसकी तहकीक़ भी की. इनमे से तीन लाख हदीसें इनको हिफ्ज़ थीं. इबादत का यह आलम था कि तहज्जुद की तीन रातों में एक कुरान ख़त्म कर लेते और दिन में इफ्तार से पहले एक कुरान ख़त्म कर लिया करते. कोई हदीस लिखने से पहले दो रिकअत नमाज़ अदा करते.

ऐसी मुबालगा आराई को मुसलमान आलिम ही कर सकता है जिसके लिए इमाम बुखारी को दरकार होती कम से कम १००० साल की उम्र, जब कि पाई सिफ ६६ साल की उम्र.
इमाम बुखारी मुहम्मद के मौत के २०० साल बाद हुए, सिर्फ़ सोलह साल हदीसों पर रिसर्च किया,
ओलिमा लिखते हैं उन्हों ने छह लाख हदीसों का जाँचा परखा, इनमें से तीन लाख जईफ हदीसों को रद्द किया बाकी तीन लाख हदीसों को हिफ्ज़ किया, साथ साथ दिन में एक कुरआन ख़त्म करते और रात में एक तिहाई? इसके साथ रोज़ मर्रा के शगल ए खास - - - फरागत गुस्ल, खाना पीना फिर ज़रीया मुआश ? मुआशरती तक़ाज़े और दीगर मसरूफीयात वगैरा. लाखों हदीसों के मुहक्किक और लिखने पर आए तो सिर्फ़ २१५५ हदीसें ही दे पाए?
मुझे इमाम साहब से कोई गिला नहीं अफ़्सोस है तो इन अल्लाह के फ़सिक मुसंनफीन पर है कि वह मखलूक ए इंसानी को किस क़दर गुमराह करते है. ज़रा सा फायदा हासिल करने के लिए यह आलमीन अपना ईमान दाँव पर लगा देते हैं.

इनकी एक तहरीर देखें - - -
"अबू ज़ैद मूरूज़ी बयान करते हैं कि एक दिन मैं हरम मक्का में सो रहा था कि ख्वाब में मुहम्मद को देखा कि कहा, तू इमाम शाफई की किताब को कब तक पढेगा ? हमारी किताब को क्यूं नहीं पढता ?
मैंने पूछा या रसूलिल्लाह !आप की किताब कौन सी है?
हुज़ूर ने फ़रमाया, जो मुहम्मद बिन इस्माईल ने तालीफ़ की है ''
इस झूठे ने एक तीर से दो शिकार किए. सहीह बुख़ारी की अज़मत और इमाम शाफई की अहनत.

हदीसों के बारे में थोडा सा और जन लें कि हदीसें मुहम्मद के ज़माने में ही मुतनाज़िआ हो गई थीं. हल्काए खिलाफत के उम्मीद वारों ने हदीसी हवाले पर एतराज़ किया कि हर कोई इस के हवाले से अपनी बात कहता है लिहाज़ा यह सिसिला बंद किया है, इस पर मुहम्मद राज़ी हो गए थे. मुहम्मद के ससुर अबुबकर ने अपनी बेटी आयशा के सामने ५०० हदीसें नज़र ए आतिश किया जो उनको रास नहीं आती थीं. यहूदियों ने बर बिनाए मुखालिफत हदीसों का मज्हकः खेज़ अंबर गढ़ लिया था. एक ऐसा वक़्त आया कि खलीफाओं ने हदीसों पर पाबन्दी लगा दी थी.
मुहम्मद ख़त्म हुए, दौर ए ख़िलाफ़त ख़त्म हुवा, ताबेईन चल बसे, तबा ताबेईन भी क़ब्रों में दफ़न हुए, दो सौ साल बाद फिर हदीसों की वबा फैली. सैकड़ों मुहक़ककीन अज़ सरे नव पैदा हुए, उन्हें लगी हुई इस्लामी बंदिश की परवाह न रही, नतीजतन दर्जनों हदीसी तालीफ़ की क़ुतुब बजूद में आईं. इनमे बजी मारी इमाम बुखारी और दूसरे नंबर पर रहे इमाम मुस्लिम. बाक़ियों की गलीज़ तलीफें भी अहले हदीस चाट रहे हैं.
मुझे इमाम बुखारी से कोई शिकायत नहीं, बल्कि वह यकीनी तौर पर एक काबिले क़द्र हस्ती हुई. इनकी तालीफ़
" सहीह बुखारी" पर से सौ फी सद मुझे इत्तेफ़ाक़ है कि उन्हों ने हदीस में एक मुअल्लिफ़ का पूरी ईमान दारी के साथ मुज़ाहिरा किया है. न ही मुहम्मद की जानिब दारी की है, न आल ए रसूल का कोई लिहाज़ बरता है. मुताला ए हदीस बुखारी से हर एक की हैसियत और उसकी हकीकत का बखूबी अंदाज़ा लगाया जा सकता है, जिसको साहिब ए ईमान यह गाऊदी मुसलमान नहीं समझ सकते.
मुहम्मद की जालिमाना तबीयत, उनकी बे बुनियाद सियासत, उनकी बद खसलती और झूटी नबूवत का पता हमें इमाम साहब आईने की तरह दिखलाते हैं. साथ साथ सहाबियों और आल ए रसूल का बद नुमा चेहरा भी हमें साफ साफ नज़र आता है. बुखारी को पढ़ कर मुझे तौरेती तहरीर का गुमान होता है जिस में ममदूह के नापाक चेहरे भी हमें साफ नज़र आते हैं. इमाम बुखारी और इमाम मुस्लिम जाने माने हदीसी इमाम हैं. दोनों हम असर थे और एक ही मदरसे के तालिब ए इल्म थे. इनके उस्ताद मुहम्मद बिन याह्या ज़ेहली हुवा करते थे.
इमाम मुस्लिम का अपने उस्ताद से लफ्ज़ "ख़ल्क़" पर इख्तेलाफ़ हो गयाथा, अनबन हो जाने के बाईस उस्ताद से पाई हुई सारी हदीसें उनको वापस कर दिया, इसके बाद मुमालिक इसलामया का तवील दौरा किया और नए सिरे से हदीसों पर काम करना शुरू किया. इस्लामी कलम कार लिखते हैं कि उन्हों ने चार लाख हदीसें जमा की(अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि यह कितने अक्ल से पैदल होते हैं) इनका मुतालिआ किया और जांचा परखा, फिर इनको किताबी शक्ल दिया. इमाम साहब ने उम्र पाई थी फिरफ ५५ साल की जब कि इस काम के लिए १००० साल की उम्र दरकार है. इस्लामी अलिमो की कज अदाई हमेशा मुसलमानों के साथ रही है.
दुन्या के मुसलमानों के नजात का हल यही है कि इन फ़ासिक़ ओलिमा को चुन चुन कर इनसे वीराने में खेती कराई जाए या फिर इनको समंदर में डुबो दिया जाए.
इनकी तसानीफ़ को नज्र आतिश करना इंसानियत की रू से फ़र्ज़ अव्वलीन है. एक वक़्त आएगा जब इनके साए से लोग भागेगे जैसे खारिश ज़दा कुत्ते को देख कर भागते हैं.
एक मुहक्किक इस हदीसी दुन्या का , दूसरे मुहद्दिस हदीस दान के बारे में लिखता है,
"अब्दुल्ला बिन मुबारक से रिवायत है कि वह कहा करते थे कि अगर मुझे अख्तियार दिया जाता कि जन्नत में जाऊं या पहले अब्दुल्ला बिन मुहर्रिर से मिलूँ, तो मैं जन्नत बाद में जाता, पहले उन से मिलता. उनकी बड़ी तारीफ़ सुन रक्खी थी और उनसे मिलने का इतना इश्तियाक इस तौर पर बढ़ गया था, पर जब मैं उनसे मिला तो एक ऊँट की मेंगनी मुझे उनसे बेहतर मालूम हुई"
(मुक़दमा सही मुस्लिम)
तो यह हैं भरोसे मंद माज़ी के लोग जिनकी हदीसें हम बावज़ू होकर पढ़ते हैं. आज भी ऐसे लोग हमारे समाज में बकस्रत मिलते हैं जो ऊँट की मेंगनी से भी बदतर हैं या वह जो किसी इंसान की जगह ऊँट की मेंगनी लज़ीज़ पाते हैं.
जोहरी कहते हैं ,
"इस्लाम ज़बान से इकरार करना है और ईमान आमाल ए सालेह को कहते हैं. सहीह यह है कि इस्लाम आम है और ईमान खास. तो हर मोमिन मुस्लिम है मगर हर मुस्लिम मोमिन होना ज़रूरी नहीं. ईमान का अस्ल तसदीक़ है दिल से यक़ीन करना और इस्लाम का अस्ल फरमा बरदारी है.यानी इताअत "
(सहीह मुस्लिम - - - किताबुल ईमान)
ये है ईमान की वज़ाहत, ऐसे ही हर इन्सान को होना चाहिए.
मुहम्मद की एक हदीस ने मेरे वजूद को हिला कर रख दिया. इस को पढ़ कर गैरत को बहुत ठेस पहुंची. उनकी रही सही इज्ज़त मेरी नज़रों से जाती रही. किसी ने उनसे आकर दरयाफ्त किया - - -
" या रसूललिल्लाह मेरा बाप क़ब्ल नबूवत मर गया था, वह कहाँ होगा ? जन्नत में या दोज़ख में?
मुहम्मद का जवाब था कि दोज़ख में .
वह मायूस होकर ख़ामोशी से मुंह मोड़ कर जाने लगा कि मुहम्मद ने आवाज़ दी - - -
तेरा बाप और मेरा बाप दोनों दोज़ख में होगा.
मुहम्मद का दबदबा ऐसा था कि उनके जवाब पर सवाल करना गुस्ताखी मानी जाती थी. वह दिल मसोस कर चला गया
मुहम्मद जब अपनी माँ के पेट में थे तो उनके बाप की मौत हो गई थी. चालीस साल बाद उनको खुद सख्ता नबूवत की जल साज़ी मिली जिसके जाल में उन्हों ने अपने बाप को भी फंसाने में कोई रिआयत न की. जिस गरीब को इस्लाम की हवा भी न लगी थी .
ऐसी ही नमक हरामी उन्हों ने अपने चचा अबी तालिब के साथ भी की.कहा - - -
दोज़ख में उनके पैरों में आतिशी जूते होंगे जिसमें इनका भेजा पक़ रहा होगा.
मुहम्मद एक खुद परस्त इंसान थे, देखें कि क्या क्या इंसानियत सोज़ बातें की हैं. अकीदत की टोपी उतार कर और ईमान की ऐनक लगा कर उनके फ़रमूदात को पढ़िए, जांचिए और परखिए फिर सदाक़त पर ईमान लाइए.
आप बहुत ही बोझल तबई को ढो रहे हैं. हर मुसलमान लाशूरी तौर पर बोझिल है, वजह यह है कि वह झूट के जाल में फँसा हुवा है. सदाक़त को पाते ही आप के दिल का बोझ उतर जाएगा और आप महसूस करेंगे की आप बहुत ताक़त के मालिक है..

Friday, 16 September 2011

हदीसी हादसे (1)


हदीसी हादसे


 मैं एक मोमिन हूँ और मेरा दीन है 'ईमान दारी.' दीन एक मुक़द्दस दरख्त है, ईमान इसका फूल है और मोमिन इसका फल.. इसी फल के बीज से फिर दरख़्त का वजूद फूटता है. दरख़्त में फूल अपने महक के साथ फिर खिलते हैं और फिर वह फल का दर्जा पाते हैं दीन के, दरख़्त, फूल और फल का सिलसिला यूं ही चलता रहता है.
इस ज़मीन पर ईमान का नक्श मौजूद, पैकर ए इंसानी है और इंसानी क़दरों का निचोड़ है ईमान. 'ईमान फ़र्द के अज़मत का निशान है.' दीन जो इंसानियत के वजूद से ताज़ा होकर इंसानों के लिए मक्नातीशी होता रहता है. लोग कहते हैं कि फलां शख्स बड़ा ईमान दार है यानी वह इंसानी क़दरों के क़रीब तर है. इस लिए लोग इसकी तरफ खिंचते है. इसकी बातों का यकीन करते है. इसके बर अक्स कहा जाता है . . . वह बे दीन है कमबख्त, यानी इंसानी क़दरों से दूर , हैवान नुमा.
दीन इंसान की दियानत दारी होती है और मोमिन का सिफत है ईमान.
अमन, अमीन, इन्सान , मोसिन और इंसानियत सब एक ही शजर क़ुदरती अल्फाज़ हैं, इन पर गौर करने की ज़रुरत है.
अफ़सोस कि दीन की जगह मज़हबी नुमाइश और धर्म के पाखंड ने ले लिए है. इनका दीन से दूर दूर तक कोई रिश्ता नहीं. नमाज़, रोज़ा, हज, ज़कात - - - वजू, रुकू, सजदा - - तहारत, नजासत, इबादत - - -तबलीग, तफ़सीर और जिहाद वगैरह मज़हबी कारसतानियाँ हैं, दीन नहीं. दीन दिल की गहराइयों से फूटा हुई एक पाकीज़ा वलवला है. धर्म कांटे पर तुला हुवा सच्चा वज़न है, मान लिया गया लचर अकीदा नहीं.
आदमी मफ़रूज़ः आदम से पहले ज़हीन तरीन जानवर का बच्चा हुवा करता था, फिर मफ़रूज़ः आदम की औलाद हुवा. जब वह मुहज्ज़ब होकर इंसानी क़दरों में ढला तो वह इन्सान कहलाया.
ग़ालिब का यह शेर मेरी बातों का अच्छा खुलासा करता है - - -


बस कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना,
आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्सां होना.


इंसानी तहजीब भी हर शै की तरह इर्तेकाई मराहिल से गुज़र रही है. कई ज़मीनी खित्ते ऐसे हैं, जहाँ आज भी आदमी जानवर के बच्चे की तरह है. कहीं कहीं अभी भी इन्सान आदमी के इर्तेकई मराहिल में पड़ा हुवा है और बहुत से दुन्या के खुश नसीब ज़मीनी टुकड़े हैं जहाँ के लिए कहा जा सकता है कि आदमी इंसान के मुकाम तक पहुँच चुका है. इंसानों को वहां पर हर इंसानी हुक़ूक़ हासिल हो चुके हैं.
अब हम आते हैं इस्लाम पर कि इस्लाम वह शर्त है जो तस्लीम हो. इस्लाम जिसे सब से पहले आँख मूँद कर बे चूँ चरा तस्लीम कर लिया जाए. इस्लाम को तस्लीम करने के बाद फ़र्द राह ए इंसानियत से हट कर सिर्फ़ मुस्लिम रह जाता है, मोमिन होना तो दूर की बात है.
इंसानी और ईमानी शजरे की मअनवी खूबयों का इस्लाम कोई वास्ता नहीं. यह इंसानी अलामतें इस्लाम से हजारों साल पहले से वजूद में आ चुकी हैं. सच्चाई तो ये है कि इस्लाम ने हमारी आँखों में धूल झोंक कर उन क़दरों को इस्लामी पैकर में बदल दिया है. सदियों बाद हमें लगता है कि दीन और ईमान इस्लाम की दी हुई बरकतें हैं. इसमें इस्लामी ओलिमा के प्रोपेगंडा का बड़ा हाथ है.
ईमान इस्लाम से हजारों साल पहले वजूद में आ चुका है, जब कि इस्लाम ने ईमान की मिटटी पलीद कर रखी है.
ईमान की बात यह है कि बे ईमानी और हठ धर्मी का नाम है इस्लाम.
एक अज़ीम हस्ती का कौल देखिए - - -
"ईमान दारी दर अस्ल यकीनी तौर पर अम्न के कयाम का दरवाज़ा है और खुदाए मेहरबान के सामने अक़ीदत का निशान है.जो इसे पा लेता है वह धन दौलत के अंबर प़ा लेता है. ईमान दारी इंसान के तहफ्फुज़ और इसके लिए चैन का सब से बड़ा बाब है. हर काम की पुख्तगी ईमान दारी पर मुनहसर करती है.आलमी इज्ज़त, शोहरत और खुश हाली इसी की रौशनी से चमकते हैं."
(बहाउल्लाह , बहाई पैगाम)