Sunday 16 October 2011

Hdeesi Hadse (9)

(बुखारी - - - २१)


कैसे हुई दुन्या की बीस फी सद आबादी


इब्न उमर से हदीस है कि मुहम्मद ने कहा - - -
"हमें लोगों से उस वक़्त तक जिहाद करना चाहिए, जब तक कि वह 'ला इलाहा इल्लिल्लाह, मुहम्मदुर रसूल अल्लाह' न कह दें और नमाज़ ओ ज़कात अदा न करें, लेकिन जब वह इस उमूर को अदा कर लें तो, उन्होंने अपने जान और माल को मेरी जानिब से महफूज़ कर लिया."
*यह हदीस गवाह है कि मुहम्मद का मिशन क्या था? दीन या दौलत ? उस वक़्त 'ला इलाहा इल्लिल्लाह मुहम्मदुर रसूल अल्लाह' पर कायम हो जाना ही इंसानी बका की मजबूरी बन गई थी.
मुसलमानों!
यह तो ईमान की बात न हुई,
हाँ! इस्लाम की बात ज़रूर है जिसे तुम तस्लीम किए हुए हो.
अपने अजदाद तक जाओ जिन्हों ने इस्लाम को कुबूल किया होगा कि उनके आँखों के सामने मौत खड़ी रही होगी, जब वह मुसलमान हुए होंगे.


अपनी माओं के खसम; आलिमान दीन इन मज़्मूम हदीसों को तुम्हें पढ़ाते है कि उनकी हराम खोरी कायम रहे. हर ओलिमा में छोटे मुहम्मद बैठे हैं जो दर अस्ल क़ुरैश्यों के लिए इस्लाम की दूकान खोली थी. 'ला इलाहा इल्लिल्लाह मुहम्मदुर रसूल अल्लाह' कलमा ए तय्यबह नहीं बल्कि कालिमा ए कुफ्र है.
सूफी हसन बसरी और राबिया बसरी तबेईन में आला मुकाम हस्तियाँ हुई हैं इनकी मकबूलियत का यह आलम था कि इनके सामने इस्लाम को पसीने आ गए थे.


हसन बसरी को एक दिन लोगों ने देखा गया कि वह एक हाथ में पानी का लोटा लिए और दूसरे हाथ में जलती मशाल लिए भागे चले जा रहे थे.
लोगों ने उन्हें रोका और पूछा कहाँ?
हसन बोले जा रहा हूँ उस जन्नत को आग के हवाले करने जिसकी लालच से लोग नमाज़ें पढ़ते हैं और जा रहा हूँ उस दोज़ख में पानी डालने कि जिसके डर से लोग नमाज़ पढ़ते हैं .
अगर उस वक़्त सूफी को लोग समझ जाते तो इन गधो के सर पे इस्लामी सींगें न उगतीं, बल्कि इनके सर में भेजा होता.
ज़ालिम ओ जाबिर और माल ए गनीमत के आदी बन चुके हुक्मरानों ने बे बुन्याद इस्लाम की जड़ों की आब पाशी कर रहे थे. हसन उस वक़्त के हाकिम हज्जाज़ बिन यूसुफ़ के डर से अबू खलीफा के घर में छिपे हुए थे. देखिए कि उस वक़्त का बेदार हदीस मज्कूरह में क्या इजाफा करता है, जो सिर्फ 'ला इलाहा इल्लिल्लाह को मानता था और मुहम्मदुर रसूल अल्लाह को नहीं.


(मुस्लिम - - - किताक्बुल फितन ओ शरातु-स्साइता)


मअबद बिन हिलाल अज़ली से रिवायत है कि अनस बिन मालिक काफ़ी ज़ईफ़ हो चुके थे हम सकीब की सिफ़ारिश के साथ इन से मिलने पहुंचे कि कोई हदीस सुनाएँ. उन्हों ने सुनाया कि मुहम्मद ने कहा
"क़यामत का दिन होगा तो लोग घबरा कर एक दूसरे के पास भागेंगे.
पहले आदम के पास जाएँगे, लेकिन वह कहेंगे, मैं इस लायक नहीं, तुम लोग इब्राहीम के पास जाओ, वह अल्लाह के दोस्त हैं.
लोग इब्राहीम के पास जाएँगे, वह कहेंगे कि मैं इस काबिल नहीं तुम लोग मूसा के पास जाओ वह कलीमुल्लाह हैं,
वह कहेंगे मैं इस लायक नहीं, तुम लोग ईसा के पास जाओ वह रूहुल्लाह हैं,
ग़रज़ वह भी टाल देंगे और मुहम्मद के पास भेज देंगे.
लोग मेरे पास आएँगे और मैं कहूँगा, और उस के सामने खड़े होकर दुआ माँगूंगा. उसकी ऐसी तारीफ़ बयान करूंगा कि वह जवाब में इंकार नहीं कर सकता. मैं अपना सर सजदे में डाल दूँगा, अल्लाह कहेगा मुहम्मद उठ तेरी दुआ कुबूल हुई. माँग, क्या चाहता है?
मैं कहूँगा, मेरी उम्मत! मेरी उम्मत!!
हुक्म होगा जिसके दिल में गेहूं के या जौ के बराबर भी ईमान है, निकाल ले दोज़ख से,
मैं अपने तमाम लोगों को निकाल लूँगा दोज़ख से
फिर आ कर मालिक की वैसी ही तारीफें करुँगा और गिर पडूंगा सजदे में,
हुक्म होगा ऐ मुहम्मद! अपना सर उठा, कह जो कहना है, तेरी बात सुनी जाएगी, मांग जो मांगना है, सिफारिश कर तेरी सुनी जायगी.
मैं अर्ज़ करुँगा, मालिक! मेरी उम्मत! मेरी उम्मत !!
हुक्म होगा निकाल ले जिसके दिल में राइ बराबर भी ईमान हो,जहन्नम से. मैं ऐसा ही करूँगा
और फिर लौट कर आऊँगा और मेरी उम्मत! मेरी उम्मत!! का गुहार लगा दूँगा और
अल्लाह हस्ब ए आदत कहेगा जा निकल ले अपनी उम्मत को जिसके दिल में राइ के दाने से भी कम, बहुत कम, बहुत कम ईमान हो.


इसके बाद मअबद बिन हिलाल हसन बसरी के पास पहुँचे और बातों बातों में हदीस मज़्कूरह उन्हें सुनाया. हसन ने कहा ये हदीस बीस साल पहले उन्हों ने मुझे सुनाई थी, जब वह जवान थे, तुमको अधूरी सुनाई है, मुमकिन है भूल रहे हों. काफ़ी बूढ़े हो चुके हैं या को मसलेहत हो, मगर तुमको बाक़ी मैं सुनाता हूँ कि मुहम्मद चौथी बार अल्लाह के पास जाएँगे और
वह कहेगा ए मुहम्मद सर उठा मैं सुनूंगा, मांग मैं दूंगा, सिफारिश कर मैं कुबूल करूंगा.
उस वक़्त मैं कहूँगा ए मालिक मुझे इजाज़त दे उस शख्स को भी जहन्नम से निकलने की, कि जिसने ला इलाहा इल्लिलाह कहा हो.
अल्लाह तआला फरमेगा,
नहीं! मगर क़सम है मेरे इज्ज़त और बुज़ुर्गी की और जाह ओ जलाल की कि मैं निकालूँगा उस शख्स को जिसने ला इलाहा इल्लिलाह कहा हो.


इस लामतनाही कायनात का निज़ाम मुद्दत-गैर मुअय्यना से कोई ताक़त है जो चला रही है. इसी को लोग कहते हैं
"ला इलाहा इल्लिलाह"
न यह मुहम्मद का नअरा है न इस्लाम का बल्कि कबले-इस्लाम बहुत क़दीमी है. यह नअरा है, जो उस ताक़त को मुख़ातिब करता है. यह नअरा यहूदियों, ईसाइयों, काफिरों, मुल्हिदों बुत परस्तों और संत सूफियों सभी का रहा है. अनल हक़ के नअरे में भी इसकी गहरई छिपी है. जिनको इस्लाम सूली पर चढ़ाता रहा है. बुद्ध की शांति, कबीर की उलटवासी, नानक का तेरह तेरह, ग़ालिब का "डुबोया मुझको होने ने, न मैं होता तो क्या होता" में इसी "ला इलाहा इल्लिलाह" की आवाज़ छिपी हुई है, इस राज़ को लिए हुए कि कोई ताक़त है
"मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह " इस मुक़द्दस नअरे के साथ जोड़ कर मुहम्मद वह मुजरिम है जिन्हों ने कुफ्र की ईजाद की है.
*मज़्कूरह हदीस से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि मुहम्मद क्या थे. इनकी पैगम्बरी क्या बला थी, इनके अगराज़ओ मक़ासिद क्या थे,
इस्लाम की कौन सी खूबियाँ हैं जो इंसानी ज़िन्दगी के लिए सूद मंद हैं?
 

No comments:

Post a Comment