Monday 19 September 2011

हदीसी हादसे (२)


हदीस


वैसे तो हदीस के लफज़ी मअनी हैं बात चीत, ज़िक्र और क़िस्सा गोई वगैरा मगर इसे इस्लाम ने जब इसका इस्लामी करन कर लिया तो इसके इस्लामी इस्तेलाह में मअनी बदल गए, जैसा कि और लफ़्ज़ों के साथ हुवा है. अब हदीस का अवामी मअनी हो गया है मुहम्मद की कही हुई बात या उनके मुतालिक कोई वाक़ेया. फ़तह मक्का के बाद हदीसों का सिलसिला रायज हुवा जो आज तक मुसलसल जारी है. मज़े की बात ये है कि मुहम्मद की या मिलावट की हदीसों में कोई फर्क महसूस नहीं होता.
हदीस के सैकड़ों आयमा और दर्जनों किताबें हैं मगर इन में सब से बड़े इमाम
"शरीफ़ मुहम्मद इब्ने इब्राहीम इब्ने मुगीरा जअफ़ी बुखारी" हैं, जिनको उर्फ़ आम में इमाम बुखारी कहा जाता है. यह बज़ात ए खुद और इनके अजदा आतिश परस्त और किसान थे. इमाम बुखारी बादशाह ए वक़्त यमान बुखारी के हाथों पर बैत करके इस्लाम पर ईमान लाए. इमाम बुखारी के बारे में अहले कालम ने बड़ी मुबल्गा आरियाँ कीं हैं. कुंद ज़ेहन ओलिमा लिखते हैं कि

उन्हों ने छै लाख हदीसों का मुआलिआ किया और उसकी तहकीक़ भी की. इनमे से तीन लाख हदीसें इनको हिफ्ज़ थीं. इबादत का यह आलम था कि तहज्जुद की तीन रातों में एक कुरान ख़त्म कर लेते और दिन में इफ्तार से पहले एक कुरान ख़त्म कर लिया करते. कोई हदीस लिखने से पहले दो रिकअत नमाज़ अदा करते.

ऐसी मुबालगा आराई को मुसलमान आलिम ही कर सकता है जिसके लिए इमाम बुखारी को दरकार होती कम से कम १००० साल की उम्र, जब कि पाई सिफ ६६ साल की उम्र.
इमाम बुखारी मुहम्मद के मौत के २०० साल बाद हुए, सिर्फ़ सोलह साल हदीसों पर रिसर्च किया,
ओलिमा लिखते हैं उन्हों ने छह लाख हदीसों का जाँचा परखा, इनमें से तीन लाख जईफ हदीसों को रद्द किया बाकी तीन लाख हदीसों को हिफ्ज़ किया, साथ साथ दिन में एक कुरआन ख़त्म करते और रात में एक तिहाई? इसके साथ रोज़ मर्रा के शगल ए खास - - - फरागत गुस्ल, खाना पीना फिर ज़रीया मुआश ? मुआशरती तक़ाज़े और दीगर मसरूफीयात वगैरा. लाखों हदीसों के मुहक्किक और लिखने पर आए तो सिर्फ़ २१५५ हदीसें ही दे पाए?
मुझे इमाम साहब से कोई गिला नहीं अफ़्सोस है तो इन अल्लाह के फ़सिक मुसंनफीन पर है कि वह मखलूक ए इंसानी को किस क़दर गुमराह करते है. ज़रा सा फायदा हासिल करने के लिए यह आलमीन अपना ईमान दाँव पर लगा देते हैं.

इनकी एक तहरीर देखें - - -
"अबू ज़ैद मूरूज़ी बयान करते हैं कि एक दिन मैं हरम मक्का में सो रहा था कि ख्वाब में मुहम्मद को देखा कि कहा, तू इमाम शाफई की किताब को कब तक पढेगा ? हमारी किताब को क्यूं नहीं पढता ?
मैंने पूछा या रसूलिल्लाह !आप की किताब कौन सी है?
हुज़ूर ने फ़रमाया, जो मुहम्मद बिन इस्माईल ने तालीफ़ की है ''
इस झूठे ने एक तीर से दो शिकार किए. सहीह बुख़ारी की अज़मत और इमाम शाफई की अहनत.

हदीसों के बारे में थोडा सा और जन लें कि हदीसें मुहम्मद के ज़माने में ही मुतनाज़िआ हो गई थीं. हल्काए खिलाफत के उम्मीद वारों ने हदीसी हवाले पर एतराज़ किया कि हर कोई इस के हवाले से अपनी बात कहता है लिहाज़ा यह सिसिला बंद किया है, इस पर मुहम्मद राज़ी हो गए थे. मुहम्मद के ससुर अबुबकर ने अपनी बेटी आयशा के सामने ५०० हदीसें नज़र ए आतिश किया जो उनको रास नहीं आती थीं. यहूदियों ने बर बिनाए मुखालिफत हदीसों का मज्हकः खेज़ अंबर गढ़ लिया था. एक ऐसा वक़्त आया कि खलीफाओं ने हदीसों पर पाबन्दी लगा दी थी.
मुहम्मद ख़त्म हुए, दौर ए ख़िलाफ़त ख़त्म हुवा, ताबेईन चल बसे, तबा ताबेईन भी क़ब्रों में दफ़न हुए, दो सौ साल बाद फिर हदीसों की वबा फैली. सैकड़ों मुहक़ककीन अज़ सरे नव पैदा हुए, उन्हें लगी हुई इस्लामी बंदिश की परवाह न रही, नतीजतन दर्जनों हदीसी तालीफ़ की क़ुतुब बजूद में आईं. इनमे बजी मारी इमाम बुखारी और दूसरे नंबर पर रहे इमाम मुस्लिम. बाक़ियों की गलीज़ तलीफें भी अहले हदीस चाट रहे हैं.
मुझे इमाम बुखारी से कोई शिकायत नहीं, बल्कि वह यकीनी तौर पर एक काबिले क़द्र हस्ती हुई. इनकी तालीफ़
" सहीह बुखारी" पर से सौ फी सद मुझे इत्तेफ़ाक़ है कि उन्हों ने हदीस में एक मुअल्लिफ़ का पूरी ईमान दारी के साथ मुज़ाहिरा किया है. न ही मुहम्मद की जानिब दारी की है, न आल ए रसूल का कोई लिहाज़ बरता है. मुताला ए हदीस बुखारी से हर एक की हैसियत और उसकी हकीकत का बखूबी अंदाज़ा लगाया जा सकता है, जिसको साहिब ए ईमान यह गाऊदी मुसलमान नहीं समझ सकते.
मुहम्मद की जालिमाना तबीयत, उनकी बे बुनियाद सियासत, उनकी बद खसलती और झूटी नबूवत का पता हमें इमाम साहब आईने की तरह दिखलाते हैं. साथ साथ सहाबियों और आल ए रसूल का बद नुमा चेहरा भी हमें साफ साफ नज़र आता है. बुखारी को पढ़ कर मुझे तौरेती तहरीर का गुमान होता है जिस में ममदूह के नापाक चेहरे भी हमें साफ नज़र आते हैं. इमाम बुखारी और इमाम मुस्लिम जाने माने हदीसी इमाम हैं. दोनों हम असर थे और एक ही मदरसे के तालिब ए इल्म थे. इनके उस्ताद मुहम्मद बिन याह्या ज़ेहली हुवा करते थे.
इमाम मुस्लिम का अपने उस्ताद से लफ्ज़ "ख़ल्क़" पर इख्तेलाफ़ हो गयाथा, अनबन हो जाने के बाईस उस्ताद से पाई हुई सारी हदीसें उनको वापस कर दिया, इसके बाद मुमालिक इसलामया का तवील दौरा किया और नए सिरे से हदीसों पर काम करना शुरू किया. इस्लामी कलम कार लिखते हैं कि उन्हों ने चार लाख हदीसें जमा की(अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि यह कितने अक्ल से पैदल होते हैं) इनका मुतालिआ किया और जांचा परखा, फिर इनको किताबी शक्ल दिया. इमाम साहब ने उम्र पाई थी फिरफ ५५ साल की जब कि इस काम के लिए १००० साल की उम्र दरकार है. इस्लामी अलिमो की कज अदाई हमेशा मुसलमानों के साथ रही है.
दुन्या के मुसलमानों के नजात का हल यही है कि इन फ़ासिक़ ओलिमा को चुन चुन कर इनसे वीराने में खेती कराई जाए या फिर इनको समंदर में डुबो दिया जाए.
इनकी तसानीफ़ को नज्र आतिश करना इंसानियत की रू से फ़र्ज़ अव्वलीन है. एक वक़्त आएगा जब इनके साए से लोग भागेगे जैसे खारिश ज़दा कुत्ते को देख कर भागते हैं.
एक मुहक्किक इस हदीसी दुन्या का , दूसरे मुहद्दिस हदीस दान के बारे में लिखता है,
"अब्दुल्ला बिन मुबारक से रिवायत है कि वह कहा करते थे कि अगर मुझे अख्तियार दिया जाता कि जन्नत में जाऊं या पहले अब्दुल्ला बिन मुहर्रिर से मिलूँ, तो मैं जन्नत बाद में जाता, पहले उन से मिलता. उनकी बड़ी तारीफ़ सुन रक्खी थी और उनसे मिलने का इतना इश्तियाक इस तौर पर बढ़ गया था, पर जब मैं उनसे मिला तो एक ऊँट की मेंगनी मुझे उनसे बेहतर मालूम हुई"
(मुक़दमा सही मुस्लिम)
तो यह हैं भरोसे मंद माज़ी के लोग जिनकी हदीसें हम बावज़ू होकर पढ़ते हैं. आज भी ऐसे लोग हमारे समाज में बकस्रत मिलते हैं जो ऊँट की मेंगनी से भी बदतर हैं या वह जो किसी इंसान की जगह ऊँट की मेंगनी लज़ीज़ पाते हैं.
जोहरी कहते हैं ,
"इस्लाम ज़बान से इकरार करना है और ईमान आमाल ए सालेह को कहते हैं. सहीह यह है कि इस्लाम आम है और ईमान खास. तो हर मोमिन मुस्लिम है मगर हर मुस्लिम मोमिन होना ज़रूरी नहीं. ईमान का अस्ल तसदीक़ है दिल से यक़ीन करना और इस्लाम का अस्ल फरमा बरदारी है.यानी इताअत "
(सहीह मुस्लिम - - - किताबुल ईमान)
ये है ईमान की वज़ाहत, ऐसे ही हर इन्सान को होना चाहिए.
मुहम्मद की एक हदीस ने मेरे वजूद को हिला कर रख दिया. इस को पढ़ कर गैरत को बहुत ठेस पहुंची. उनकी रही सही इज्ज़त मेरी नज़रों से जाती रही. किसी ने उनसे आकर दरयाफ्त किया - - -
" या रसूललिल्लाह मेरा बाप क़ब्ल नबूवत मर गया था, वह कहाँ होगा ? जन्नत में या दोज़ख में?
मुहम्मद का जवाब था कि दोज़ख में .
वह मायूस होकर ख़ामोशी से मुंह मोड़ कर जाने लगा कि मुहम्मद ने आवाज़ दी - - -
तेरा बाप और मेरा बाप दोनों दोज़ख में होगा.
मुहम्मद का दबदबा ऐसा था कि उनके जवाब पर सवाल करना गुस्ताखी मानी जाती थी. वह दिल मसोस कर चला गया
मुहम्मद जब अपनी माँ के पेट में थे तो उनके बाप की मौत हो गई थी. चालीस साल बाद उनको खुद सख्ता नबूवत की जल साज़ी मिली जिसके जाल में उन्हों ने अपने बाप को भी फंसाने में कोई रिआयत न की. जिस गरीब को इस्लाम की हवा भी न लगी थी .
ऐसी ही नमक हरामी उन्हों ने अपने चचा अबी तालिब के साथ भी की.कहा - - -
दोज़ख में उनके पैरों में आतिशी जूते होंगे जिसमें इनका भेजा पक़ रहा होगा.
मुहम्मद एक खुद परस्त इंसान थे, देखें कि क्या क्या इंसानियत सोज़ बातें की हैं. अकीदत की टोपी उतार कर और ईमान की ऐनक लगा कर उनके फ़रमूदात को पढ़िए, जांचिए और परखिए फिर सदाक़त पर ईमान लाइए.
आप बहुत ही बोझल तबई को ढो रहे हैं. हर मुसलमान लाशूरी तौर पर बोझिल है, वजह यह है कि वह झूट के जाल में फँसा हुवा है. सदाक़त को पाते ही आप के दिल का बोझ उतर जाएगा और आप महसूस करेंगे की आप बहुत ताक़त के मालिक है..

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