Wednesday 19 October 2011

Hadeesi Hadse (10)

(मुस्लिम - - - किताबुल फितन व् अशरातुल साइतः)


काबे का हश्र


अबू हरीरा से हदीस है कि मुहम्मद ने कहा,
"काबा को ख़राब करेगा छोटी छोटी पिंडलियों वाला एक हब्शी और मुस्लमान दुन्या से उठ जाएँगे, जब वह मरदूद हब्शी यह कम करेगा."
दर असल मुहम्मद जिस जोर ओ जब्र से काबे पर फतह पाई थी, वह उनकी हिकमत ए अमली का जाहिराना तरीक़ा था. उनको अहसास था कि इसका अंजाम मुस्तकबिल में बुरा होगा. इस हदीस में उन्हों ने अपना अंदेशा ज़ाहिर किया है.
फतह मक्का में इस ज़ोर का यलग़ार था कि अहले मक्का ख़मोश बुत बन गए थे. इस्लामी ओलिमा इस वाकिए का ज़िक्र इस तरह करते हैं कि बगैर खून ओ क़त्ल के मक्का की फतह हुई थी जब कि असलियत यह है कि जुबान खोलने की सज़ा पल भर में क़त्ल का हुक्म हो गया था.
इब्न ए खतल काबे के गिलाफ को पकड़ कर ज़ार ओ क़तार रो रहा थ, यह बात मुहम्मद तक पहुँची कि इब्न ए खतल गिलाफ़ को छोड़ नहीं रहा, हुक्म मुहमदी हुवा कि उसको क़त्ल करदो. और इस मामूली सी जज़्बाती अम्र पर गरीब की जान चली गई.
काबे का हश्र कोई हब्शी क्या करेगा, वह तो ज़्यादः हिस्सा इस्लाम के शिकार हैं, मगर हाँ यहूदियों ने काबा ए अव्वल पर क़ब्ज़ा कर लिया है और उनका मिशन है कि वह अपने आबाई मरकज़ काबे पर एक रोज़ ज़रूर ग़ालिब हो जाएँगे. मुसलमान इसके लिए तैयार रहें. हर ज़ुल्म का अंजाम शर्मिंदगी होती है. 
(बुखारी २५)


बे सूद अमल


अमल-ए-अफ़ज़ल के लिए मुहम्मद कहते हैं कि
"पहला अमल है कि अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान रखना.
दूसरा अमल है अल्लाह की रह में जिहाद करना.
और तीसरा अमल है हज.
*पहला अमल तो कोई अमल ही नहीं है.
ऐ उम्मी मुहम्मद! अमल होता है हाथों और पैरों से कुछ करना जो ज्यादः तर पेट के लिए होते हैं.
अक़ीदा को अमल बतलाने वाले अल्लाह के झूठे रसूल को मानने वाले
ए बेवकूफों! कुछ शर्म करो कि इक्कीसवीं सदी में साँस ले रहे हो.
*दूसरा अम्ल जिहाद ? दर असल जो बद अमली है
अमन लोगों को बद अमन करना, उन्हें क़त्ल करना
फूँकना और उनको जज्या जज़या देने पर मजबूर करना.
यह बद आमालियाँ भी मुहम्मद के हिसाब से दूसरा अमले-मुक़द्दस है.
*हज एक का सफ़र का नाम है जिसमें रूहानी अय्याशी छिपी हुई है.
जब हम इस्लामी रूह से आज़ाद हो जाएँगे तो सफ़र-हकीकी शुरू होगा, दुन्या को देखने कि हसरत पूरी होगी अरब के रेगिस्तान से हट कार.
सफ़र हज सफ़रे-नाक़िस है.
कुरान में आए बार बार नेक अमलों को समझने के लिए यह हदीस खास है.
इन्सान और इंसानियत के हक में आने वाले भले काम, जैसे सच बोलना, हक़ हलाल की रोज़ी अपनाना, रोज़गार फ़राहम करना,
खिदमते ख़ल्क़ के काम, जैसे किसी काम की तलकीन कुरआन और हदीस में नहीं है.
बहाउल्लाह कहता है ---
" ए वजूद की औलादो ! आखिरी हिसाब होने से पहले, हर रोज़ तुम अपने आमाल की जाँच कार लिया करो क्यूँकि मौत की आमद अचानक होगी और तुम को अपने आमाल की तफ़सील पेश करने को कहा जाएगा."
बहा उल्लाह के आमाल वही हैं जो मैंने ऊपर दर्ज किए हैं. इन्ही आमल से हमारी दुन्या आज भरपूर ईजादों का समर पा रही है.
 
(मुस्लिम - - - किताबुल ईमान)


अल्लाह निपटेगा

अबू हरीरा कहते हैं कि
"मुहम्मद के मौत के बाद मक्का में लोग इस्लाम से मुँह मोड़ कर फिर अपने पुराने मअबूदो की इबादत करने लगे. ख़लीफ़ा अबू बकर ने इनके खिलाफ जंग का एलान इस पाबंदी के साथ किया कि वह
"लाइलाहा इल्लिलाह" पर क़ायम रहें और सदक़ा दें. बाक़ी अरकान (मुहम्मदुर रसूल लिल्लाह ) न माने तो इनसे अल्लाह निपटेगा. "
*मुहम्मद के तरीक़ा ए कार से लोग काँपने लगे थे क्यूँकि उनकी सज़ा इबरत नाक हुवा करती थी. उनकी मौत के बाद मक्का के लोगों ने चैन की साँस ली और उनके मुसल्लत किए हुए जब्र

"मुहम्मदुर रसूल लिल्लाह"

से आज़ाद हो गए.
अबू बकर ने सियासत से काम लिया कि उनको

"मुहम्मदुर रसूल लिल्लाह"

से आजाद कर दिया. लोग मान गए कि उनको राह-रास्त पर आमे कि छूट मिल गई , क्यूंकि "लाइलाहा इल्लिलाह"

से कोई पहले भी मुनकिर न था. साथ में उनको एक मज़बूत दिफाई सहारा भी मिला. अबू बकर के बाद शिद्दत पसंद हुक्मरानों ने फिर "मुहम्मदुर रसूल लिल्लाह " की शिद्दत को लागू कर दिया और इस्लामी निज़ामे-नामाकूल दुन्या पर लाद दिया. इस्लाम तलवार से ज्यादह अपने ओलिमा कि कज अदाइयों से मुक़द्दस बन गया है. आज भी यह लोग इस्लामी चरागाह में अच्छी खुराक पाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते.


No comments:

Post a Comment