दूसरी मश्क़
(बुखारी ४)
जाबिर कहते हैं कि मुहम्मद ने फ़रमाया - - -
"मैं रह गुज़र में था कि आसमान से आवाज़ आई, सर उठा कर देखता हूँ तो वही फ़रिश्ता घर वाला वाला कुर्सी पर बैठा नाज़िल है. घर आया चादर उढ़वाई. मैं डरा, दूसरी आयत उसने याद कराई. उसके बाद क़ुरआनी आयतें उतरने लगीं "
मुलाहिजा हो ग़ार वाला फ़रिश्ता आसमान पर राह चलते नज़र आता है वह भी कुर्सी पर बैठा हुवा. खैर यहाँ तक तो तसव्वुर किया जा सकता है, मगर यह कैसे हो सकता है कि हज़रात चलते रहे और फ़रिश्ता उनके सर पर उड़ता हुवा उनको आयतें याद कराता रहा?
क्या उसे ग़ार जैसी कोई दूसरी जगह नहीं मिल सकी कि जहाँ इस बार अपने नबी को बिना दबोचे पाठ पढाता.
अहमक अहले-हदीस कभी इन बातों पर गौर नहीं करते?
अहमक अहले-हदीस कभी इन बातों पर गौर नहीं करते?
मुहम्मद के वहियों का खेल उनके घर से ही शुरू हुवा, जहाँ वह अपनी बीवी पर ही अपने झूट को आज़माते.मुहम्मद के जाहिल और लाखैरे जाँ निसारों ने इन बातों का यक़ीन कर लिया और बा शऊर अहल मक्का ने इसे नज़र अंदाज़ किया कि किसी का दिमाग़ी ख़लल है, हुवा करे. हमें इससे क्या लेना देना, इस बात से बे ख़बर कि यही जिहालत उन पर एक दिन ग़ालिब होने वाली है.
(मुस्लिम किताबुल - - - जिहाद +बुखारी ७)
दावत ए इस्लाम शाह रोम को
मुज़बज़ब और गैर वाज़ेह हदीस जोकि इमाम बुखारी ने लिखा, पढ़ कर हैरत होती है कि एक बादशाह की कहानी ऐसी भी हो सकती है. मुख़्तसर यह है कि मुहम्मद ने अबू सुफ़यान के ज़रीए शाह रोम हर्कुल को दावत ए इस्लाम भेजा, बड़े बे तुके हर्कुल के सवाल और सुफ़यान के जवाब के बाद, अबु सुफ़यान ने मुहम्मद की तहरीर शाह रोम को दी जिसे पढ़ कर वह और उसके दरबारी आग पा हो गए.
तहरीर कुछ ऐसी थी ही, इतनी आम्याना, कुछ इस तरह - - -
"शुरू करता हूँ मैं अल्लाह तअला के नाम से जो बड़ा मेहरबान और रह्म वाला है. मुहम्मद अल्लाह तअला के रसूल की तरफ़ से हर्कुल को मालूम हो, जो कि रईस है रोम का. सलाम शख्स को, जो पैरवी करे हिदायत की. बाद इसके मैं तुझको हिदायत देता हूँ इस्लाम की दावत; कि तू मुसलमान हो जा तो सलामत रहेगा( यानी तेरी हुकूमत, जान और इज्ज़त सलामत और महफूज़ रहेगी) मुसलमान हो जा अल्लाह तुझे दोहरा सवाब देगा. अगर तू न मानेगा तो तुझ पर वबाल होगा अरीसियीन का.
ऐ किताब वालो! मान लो एक बात जो सीधी और साफ़ है हमारे तुम्हारे दरमियान की, कि बंदगी न करें किसी और की, सिवा अल्लाह तअला के. किसी और को शरीक भी न ठहराव आखिरी आयत तक"
ख़त का मज़मून और अंदाज़ ए खिताबत से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि मुहहम्मद और उनके खलीफे कितने मुहज्ज़ब रहे होंगे. यह दावत ए इस्लाम है या अदावत ए इस्लाम?
एक देहाती कहावत है
"काने दादा ऊख दो, तुम्हारे मीठे बोलन"
इस्लामी ओलिमा इस ख़त की तारीफों के पुल बाँधते हैं. यह इस्लामी ओलिमा ही मुसलमानों का बेडा गर्क किए हुवे है.
इस पैगाम के एलान के बाद दरबार में मुहम्मद के खिलाफ़ हंगामा खड़ा हो गया. अबू सुफ्यान को सर पर पैर रख कर भागना पड़ा.
एक देहाती कहावत है
"काने दादा ऊख दो, तुम्हारे मीठे बोलन"
इस्लामी ओलिमा इस ख़त की तारीफों के पुल बाँधते हैं. यह इस्लामी ओलिमा ही मुसलमानों का बेडा गर्क किए हुवे है.
इस पैगाम के एलान के बाद दरबार में मुहम्मद के खिलाफ़ हंगामा खड़ा हो गया. अबू सुफ्यान को सर पर पैर रख कर भागना पड़ा.
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