Friday 11 October 2013

Hadeesi Hadse 104




जीम. मोमिन 

मख्खी 
हदीस है कि मख्खी अगर सालन में गिर जाए तो उसे चुटकी में लेकर पूरी तरह सालन में डुबो कर बाहर फेंक देना चाहिए , फिर सालन को खाया जा जा सकता है . कहते हैं कि कि मख्खी के एक पर में बीमारी होती है तो दूसरे पर में शिफा . गोया दोनों पर डूब गए तो किसी नुकसान का अंदेशा नहीं।
(बुखारी १९१८)

यह रवायत अरबों में पहले से ही चली आ रही है जिसको मुहम्मद ने हदीस करके मुसलामानों का तरीक़ा बना दिया है . दोनों परों में अलग अलग तासीर है , इसका कोई साइंसटिफिक सुबूत नहीं है . मख्खी गलाज़त पर बैठती है जिससे उसमें बीमारी के जरासीम तो होते ही हैं . चाय दूध या दुसरे तरल को मख्खी के पड़ जाने पर फैंक देना चाहिए , दाल या सालन में चम्मच से पूरे एरिया को निकल कर फेंक देना चाहिए कि उस पर लागत ज्यादा होती है . पूरा का पूरा फेंकना मुनासिब नहीं।
हिजड़े 
मुहम्मद हिजड़ों को सख्त नापसंद करते थे . मुताल्कीन से कहते , इनको घरों में मत आने दिया करो।
(बुख़ारी १९३१)  
क्या यह किसी पैगम्बरी की अलामत हो सकती है कि अल्लाह की बनाई हुई मखलूक से नफरत करे ? तहकीक जदीद कहती है कि इनको समाज में रहने का हक है , वह इनके लिए कोई काम तलाश रही है ताकि यह खुद को मिली हुई घिनावनी पहचान से दूर कर सकें .

ख़याली रफ़्तार 
मुहम्मद ने कहा जन्नत में एक दरख़्त है जिसके साए में बरसों तेज़ रफ़्तार घोड़े से सफ़र किया जाए तब भी इसका साया ख़त्म नहीं होता।
(मुलिम - - - किताबुल जन्नत) 

मुहम्मद की जितनी हदीसें हैं सब इनकी जेहनी इख्तरा हैं . वह इनको बक कर अपनी पैगम्बरी चमकाते थे , उनके बाद अपने कठ मुल्लों को रोज़ी दे गए हैं कि वह भूखों न मरें  और मुसलमानों को जिहालत में मुब्तिला रख्खें.

काफ़िर न कहो 
मुहम्मद कहते हैं कोई किसी को काफ़िर या फ़ासिक न कहे , अगर वह ऐसा नहीं है तो अल्फ़ाज़ कहने वाले पर ओद करेंगे।
(बुख़ारी १९६३)  

दूसरों को नसीहत करने वाले मफरूज़ा रसूल बज़ात खुद इस मरज़ में मुब्तिला थे . बात बात पर अपने खुद सर साथियों को काफ़िर कह दिया करते थे . उन्हीं के नक्श क़दम पर आम मुसलमान है . जो अपनी सूझ बूझ से कम करता है उसको यह लक़ब मिल जाता है।

शायर को भी नहीं बख्शा 
मुहम्मद कहते हैं बअज़ शेरों में हिकमत भरी रहती है , फिर पलट कर कहते हैं , इंसान का शेरों से पेट भरे , इस से बेहतर है कि इसका पेट पीप से भर जाए।
  (बुख़ारी १९८०-८१)

मुहम्मद का पूरा कुरान उनकी फूहड़ और बकवास शायरी ही है मगर दूसरों के शायरी ही नहीं तमाम फुनून ए लतीफा उन्हें फूटी आँख नहीं भाते .

छींक 
अबू बुरदा से रवायत है कि मुहम्मद कहते हैं अल्लाह को छींक पसंद है और जमुहाई नापसंद . छींक आने पर अलहम्दो लिलिल्लाह कहना चाहिए सुनने वाले को यरहमुकल्लाह कहना चाहिए और जम्हाई मिन जानिब शैतान है आने पर हत्तुल इमकान उसे रोकना चाहिए . इस पर शैतान को हंसी आती है।
(बुख़ारी १९८९)

इस सिलसिले में दूसरी हदीस है कि फज़ल इब्न अब्बास की बेटी उम् कुलसूम पत्नी अबू मूसा (जिनको इमाम हसन ने तलाक़ दे दिया था अक़्द सानी मूसा से हुवा) के घर मैं गया . मैं छींका तो अबू मूसा ने कोई जवाब न दिया यानी यरहमुकल्लाह न कहा . इसके बाद वह छींकीं तो उनको जवाब दिया . अबू बुरदा कहते है कि लम्बी यह्कीक के बाद मालूम हुवा कि छींक आने पर अलहम्दो लिलिल्लाह कहना चाहिए सुनने वाले को यरहमुकल्लाह कहना चाहिए 
(मुस्लिम - - - किताबुल ज़ोह्द )

यह छींक और पाद सदियों से इस्लामी आलिमों का मौज़ू ए तहकीक रहा है . इसी दौरान दूसरी कौमें मखलूक के हक में तह्कीकी और तामीरी काम करती रहीं जिसे इस्लाम माद्दियत परस्ती कहता रहा . आज इसी माद्दियत परस्ती के आगे इस्लामी दुन्या नाक रगड़ रही है . बगैर टेली फोन के काम नहीं चलता , हवाई जहाज़ के बिना सफ़र नहीं कर पाते .
   इस हदीस में ज़िक्र आया है अब्बास की बेटी उम् कुलसूम पत्नी अबू मूसा का जो कि मुहम्मद के नवासे हसन की तलाक़ ज़दा थीं . हसन ने ७२ निकाह किए थे हर चौथी बीवी को तलाक़ देते हुए एक नई दुल्हन लाते . इनके आलावा उनकी बेशुमार लौंडियाँ हुवा करती थीं .


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