Tuesday 5 March 2013

Hadeesi Hadse 75


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बुख़ारी 1303+ मुस्लिम - - - किताबुल ईमान 
सूरज डूबने के बाद कहाँ जाता है ? 
"मुहम्मद ने अपने मुरीद अबू ज़र से एक दिन दरयाफ्त किया कि सूरज डूबने के बाद कहाँ जाता है, तुम जानते हो?
अबू ज़र का जवाब लाइल्मी का था , बोला अल्लाह या अल्लाह का रसूल ही बेहतर जानता है।
कहा यह आफ़ताब इलाही के पास जा कर सजदा करता है और तुलू होने की इजाज़त मांगता है , लेकिन क़ुर्ब क़यामत यह सजदा करने की इजाज़त तलब करेगा , न इसका सजदा क़ुबूल होगा न इजाज़त मिलेगी। बल्कि हुक्म होगा जिस तरफ़ से आया है उसी तरफ़ से वापस जा। चुनाँच उस दिन यह मगरिब से तुलू होगा।"
* यह झूटी फ़ितरत ख़ुद साख्ता अल्लाह के रसूल की है , जो इतने बड़े बड़े झूट गढ़ने में माहिर थे। और इन हदीस निगारों को  क्या कहा जाय , जिनकी बातों का मुसलमान हाफ़ज़ा किया करते हैं। वह बारह सौ साल पहले इतने ही  थे कि इन बातों पर गौर न करके यक़ीन कर लिया जब कि बाईस सौ साल पहले अरस्तू  सुकरात ने सूरज की छान  बीन कर लिया था।
सानेहा यह है कि आज इक्कीसवीं सदी में भी मुसलमान इन बातों पर यक़ीन रखते हैं और अपने झूठे रसूल पर जान छिड़कते हैं।
जो कौम इस क़दर ज़ेहनी तौर पर दीवालिया होगी , उसका अंजाम आज के दौर में ऐसा ही होगा जैसा मुसलमानों का है। कीड़े मकोड़े की तरह मारे जाते हैं और अपने मुल्लाओं के बहकावे में आकर कहते हैं कि इस्लाम फल फूल और फैल रहा है।

बुख़ारी 1306
हमल में ही तक़दीर का लेखा जोखा 
"मुहम्मद  उम्मत से फ़रमाते हैं कि तुम में से हर एक का मादा ऍ पैदाइश अपनी मां के पेट में चालीस दिनों तक जम़ा रहता है। फिर चालीस दिनों तक लोथड़े की श़क्ल में रहता है, उसके बाद अल्लाह तअला एक फ़रिश्ता रवाना फरमाता है . इसे चार बातों के लिखने का हुक्म होता है। 
1-अमल
2- रिज्क 
3-उम्र 
4-नसीब 
(हालां कि 4 नसीब में ही सारी बातें आ सकती थीं, मगर मुहम्मदी अल्लाह की जितनी अक्ल है , उतनी ही बातें करता है।)
इसके बाद इस में रूह फूंक दी जाती है, लिहाज़ा आदमी जन्नतियों के अमल करता है , यहाँ तक कि जन्नत में और इस शख्स में एक हाथ का फ़ासला रह जाता है कि इसकी तक़दीर ग़ालिब आकर इस से दोज़खयों के अमल पर इसको मजबूर कर देती है। एक शख्स दोज़खियों का अमल करता है और दोज़ख़ उस से सिर्फ़ एक हाथ के फ़ासले पर रह जाती है कि इसकी तक़दीर ग़ालिब हो जाती है और उसे जन्नती बना देती है।"
* मेरी नानी एक कबित कहा करती थीं - - - 
"किह्यो न न्याव (न्याय ) न किह्यो अनुयाई ,
बिना किहेन लिख दिह्यो बुराई ."
किस क़द्र हठ धर्मी की तजवीजें हैं अल्लाह की। जब तक़दीर में पहले से ही जन्नत और दोज़ख लिख रखी हैं तो कांधों पर नेक और बद अमल लिखने के लिए फ़रिश्ते क्यों बिठा रखे हैं?
किस क़द्र विरोधाभास है इस्लाम की इन बुनियादी बहसों में।
 कोई आलिम है जो इन दोहरे मेयारों का जवाब दे ? 
मगर नहीं लाखों ओलिमा हैं जो इस्लाम की ऐसी बातों का जवाब देने के लिए बैठे हैं। इनका काम इस्लाम की दलाली है जो इनके पेट का सवाल रखते हैं, इनके ईमान का नहीं।
दूसरी बात जिहालत और मन-गढ़ंत की, मुहम्मद पर ही दुरुस्त बैठती है कि 40+40=80 दिन मनी माँ के पेट में बेरूह और बेजान पड़ी रहती है।



जीम. मोमिन 

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