Tuesday 25 December 2012

Hadeesi Hadse 67


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बुखारी 1165 
मुहम्मद कहते हैं कि जब किसी शख्स को ख़ुदा की राह में कोई ज़ख्म लगता है, 
खुदा की कौन सी राह कि जिसमें इंसान ज़ख़्मी होता है ? मुहम्मद के जेहन में एक सवाल पैदा होता है - - -
यह तो अल्लाह को ही बहतर मालूम है , 
खुद जवाब देते हैं .
कहते हैं क़यामत के दिन उस शख्स के ज़ख्म से ताजः ताजः खून बहता हुआ नज़र आएगा जिस से मुश्क की खुश्बू फूटेगी .
* मुहम्मद जब झूट के पुल बांधते थे तो यह बात भूल जाते थे कि कुछ लोग इतने बेवकूफ नहीं होते कि उनकी बातों का यकीन कर लें। जब मुहम्मद को अल्लाह की वह राह ही मालूम नहीं है तो यह कैसे मालूम हुवा की ज़ख़्मी बन्दा  अपने ज़ख्मों के घाव ढोता कयामत के दिन रुसवाई उठाएगा और अपने ज़ख्मों को लोगों को सुंघाता फिरेगा कि 
"ऐ लोगो ! मेरे ज़ख्म से बेजार मत होइए , सूंघिए कि इसमें से मुश्क की खुश्बू आ रही है। पता नहीं कौन सा मेरा काम पसंद आया कि अल्लाह ने यह ज़िल्लत ढोने की सजा मुझे दी है?
मुहम्मद इन हदीसों में अव्वल दर्जे के कठ मुल्ले लगते हैं जो मुस्लिम कौम के तकदीर बने हुए हैं।

बुखारी 1169
एक खातून मुहम्मद के सामने हाज़िर हुईं जिन का बेटा जंगे-बदर में मर गया था 
उन्हों ने पूछा , 
या रसूल अल्लाह मेरा लड़का जंग में शहीद हुवा , क्या वह जन्नत में दाखिल हुवा?
अगर ऐसा नहीं हुवा होगा तो मैं खूब रोउंगी और चिल्ला चिल्ला कर शोर मचाऊंगी।
मुहम्मद बोले वह जन्नतों में जन्नत , जन्नतुल-फिरदोस में गया .
* यह मुहम्मद का झूट ही नहीं था बल्कि लोगों के साथ दगा बाज़ी थी जिसका यकीन कर के उन्हें मुफ्त में लुटेरे और डाकू मिल जाते थे जो जिहाद के नाम पर बस्तियों में डाका डालते और लूट का माल अपने सरदार मुहम्मद के हवाले करते। चौदह सौ सालों के बाद भी आज मुस्लिम ओलिमा जिहाद की अजमत बयान करते है। और तालिबान जिहादी आज भी मलाला जैसी मासूम , जिनसे-नाज़ुक पर गोलीयाँ बरसते हैं। 
इस्लामी मुजाहिद अपनी नामर्दी को जिहाद कहते हैं।

बुखारी 1171
आयशा कहती हैं उनके शौहर मुहम्मद जंगे-खंदक से फारिग हो कर जूं ही घर लौटे और हथियार रख ही रहे थे कि हज़रात जिब्रील आए और बोले या रसूल आप ने हथियार रख दिए क्या ? 
मुहम्मद बोले क्यों कही और जंग होनी है ?
जिब्रील ने कहा जी हाँ ! बनी क़रीफला में .
मुहम्मद ने हथियार उठाए और जंग के लिए निकल गए।
*आयशा मुहम्मद की मौत के बाद ही बालिग़ हुई थीं , उस वक़्त उनकी उम्र थी 18 साल। जब जेहनी तौर पर बालिग़ हुईं तो अपने शौहर की बखान में हदीसें बघारने लगी,.मुहम्मद की शरीक-हयात मुहम्मद 'शरीके-दारोग' बन गईं। आलिमान दीन उन के हर झूट को खूब जानते हैं मगर उनके नाम के साथ"रज़ी अल्लाह अन्हा" लगाना नहीं भूलते। 
एक दूसरी हदीस आगे आएगी जिसमे बैठे बैठे मुहम्मद कहते हैं - - 
"आयशा जिब्रील अलैहिस्सलाम तुम को सलाम अर्ज़ करते हैं"
वालेकुम अस्सलाम कहते हुए आयशा कहती है जिब्रील अलैहिस्सलाम आपको ही दिखाई और सुनाई पड़ते हैं , मुझे क्यों नहीं ? - - - 
यह हदीस साबित करती है कि आयशा किस कद्र झूटी और मक्कार औरत थीं। 
 



जीम. मोमिन 

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