Wednesday 23 December 2015

Hadeesi Hadse 188


*********
हदीसी हादसे 76
बुखारी 1161
मुहम्मद कहते हैं जिहादी सफ़र के लिए सूरज निकलने और डूबने के दरमियान निकलना खर ओ बरकत का वक़्त होता है .
*यह तो घर से दिनों दिन जिहाद के लिए निकलने की राय देते हैं मगर काफिरों पर हमले का वक़्त रात का चौथा पहर बतलाया है जब कि लोग आखरी नींद ले रहे हों। ज़ाहिर है कि वह इस आलम में जवाबी हमले की तय्यारी कैसे कर सकते है। डाकुओं का गिरोह हुवा करता था, सुब्ह सुब्ह बस्ती पर यलगार करके बस्ती को तहे-तैग कर देते। जवानो को चुन चुन कर मारते, औरतें और बच्चे गुलाम और लौंडी बना लिए जाते।
बुखारी 1162 
मुहम्मद कहते हैं अगर जन्नत से कोई हूर नीचे ज़मीं पर झाँक ले तो उसके हुस्ने- जमाल से तमाम कायनात रौशन और मुअत्तर हो जाए . सके सर की ओढनी दुन्या और माफिया , दोनों से आला और अफज़ल है .
*अय्याश ताबा खुद साख्ता रसूल ख्बाबों की जन्नत की सैर हर रहे हैं . 

बुखारी 1165 
मुहम्मद कहते हैं कि जब किसी शख्स को खुद की राह में कोई ज़ख्म लगता है, 
खुदा की कौन सी राह कि जिसमें इंसान ज़ख़्मी होता है ? मुहम्मद के जेहन में एक सवाल पैदा होता है - - -
यह तो अल्लाह को ही बहतर मालूम है , 
खुद जवाब देते हैं .
कहते हैं क़यामत के दिन उस शख्स के ज़ख्म से ताजः ताजः खून बहता हुआ नज़र आएगा जिस से मुश्क की कुश्बू फूटेगी .
* मुहम्मद जब झूट के पुल बांधते थे तो यह बात भूल जाते थे कि कुछ लोग इतने बेवकूफ नहीं हैं कि उनकी बातों का यकीन करें। जब मुहम्मद को अल्लाह की वह राह ही मालूम नहीं है तो यह कैसे मालूम हुवा की ज़ख़्मी बंदा अपने ज़ख्मों के घाव ढोता कयामत के दिन रुसवाई उठाएगा और अपने ज़ख्मों को लोगों को सुंघाता फिरेगा कि 
"ऐ लोगो ! मेरे ज़ख्म से बेजार मत होइए , सूंघिए कि इसमें से मुश्क की खुश्बू आ रही है। पता नहीं कौन सा मेरा काम पसंद आया कि अल्लाह ने यह ज़िल्लत ढोने की सजा मुझे दी है?
मुहम्मद इन हदीसों में अव्वल दर्जे के कठ मुल्ले लगते हैं जो मुस्लिम कौम के तकदीर बने हुए हैं।
बुखारी 1169
एक खातून मुहम्मद के सामने हाज़िर हुईं जिन का बेटा जंगे-बदर में मर गया था 
उसने पूछा , या रसूल अल्लाह मेरा लड़का जंग में शहीद हुवा , क्या वह जन्नत में दाखिल हुवा?
अगर ऐसा नहीं हुवा होगा तो मैं खूब रोउंगी और चिल्ला चिल्ला कर शोर मचाऊंगी।
मुहम्मद बोले वह जन्नतों में जन्नत , जन्नतुल-फिरदोस में गया .
* यह मुहम्मद का झूट ही नहीं था बल्कि लोगों के साथ दगा बाज़ी थी जिसका यकीन कर के उन्हें मुफ्त में लुटेरे और डाकू मिल जाते थे जो जिहाद के नाम पर बस्तियों में डाका डालते और लूट का माल सरदार मुहम्मद के हवाले करते। चौदह सौ सालों के बाद भी आज मुस्लिम ओलिमा जिहाद की अजमत बयान करते है। और तालिबान जिहादी आज भी मलाला जैसी मासूम पर जिनसे-नाज़ुक पर गोलीयाँ बरसते हैं। इस्लामी मुजाहिद अपनी नामर्दी को जिहाद कहते हैं।


जीम. मोमिन 

No comments:

Post a Comment