Tuesday 18 June 2013

Hadeesi Hadse 89


जीम. मोमिन 


बुख़ारी १५३७ 
हिजरत मक्का से मदीना 
आयशा बयान करती है कि कुफ्फार ए मक्का मेरे वालिद अबू बकर के कुबूल इस्लाम और इस्लाम पर अमल पैरा होने के बाद इनको तंग करने लगे. एक रोज़ उन्होंने मक्का को छोड़ देने का फ़ैसला किया और घर से बाहर निकल पड़े. वह मुक़ाम बर्क अममाद पहुँचे कि शनाशा इब्न ए दग़ना मिला, दोनों में तबादला ए ख़याल हुवा, उसने कहा आपको मैं जानता हूँ आप एक अच्छे इंसान हैं , मेरे साथ वापस चलें .
इब्न ए दग़ना ने कुफ्फार कुरैश और अबू बकर में सुलह करा दिया कि अबू बकर अपनी इबादत अपने घर में ही करें. अबू बकर ने अपने अहाता में एक मस्जिद बनवाई और नमाज़ें अदा करने लगे. उनको देख क र औरतें और बच्चे भी मुतास्सिर होने लगे. कुफ्फार ने इब्न ए दग़ना को बुलाकर इसकी शिकायत की। अबू बकर ने कहा इब्न ए दग़ना तुम्हारी ज़मानत ख़त्म आज से, मेरा ज़ामिन मेरा अल्लाह है। इसके बाद चार महीने तक अबू बकर जंगल में ऊँट चरते रहे। 
इधर मुहम्मद ने हिजरत का मनसूबा बना लिया था कि उनके मौत का परवाना कुरैशियों ने जारी कर दिया। मुहम्मद रात में नक़ाब पहन कर अबू बकर के घर आ गए थे, उनकी बेटी उसमा ने रख्त ए सफ़र बाँधा, रात के अँधेरे में जिबल सूर के ग़ार में मुहम्मद और अबू बकर जाकर छिप गए। तीन दिन तक दोनों उस ग़ार में छिपे रहे. गुलाम सुब्ह तडके निकल जाता, दिन भर  बकरियाँ चराता और ख़बरें इकठ्ठा करता, रात को गार में वापस आकर बकरियों का दूध और दिन भर की ख़बरें दोनों को देता. नौबत यहाँ तक पहुँच गई थी कि दोनों के सरों पर इनआम का एलान कर दिया गया. मुहम्मद और बकर ग़ार को छोड़ कर मदीने के लिए निकल पड़े, कुरैश के लोग पीछा कर रहे थे मगर एक हद तक .
रस्ते में ताजिर जबीर मिला जिसने मुहम्मद के बारे में सुन रखा था. उसने दोनों को सफेद जोड़े दिए जिसकी उन्हें ज़रुरत थी, दोनों ने उसे पहना .
मदीने में मुहम्मद की आने की खबर पहुँच चुकी थी, एक यहूदी ने इन्हें सब से पहले देखा और अहले मदीना को इसकी खुश खबरी दी, 
ऐ लोगो! तुम्हें जिस अरब का इंतज़ार था, वह आ गया है .
मुक़ाम हरा में लोग इनसे मिले और बनी उमरू इब्न ऑफ़ के मुहल्ले में इनको ठहराया. पहली नज़र में लोग अबुबकर को ही मुहम्मद समझे और उनसे मुसाफा कर रहे थे मगर जब मुहम्मद के सर पर दूप आ गई और बकर ने उन पर चादर तानी तब जाकर भेद खुला .
पहली मस्जिद मस्जिद ए तक़वा या मस्जिद ए कबाअ की बुन्याद मुहम्मद ने यहाँ एक मैदान में डाली जो दो यतीमों सहल और सुहैल का था. उन्हों ने जमीन हिबा करना चाहा मगर मुहम्मद ने इसे क़ीमत अदा  करके हासिल किया. 

 * यह मुहम्मद की रिसालत की हकीकत है जिनका अल्लाह हर वक़्त मेहरबान और मदद गार रहता है उसको किन किन जिल्लतों का सामना करना पड़ा कि भूक मिटाने के लिए अल्लाह के प्यारे नबी को मुरदार का पड़ा हुवा चमड़ा उठा कर चूसना पड़ा , पैगम्बरी शान के बर अक्स चोरों की तरह मक्का को छोड़ कर भागना पड़ा. मदीने के जिस यहूदी ने खुश खबरी दी थी कि
 ऐ लोगो! तुम्हें जिस अरब का इंतज़ार था, वह आ गया है.
को क्या पता था कि वही शख्स एक दिन उन पर अज़ाब बन कर नाजिल होगा . मदीने और मक्के की चली आ रही बरसों पुरानी दुश्मनी ने मुहम्मद को पनाह देकर तारीखी ग़लती की थी. सियासी दांव पेच मुहम्मद के हक में होते गए और उनकी पैगम्बरी मुराद पाती गई.
मुहम्मद की कामयाबी की खास वजह है उस बेकारी के दौर में अहले अरब को माले-ग़नीमत की रोज़ी देना। जंगी कुश्तो-खून को जिहाद नाम देना, लूट पाट को ज़रिया मुआश क़रार देना और लूटे हुए माल को जायज़ कह के मुसलमानों पर बरहक़ ठहराना . दस लोग लूट मार करके सौ लोगों को कंगाल कर दिया करते थे, उन नब्बे लोगों की बर्बादी इस्लामी तवारीख में कहीं नहीं मिलती. यह थी इस्लाम की कामयाबी की असलियत .
इसी दिन से इस्लामी साल हिजरी की शुरूआत हुई.देखिए कि इस बाद नुमा साल का सद्द बाब कब हो.    
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बुख़ारी १५४६ 
हुश्शाम उर्फ़ अबू जेहल की शहादत 

जंग ए बदर के रोज़ मुहम्मद ने लोगों से पूछा कि कोई है जो अबू जेहल के हाल बतलाए ? मालूम हुवा कि मदीने के दो दह्क़ानी नव जवानों ने उसे क़त्ल कर दिया है और वह ठंडा भी हो गया है . रावी कहते हैं कि मुहम्मद इसके पास गए और इसकी दाढ़ी पकड़ कर इसकी लाश से दर्याफ़्त किया, क्या तू ही अबू जेहल है? उसने जवाब दिया कि मैं सिर्फ एक आदमी हूँ जिसको तुम लोगों ने क़त्ल कर दिया . मुझे मेरी  कौम के लोगों ने क़त्ल कर दिया।

मुस्लिम - - - किताबुल जन्नत वसिफ्ता  
अनस बिन मालिक से रवायत है कि मुहम्मद ने जंगे-बदर के मकतूलीन की लाशें तीन दिनों तक यूँ ही पड़े पड़े सड़ती रहने दिया, फिर उनके पास गए नाम बनाम उनको आवाज़ देकर उन पर तअने तोड़े , इसके बाद सभी को बदर के कुँए में फिकवा दिया।

* अल्लाह के नाजायज़ रसूल की सियाह कलबी देखिए कि जिसकी नजीर तारीख इंसानी में मिलना मुहाल है। मुहसिन दादा के सगे बेटे की लाश को दाढ़ी पकड़ कर मुखातिब होते है, न वह चचा जो कुरैश खादान की नाक थे, उनकी खता यह थी की वह अपने आबाई मज़हब पर डटे रहे जैसे की आज हर मुसलमान डाटा हुवा है . उनका नाम हुश्शाम था , उनको ज़लील करने के लिए अबू जेहल कर दिया था . इन बीस लाशों में सभी मुहम्मद के अज़ीज़ दार थे कुछ उनके बुजर्ग और कुछ उनके अज़ीज़ . उनकी लाशें सड़ाने में उस रू स्याह को मज़ा आ रहा था . यही वजेह है कि आज भी मुसलमान ज्यादा तर ज़ालिम और सख्त दिल होता है .


           

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