Tuesday 6 November 2012

Hadeesi Hadse 80


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बुखारी ११३१


मुहम्मद की पोती नुमा बीवी कहती हैं कि मुहम्मद जब भी जंग के लिए जाते तो साथ में अपनी किसी न किसी बीवी को साथ ज़रूर ले जाते. इसके लिए वह बीवियों की क़ुरअ अंदाजी करते.
वह किसी जंग में जा रहे थे कि क़ुरअ अंदाजी में मेरा नाम निकल आया. चूंकि परदे का हुक्म जारी हो चुका था इसलिए मेरी ख़ातिर परदे दार कुजावे (ऊंटों पर रखा जाने वाला हौद) का इन्तेज़ाम किया गया. कुजावा मय सवारी के ऊंटों पर चढ़ा दिया जाता और इसी तरह मय सवारी उतारा जाता. 
मुहम्मद जंग से फ़ारिग़ होकर मदीना वापस हो रहे थे कि मदीने के पहले पहुँच कर आखरी मंजिल में शब् गुज़ारी के लिए ऐलान हुवा. 
मैं सुबह को क़जाए हाजत के लिए कुजावे से बाहर निकली और दूर चली गई, वापसी में मेरा हाथ अपने गले पर गया तो एहसास हुवा कि मेरा शुगरे-ज़ुफार का हार गले से गायब था, मैं वापस उस मुकाम तक गई और हार ढूंढती रही. हार खुदा खुदा करके मिल गता तो मैं वापस काफिले के पास गई, तो वहां कुछ न था, मालूम हुवा काफ़िला कूच कर गया, मेरा सर चकराया और मैं वहीँ बैठ गई. 
आयशा कहती हैं मैं उस ज़माने मैं एक हलकी फुल्की लड़की थी जैसे कि कुँवारी लड़कियां होती हैं, मजदूरों को ख़याल हुवा कि मैं कुजावे बैठी हूँ, ग़रज़ खाली कुजावा ऊँट पर कस दिया गया. मै सोचने लगी कि जब लोग कुजावे में मुझे न पाएँगे तो ज़रूर वापस होंगे. 
इसी मुक़ाम पर बैठे बैठे मुझे नींद आ गई. हज़रात सिफ़वान इब्ने मुअत्तल जो कि  क़फ़िले के पीछे सफ़र किया करते थे (इस लिए कि क़फ़िले की कोई चीज़ छूट गई हो तो उसे उठा लें) जब सुबह को मेरे क़रीब पहुंचे तो मुझे पहचान लिया. उन्हों ने ऊँट पर मुझे बिठाया और खुद मोहार पकड़ कर चलने लगे यहाँ तक कि मेरा क़ाफ़िला मैदान में धूप सेंकता हुवा मुझे मिल गया. 
इस अरसे में जिसको फितना आराई करनी थी, कर चुके थे( यह अब्दुल्ला इब्न अबी, इब्ने सलूल था जिसने आयशा पर बोहतान तराशी की थी.) 
हम लोग मदीना पहुंचे, मैं वहां बीमार पड़ गई, बोहतान की खबर मदीने में रोज़ बरोज़ तरक्क़ी करती गई. और मेरे शौहर मुहम्मद भी उनमें शामिल हो गए जो इलज़ाम तराशी में थे. इस बीमारी में मैं बहुत ज़ईफ़ हो गई. एक दिन मेरी एक दोस्त ने बोहतान की पूरी दास्तान मुझको सुनाई. मैं इसे सुन कर और भी नहीफ़ हो गई. मै अपने मायके चली गई जहाँ मेरी माँ ने मुझे तसल्ली दी. इस दौरान मुहम्मद ने अली औ ओसामा इब्ने ज़ैद को बुलाया और मश्विरह तलब किया ( इस दौरान शायद अल्लाह भी शक ओ शुब्हः में पड़ा था कि वहिय न भेजता था) दोनों ने अपने अपने तबीयत के मुताबिक राय दिया, ओसामा ने आयशा के हक में मश्विरह दिया मगर अली ने कज अदाई की. बात को बरीरा तक बढ़ा दिया. बरीरा ने भी मुहम्मद को आयशा की खूबियाँ ही बतलाईं.
मुहम्मद वहां से उट्ठे और सीधे सलूल की तरफ़ गए और इलज़ाम तराशों को कुछ मशविरा देने के बाद उनसे मुआज्रत ख्वाह होने पर जोर दिया. बात बढ़ कर क़बीलाई अज़मतों तक पहुँच गई. दो मक्की और मदनी क़बीलाई सरदारों में पहले लफज़ी जंग हुई, बात बढ़ गई तो हाथ तलवारों तक पहुँच गए. इस नाज़ुकी को देख कर मुहम्मद उठे और सबको ख़मोश किया और ख़ामोशी छा गई. 
आयशा कहती है कि रो रो कर उसका हाल बुरा था कि एक महीने बाद मुहम्मद ने जुबान खोली, आकर बैठे और कहने लगे
" आयशा मुझे यक़ीन है कि अल्लाह जल्द ही तुम्हारे बारे में वह्यी भेजेगा फिर भी अगर तुमने ऐसे फ़ेल का इर्तेकाब किया है तो खुदा तअला से तौबा करो, क्योंकि जब कोई बन्दा गुनाह करके तौबा करता है तो खुदा उसके गुनाहों को मुआफ़ कर देता है. " 
मुहम्मद का कलाम ख़त्म हुवा तो आयशा के आंसू खुश्क हो चुके थे और वह हर एहसास से खुद को बरी कर लिया था, बाप से बोली "इनसे बातें आप ही कर लें या वाल्दा", दोनों ने कहा बेटी मैं खुद हैरान हूँ कि नबी को क्या जवाब दें. आयशा कहती है " खुदा की क़सम मैं ने महसूस किया है कि मुआमले को लोगों ने इतना मशहूर किया है कि सबके दिलों में यह यक़ीन बन गया है कि मैं मुजरिम हूँ, आप लोग मेरी हाँ करने के मुन्तजिर हैं. आप लोग जो बयान करते हो, इसके लिए मेरा खुदा ही मेरा मदद गार है." ये कहती हुई अपने बिस्तर पर चली गई कि
"मैं अपने आप को इस काबिल नहीं समझती कि मेरी ज़ात पर वह्यी उतरे और क़ुरआन में मेरा वाक़िया नमाज़ों में पढ़ा जाए. मैं खुद को इकदम कमतर समझती हूँ और उम्मीद करती हूँ कि अल्लाह ताला नबी को सच ख्वाब में दिखला दे. "
इसके बाद मुहम्मद पर वह्यी आई, वह पसीना पसीना हुए और बोले "आयशा तुम इलज़ाम से बरी हुईं, अल्लाह ने तुम्हारे बारे में वह्यी भेज दी है.
"आयशा की मां ने उस से कहा
"बेटी तू मुहम्मद का शुकिया अदा कर कि उनका दिल साफ़ हो गया है."
आयशा बोली "मैं अल्लाह के आलावा किसी का शुक्रिया नहीं अदा करूंगी." 
इस वह्यी के नाटक के बाद कि मुहम्मद के अल्लाह ने मुहम्मद को अपनी शहादत दे दी, ये सख्स फिर अपनी बे निकाही बीवी ज़ैनब से दर्याफ़्त करता है कि
"ज़ैनब तुम बतलाओ कि आयशा का किरदार कैसा है?"
ज़ैनब भी आयशा की कट्टर सौतन होते हुए भी कहा
"मैंने आयशा के किरदार में कोई लगजिश नहीं पाई." 
* इस वाक़िए की हक़ीक़त तो साफ़ नहीं है कि मुहम्मद की बीवी आयशा पर इलज़ाम सही हैं कि ग़लत? मगर मुहम्मद की पैगम्बरी ज़रूर झूटी साबित होती है. एक कमज़ोर इंसान की तरह वह पूरी ज़िन्दगी शक ओ शुबह में पड़े रहे. उनका पाखंड वह्यी (आकाश वाणी) भी उनको इत्मीनान न दे सकी, जो मुसलमानों का अकीदा तकमील-कुरान है. 




जीम. मोमिन 

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