Tuesday 10 April 2012

Hadeesi Hadse 34


इस्लाम कोई धर्म नहीं, न ही रूहानियत की कोई अलामत. यह निरा सियासत कल भी था और आज भी है. आप किसी न किसी ओलिमाके सियासत का शिकार हैं.अब्बास और अली दोनों मुहम्मद के चाचा ज़ाद भाई हैं. इन्हीं लोगों की नस्लों का बोल बाला हम हिंदियों पर हमेशा रहा है. दर असल हम इनके जेहनी गुलाम हैं.

रोज़े मुसलमानों पर अज़ाब की तरह मुसल्लत हैं. हजारो रोजदार रमजान महीने में मौत के शिकार हो जाते हैं.रोजदार के मुंह से ऐसी बदबू निकलती है कि आप उसका सामना नहीं कर सकते, उनसे मुंह फेर के बात करनी पड़ती है. बद ज़ौक मुहम्मद कहते हैं कि उनके अल्लाह को ये बदबू मुश्क क़ी सी लगती है. 
मुसलमानों के हर कम में शिद्दत है, यह सोकर उठने के बाद दिन भर दाँत नहीं माजते, रोज़ा टूट जाने का डर  लगा रहता है.
मुहम्मद अपने चाचा काफ़िर अबू तालिब क़ी मग्फ़िरत (मोक्ष) क़ी दुआ करने क़ी बात करते हैं जब कि उम्मत को ऐसा करने को हराम बतलाते हैं.कुरान में है की काफिरों के लिए इनकी मग्फ़िरत किई दुआ मत मांगो. मरने के बाद भी इस्लाम फ़र्द से नफ़रत सिखलाता है.
सवाल तब भी बरहक़ था और आज भी बरहक है कि हर शय का बनाने वाला अगर अल्लाह है तो उसको बनाने वाला कौन? वह अगर खुद बखुद है तो हर चीजें खुद बख़ुद हैं.
मुहम्मद को अच्छी तरह मालूम था कि कुरान की हर आयत खुद उन्हों ने गढ़ी है जिसमें कहीं कोई असर नहीं है, इसी लिए उन्हों ने उनसे दरयाफ्त किया की सूरह अल्हम्द में मंतर का असर कैसे जाना. माले-मुफ़्त के लिए हाज़िर हो गए, ये उनकी तबियत है,
यह बात डाकुओं के सरदार की जैसी लगती है. माले-गनीमत वहीँ होगा जहाँ माल होगा .मुहम्मद एक लुटेरे थे , अफ़सोस कि आज वह मुह्सने इंसानियत कहे जाते हैं.
जीम. मोमिन 

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