Friday 24 February 2012

नया एलान


नया एलान  


ज़िन्दगी एक ही पाई, ये अधूरी है बहुत, 
इसको गैरों से छुड़ा लो, ये ज़रूरी है बहुत. 
इसको जीने की मुकम्मल हमें आज़ादी हो, 
इसको शादाब करें, इसकी न बर्बादी हो. 
इसपे वैसे भी मुआशों की मुसीबत है बहुत, 
तन के कपड़ों की, घर व् बार की कीमत है बहुत. 
इसपे क़ुदरत के सितम ढोने की पाबन्दी है, 
मुल्की क़ानून की, आईन की ये बन्दी है. 
बाद इन सबके, ये जो सासें बची हैं इसकी, 
उसपे मज़हब ने लगा रक्खी हैं मुहरें अपनी. 


खास कर मज़हब-ए-इस्लाम बड़ा मोहलिक है, 
इसका पैगाम ग़लत, इसका गलत मालिक है. 
दीन ये कुछ भी नहीं, सिर्फ़ सियासत है ये, 
बस ग़ुलामी है ये, अरबों की विरासत है ये. 
देखो कुरान में बस थोड़ी जिसरत करके, 
तर्जुमा सिर्फ़ पढो, हाँ , न अक़ीदत करके. 
झूट है इसमें, जिहालत हैं रिया करी, 
बोग्ज़ हैं धोखा धडी है, निरी अय्यारी है. 
गौर से देखो, हयतों की निज़ामत है कहाँ? 
इसमें जीने के सलीके हैं, तरीक़त है कहाँ? 
धांधली की ये फ़क़त राह दिखाता है हमें, 
गैर मुस्लिम से कुदूरत ये सिखाता है हमें. 
जंगली वहशी कुरैशों में अदावत का सबब, 
इक कबीले का था फितना, जो बना है मज़हब. 
जंग करता है मुस्लमान जहाँ पर हो सुकून, 
इसको मरगूब जेहादी गिजाएँ, कुश्त व् खून. 
सच्चा इन्सान मुसलमान नहीं हो सकता, 
पक्का मुस्लिम कभी इंसान नहीं हो सकता. 
सोहबत ए ग़ैर से यह कुछ जहाँ नज़दीक हुए, 
धीरे धीरे बने इंसान, ज़रा ठीक हुए. 
इनकी अफ़गान में इक पूरी झलक बाकी है, 
वहशत व् जंग व् जूनून, आज तलक बाक़ी है

तर्क ए इस्लाम का पैगाम है मुसलमानों ! 
वर्ना, ना गुफ़तनी अंजाम है मुसलमानों ! 
न वह्यी और न इल्हाम है मुसलमानों ! 
एक उम्मी का बुना दाम है मुसलमानों ! 
इस से निकलो कि बहुत काम है मुसलमानों ! 
शब् है खतरे की, अभी शाम है मुसलमानों !

जिस क़दर जल्द हो तुम इस से बग़ावत कर दो. 
बाकी इंसानों से तुम तर्क ए अदावत कर दो. 
तुम को ज़िल्लत से निकलने की राह देता हूँ, 
साफ़ सुथरी सी तुम्हें इक सलाह देता हूँ. 
है एक लफ्ज़ इर्तेक़ा, अगर जो समझो इसे, 
इसमें सब कुछ छुपा है समझो इसे. 
इसको पैगम्बरों ने समझा नहीं, 
तब ये नादिर ख़याल था ही नहीं. 
इर्तेक़ा नाम है कुछ कुछ बदलते रहने का, 
और इस्लाम है महदूदयत को सहने का. 
बहते आए हैं सभी इर्तेक़ा की धारों में, 
ये न होती तो पड़े रहते अभी ग़ारों में. 
हम सफ़र इर्तेक़ा के हों, तो ये तरक्क़ी है, 
कायनातों में नहीं ख़त्म, राज़ बाकी है.

तर्क ए इस्लाम का मतलब नहीं कम्युनिष्ट बनो, 
या कि फिर हिन्दू व् ईसाई या बुद्धिष्ट बनो, 
चूहे दानों की तरह हैं सभी धर्म व् मज़हब. 
इनकी तब्दीली से हो जाती है आज़ादी कब? 
सिर्फ़ इन्सान बनो तर्क हो अगर मज़हब, 
ऐसी जिद्दत हो संवरने की जिसे देखें सब. 


धर्म व् मज़हब की है हाजत नहीफ़ ज़हनों को, 
ज़ेबा देता ही नहीं ये शरीफ़ ज़हनो को. 
इस से आज़ाद करो जिस्म और दिमागों को. 
धोना बाकी है तुन्हें बे शुमार दागों दागों को. 
सब से पहले तुम्हें तालीम की ज़रुरत है, 
मंतिक व् साइंस को तस्लीम की ज़रुरत है. 
आला क़द्रों की करो मिलके सभी तय्यारी, 
शखसियत में करें पैदा इक आला मेयारी. 
फिर उसके बाद ज़रुरत है तंदुरुस्ती की, 
है मशक्क़त ही फ़कत ज़र्ब, तंग दस्ती की.

पहले हस्ती को संवारें, तो बाद में धरती, 
पाएँ नस्लें, हो विरासत में अम्न की बस्ती, 
कुल नहीं रब है, यही कायनात है अपनी, 
इसी का थोडा सा हिस्सा हयात है अपनी.. 
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान


ज़िन्दगी एक ही पाई, ये अधूरी है बहुत, 
इसको गैरों से छुड़ा लो, ये ज़रूरी है बहुत. 
इसको जीने की मुकम्मल हमें आज़ादी हो, 
इसको शादाब करें, इसकी न बर्बादी हो. 
इसपे वैसे भी मुआशों की मुसीबत है बहुत, 
तन के कपड़ों की, घर व् बार की कीमत है बहुत. 
इसपे क़ुदरत के सितम ढोने की पाबन्दी है, 
मुल्की क़ानून की, आईन की ये बन्दी है. 
बाद इन सबके, ये जो सासें बची हैं इसकी, 
उसपे मज़हब ने लगा रक्खी हैं मुहरें अपनी. 


खास कर मज़हब-ए-इस्लाम बड़ा मोहलिक है, 
इसका पैगाम ग़लत, इसका गलत मालिक है. 
दीन ये कुछ भी नहीं, सिर्फ़ सियासत है ये, 
बस ग़ुलामी है ये, अरबों की विरासत है ये. 
देखो कुरान में बस थोड़ी जिसरत करके, 
तर्जुमा सिर्फ़ पढो, हाँ , न अक़ीदत करके. 
झूट है इसमें, जिहालत हैं रिया करी, 
बोग्ज़ हैं धोखा धडी है, निरी अय्यारी है. 
गौर से देखो, हयतों की निज़ामत है कहाँ? 
इसमें जीने के सलीके हैं, तरीक़त है कहाँ? 
धांधली की ये फ़क़त राह दिखाता है हमें, 
गैर मुस्लिम से कुदूरत ये सिखाता है हमें. 
जंगली वहशी कुरैशों में अदावत का सबब, 
इक कबीले का था फितना, जो बना है मज़हब. 
जंग करता है मुस्लमान जहाँ पर हो सुकून, 
इसको मरगूब जेहादी गिजाएँ, कुश्त व् खून. 
सच्चा इन्सान मुसलमान नहीं हो सकता, 
पक्का मुस्लिम कभी इंसान नहीं हो सकता. 
सोहबत ए ग़ैर से यह कुछ जहाँ नज़दीक हुए, 
धीरे धीरे बने इंसान, ज़रा ठीक हुए. 
इनकी अफ़गान में इक पूरी झलक बाकी है, 
वहशत व् जंग व् जूनून, आज तलक बाक़ी है

तर्क ए इस्लाम का पैगाम है मुसलमानों ! 
वर्ना, ना गुफ़तनी अंजाम है मुसलमानों ! 
न वह्यी और न इल्हाम है मुसलमानों ! 
एक उम्मी का बुना दाम है मुसलमानों ! 
इस से निकलो कि बहुत काम है मुसलमानों ! 
शब् है खतरे की, अभी शाम है मुसलमानों !

जिस क़दर जल्द हो तुम इस से बग़ावत कर दो. 
बाकी इंसानों से तुम तर्क ए अदावत कर दो. 
तुम को ज़िल्लत से निकलने की राह देता हूँ, 
साफ़ सुथरी सी तुम्हें इक सलाह देता हूँ. 
है एक लफ्ज़ इर्तेक़ा, अगर जो समझो इसे, 
इसमें सब कुछ छुपा है समझो इसे. 
इसको पैगम्बरों ने समझा नहीं, 
तब ये नादिर ख़याल था ही नहीं. 
इर्तेक़ा नाम है कुछ कुछ बदलते रहने का, 
और इस्लाम है महदूदयत को सहने का. 
बहते आए हैं सभी इर्तेक़ा की धारों में, 
ये न होती तो पड़े रहते अभी ग़ारों में. 
हम सफ़र इर्तेक़ा के हों, तो ये तरक्क़ी है, 
कायनातों में नहीं ख़त्म, राज़ बाकी है.

तर्क ए इस्लाम का मतलब नहीं कम्युनिष्ट बनो, 
या कि फिर हिन्दू व् ईसाई या बुद्धिष्ट बनो, 
चूहे दानों की तरह हैं सभी धर्म व् मज़हब. 
इनकी तब्दीली से हो जाती है आज़ादी कब? 
सिर्फ़ इन्सान बनो तर्क हो अगर मज़हब, 
ऐसी जिद्दत हो संवरने की जिसे देखें सब. 


धर्म व् मज़हब की है हाजत नहीफ़ ज़हनों को, 
ज़ेबा देता ही नहीं ये शरीफ़ ज़हनो को. 
इस से आज़ाद करो जिस्म और दिमागों को. 
धोना बाकी है तुन्हें बे शुमार दागों दागों को. 
सब से पहले तुम्हें तालीम की ज़रुरत है, 
मंतिक व् साइंस को तस्लीम की ज़रुरत है. 
आला क़द्रों की करो मिलके सभी तय्यारी, 
शखसियत में करें पैदा इक आला मेयारी. 
फिर उसके बाद ज़रुरत है तंदुरुस्ती की, 
है मशक्क़त ही फ़कत ज़र्ब, तंग दस्ती की.

पहले हस्ती को संवारें, तो बाद में धरती, 
पाएँ नस्लें, हो विरासत में अम्न की बस्ती, 
कुल नहीं रब है, यही कायनात है अपनी, 
इसी का थोडा सा हिस्सा हयात है अपनी.. 
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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